गायत्री महाविज्ञान

आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ

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आध्यात्मिक साधना का क्षेत्र तीन भागों में बँटा हुआ है। तीन व्याहृतियों में उनका स्पष्टीकरण कर दिया गया है। १-भू:, २-भुव:, ३-स्व: यह तीन आत्मिक भूमिकायें मानी गई हैं। ‘भू:’ का अर्थ है- स्थूल जीवन, शारीरिक एवं सांसारिक जीवन। ‘भुव:’ का अर्थ है- अन्त:करण चतुष्टय, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का कार्यक्षेत्र। ‘स्व:’ का अर्थ है- विशुद्ध आत्मिक सत्ता। मनुष्य की आन्तरिक स्थिति इन तीन क्षेत्रों में होती है।

    ‘‘भू:’’ का सम्बन्ध अन्नमय कोश से है। ‘‘भुव:’’ प्राणमय और मनोमय कोश से आच्छादित है। ‘‘स्व:’’ का प्रभाव क्षेत्र विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश है। शरीर से सम्बन्ध रखने वाली जीविका उपार्जन, लोक-व्यवहार, नीति, शिल्प, कला, स्कूली शिक्षा, व्यापार, सामाजिक, राजनीतिक ज्ञान, नागरिक कर्त्तव्य आदि बातें भू: क्षेत्र में आती हैं। ज्ञान, विवेक, दूरदर्शिता, धर्म, दर्शन, मनोबल, प्राणशक्ति, तान्त्रिक प्रयोग, योग साधना आदि बातें भुव: क्षेत्र की हैं। आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरपरायण, ब्राह्मी स्थिति, परमहंस गति, समाधि, तुरीयावस्था, परमानन्द, मुक्ति का क्षेत्र ‘स्व:’ के अन्तर्गत हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र के ये तीन लोक हैं। पृथ्वी, पाताल, स्वर्ग की भाँति ही हमारे भीतर भू:, भुव: स्व: तीन लोक हैं।

    इन तीन स्थितियों के आधार पर ही गायत्री के तीन विभाग किये गये हैं। उसे त्रिपदा कहा गया है, उसके तीन चरण हैं। पहली भूमिका, प्रथम चरण, भू: क्षेत्र के लिए है। उसके अनुसार वे शिक्षाएँ दी जाती हैं, जो मनुष्य के व्यक्तिगत और सांसारिक जीवन को सुव्यवस्थित बनाने में सहायक सिद्ध होती हैं।

    ‘‘गायत्री गीता’’ एवं ‘‘गायत्री स्मृति’’ में गायत्री के चौबीस अक्षरों की व्याख्या की गई है। एक-एक अक्षर एवं शब्द से जिन सिद्धान्तों, आदर्शों एवं उपदेशों की शिक्षा मिलती है, वे इतने अमूल्य हैं कि उनके आधार पर जीवन-नीति बनाने का प्रयत्न करने वाला मनुष्य दिन-दिन सुख, शान्ति, समृद्धि, उन्नति एवं प्रतिष्ठा की ओर बढ़ता चला जाता है।  इस ग्रन्थ में ‘गायत्री कल्पवृक्ष’ उपशीर्षक के अन्तर्गत ‘गायत्री कल्पवृक्ष’ का चित्र बनाकर यह समझाने का प्रयत्न किया है कि तत्, सवितुर्, वरेण्यं आदि शब्दों का मनुष्य के लिए किस प्रकार आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण शिक्षण है? वे शिक्षायें अत्यन्त सरल, तत्काल अपना परिणाम दिखाने वाली एवं घर-बाहर सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य स्थापित करने वाली हैं।

    गायत्री की दस भुजाओं के सम्बन्ध में ‘‘गायत्री मञ्जरी’’ में यह बताया गया है कि इन दस भुजाओं से माता दस शूलों को नष्ट करती हैं। १-दूषित दृष्टि, २-परावलम्बन, ३-भय, ४-क्षुद्रता, ५-असावधानी, ६-स्वार्थपरता, ७-अविवेक, ८-आवेश, ९-तृष्णा, १०-आलस्य। यह दस शूल माने गये हैं। इन दस दोषों, मानसिक शत्रुओं को नष्ट करने के लिए १ प्रणव व्याहृति तथा ९ पदों द्वारा दस ऐसी अमूल्य शिक्षायें दी गई हैं, जो मानव जीवन में स्वर्गीय आनन्द की सृष्टि कर सकती हैं। नीति, धर्म, सदाचार, सम्पन्नता, व्यवहार, आदर्श, स्वार्थ और परमार्थ का जैसा सुन्दर समन्वय इन शिक्षाओं में है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। वेदशास्त्रों की सम्पूर्ण शिक्षाओं का निचोड़ इन अक्षरों में रख दिया गया है। इनका जो जितना अनुसरण करता है, वह तत्काल उतने ही अंशों में लाभान्वित हो जाता है।


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