गायत्री महाविज्ञान

नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार

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भारतवर्ष में सदा से नारियों का समुचित सम्मान रहा है। उन्हें पुरुषों की अपेक्षा अधिक पवित्र माना जाता रहा है। नारियों को बहुधा ‘देवी’ सम्बोधन से सम्बोधित किया जाता रहा है। नाम के पीछे उनकी जन्मजात उपाधि ‘देवी’ प्राय: जुड़ी रहती है। शान्ति देवी, गंगा देवी, दया देवी आदि ‘देवी’ शब्द पर कन्याओं के नाम रखे जाते हैं। जैसे पुरुष बी० ए०, शास्त्री, साहित्यरत्न आदि उपाधियाँ उत्तीर्ण करने पर अपने नाम के पीछे उस पदवी को लिखते हैं, वैसे ही कन्याएँ अपने जन्म- जात ईश्वर प्रदत्त दैवी गुणों, दैवी विचारों और दिव्य विशेषताओं के कारण अलंकृत होती हैं।

देवताओं और महापुरुषों के साथ उनकी अर्धांगिनियों के नाम भी जुड़े हुए हैं। सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश, माया- ब्रह्म, सावित्री- सत्यवान् आदि नामों से नारी को पहला और नर को दूसरा स्थान प्राप्त है। पतिव्रत, दया, करुणा, सेवा- सहानुभूति, स्नेह, वात्सल्य, उदारता, भक्ति- भावना आदि गुणों में नर की अपेक्षा नारी को सभी विचारवानों ने बढ़ा- चढ़ा माना है।

इसलिये धार्मिक, आध्यात्मिक और ईश्वर प्राप्ति सम्बन्धी कार्यों में नारी का सर्वत्र स्वागत किया गया है और उसे उसकी महत्ता के अनुकूल प्रतिष्ठा दी गयी है। 

वेदों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के मन्त्रदृष्टा जिस प्रकार अनेक ऋषि हैं, वैसे ही अनेक ऋषिकाएँ भी हैं। ईश्वरीय ज्ञान वेद महान् आत्मा वाले व्यक्तियों पर प्रकट हुआ है और उनने उन मन्त्रों को प्रकट किया। इस प्रकार जिन पर वेद प्रकट हुए, उन मन्त्रद्रष्टओं को ऋषि कहते हैं। ऋषि केवल पुरुष ही नहीं हुए हैं, वरन् अनेक नारियाँ भी हुई हैं। ईश्वर ने नारियों के अन्त:करण में भी उसी प्रकार वेद- ज्ञान प्रकाशित किया, जैसे कि पुरुषों के अत:करण में; क्योंकि प्रभु के लिये दोनों ही सन्तान समान हैं। महान दयालु, न्यायकारी और निष्पक्ष प्रभु अपनी ही सन्तान में नर- नारी का भेद- भाव कैसे कर सकते हैं?

ऋग्वेद १०। ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है। ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेति (२.११)। ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)।’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है।
ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है—
घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत्।
ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति:॥ ८४॥
इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती॥ ८५॥
श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा।
रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता:॥ ८६॥
अर्थात्- घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं।
ऋ ग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त को की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं।

ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह यज्ञ करती और कराती थीं। वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं। कई नारियाँ तो इस सम्बध में अपने पिता तथा पति का मार्ग दर्शन करती थीं।
‘‘तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है—
तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त। अथ ह सीता सावित्री।
सोमँ राजानं चकमे। तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ। -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३
इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये।
मनु की पुत्री ‘इड़ा’ का वर्णन करते हुए तैत्तिरीय ब्रा० १। १। ४। ४ में उसे ‘यज्ञानुकाशिनी’ बताया है। यज्ञानुकाशिनी का अर्थ शायणाचार्य ने ‘यज्ञ तत्त्व प्रकाशन समर्था’ किया है। इड़ा ने अपने पिता को यज्ञ सम्बन्धी सलाह देते हुए कहा—
साऽब्रवीदिडा मनुम्। तथा वा अहं तवाग्निमाधास्यामि। यथा प्र प्रजया पशुभिर्मिथुनैर्जनिष्यसे। प्रत्यस्मिल्लोके स्थास्यसि। अभि सुवर्गं लोकं जेष्यसीति। —तैत्तिरीय ब्रा० १/१/४/६

इड़ा ने मनु से कहा- तुम्हारी अग्नि का ऐसा आधान करूँगी जिससे तुम्हें पशु, भोग, प्रतिष्ठा और स्वर्ग प्राप्त हो।
प्राचीन समय में स्त्रियाँ गृहस्थाश्रम चलाने वाली थीं और ब्रह्म- परायण भी। वे दोनों ही अपने- अपने कार्यक्षेत्रों में कार्य करती थीं। जो गृहस्थ का संचालन करती थीं, उन्हें ‘सद्योवधू’ कहते थे और जो वेदाध्ययन, ब्रह्म उपासना आदि के पारमार्थिक कार्यों में प्रवृत्त रहती थीं, उन्हें ‘ब्रह्मवादिनी’ कहते थे। ब्रह्मवादिनी और सद्योवधू के कार्यक्रम तो अलग- अलग थे, पर उनके मौलिक धर्माधिकारों में कोई अन्तर न था। देखिये—
द्विविधा: स्त्रिया:। ब्रह्मवादिन्य: सद्योवध्वश्च। तत्र ब्रह्मवादिनीनामुपनयनम्, अग्रीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भिक्षाचर्येति। सद्योवधूनां तूपस्थिते विवाहे कथञ्चिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाह: कार्य:। —हारीत धर्म सूत्र
ब्रह्मवादिनी और सद्योवधू ये दो स्त्रियाँ होती हैं। इनमें से ब्रह्मवादिनी- यज्ञोपवीत, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा स्वगृह में भिक्षा करती हैं। सद्योवधुओं का भी यज्ञोपवीत आवश्यक है। वह विवाहकाल उपस्थित होने पर करा देते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य ऋषि की धर्मपत्नी मैत्रेयी को ब्रह्मवादिनी कहा है—
तयोर्ह मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव। —शत०ब्रा० १४/७/३/१

अर्थात् मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी।
ब्रह्मवादिनी का अर्थ बृहदारण्यक उपनिषद् का भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्य ने ‘ब्रह्मवादनशील’ किया है। ब्रह्म का अर्थ है- वेद। ब्रह्मवादनशील अर्थात् वेद का प्रवचन करने वाली। यदि ‘ब्रह्म’ का अर्थ ‘ईश्वर’ किया जाए तो भी ब्रह्म की प्राप्ति वेद- ज्ञान के बिना नहीं हो सकती; यानी ब्रह्म को वही जान सकता है जो वेद पढ़ता है।

देखिए—
ना वेदविन्मनुते तं बृहन्तम्। एतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन। —तैत्तिरीयोप०
जिस प्रकार पुरुष ब्रह्मचारी रहकर तप और योग द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते थे, वैसे ही कितनी ही स्त्रियाँ ब्रह्मचारिणि रहकर आत्मनिर्माण एवं परमार्थ का सम्पादन करती थीं। पूर्वकाल में अनेक सुप्रसिद्ध ब्रह्मचारिणि हुई हैं जिनकी प्रतिभा और विद्वत्ता की चारों ओर कीर्ति फैली हुई थी। महाभारत में ऐसी अनेक ब्रह्मचारिणियों का वर्णन आता है।
भारद्वाजस्य दुहिता रूपेणाप्रतिमा भुवि।
श्रुतावती नाम विभो कुमारी ब्रह्मचारिणी॥ —महाभारत शल्य पर्व ४८। २
भारद्वाज की श्रुतावती नामक कन्या थी जो ब्रह्मचारिणि थी। कुमारी के साथ- साथ ब्रह्मचारिणि शब्द लगाने का तात्पर्य यह है कि वह अविवाहित और वेदाध्ययन करने वाली थी।
अत्रैव ब्राह्मणी सिद्धा कौमार- ब्रह्मचारिणि।
योगयुक्ता दिवं याता, तप: सिद्धा तपस्विनी॥ —महाभारत शल्य पर्व ५४। ६
योग सिद्धि को प्राप्त कुमार अवस्था से ही वेदाध्ययन करने वाली तपस्विनी, सिद्धा नाम की ब्रह्मचारिणि मुक्ति को प्राप्त हुई।
बभूव श्रीमती राजन् शाण्डिल्यस्य महात्मन:।
सुता धृतव्रता साध्वी नियता ब्रह्मचारिणि
सा तु तप्त्वा तपो घोरं दुश्चरं स्त्रीजनेन ह।
गता स्वर्गं महाभागा देवब्राह्मणपूजिता॥ —महाभारत शल्य पर्व ५४। ७। ८

महात्मा शाण्डिल्य की पुत्री ‘श्रीमती’ थी, जिसने व्रतों को धारण किया। वेदाध्ययन में निरन्तर प्रवृत्त थी। अत्यन्त कठिन तप करके वह देव ब्राह्मणों से पूजित हुई और स्वर्ग सिधारी।
तेभ्योऽधिगन्तुं निगमान्त विद्यां वाल्मीकि पाश्र्वादिह सञ्चरामि —उत्तर रामचरित अंक २
(आत्रेयी का कथन) उन (अगस्त्यादि ब्रह्मवेत्ताओं) से ब्रह्म विद्या सीखने के लिए वाल्मीकि के पास से आ रही हूँ।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय ३२० में ‘सुलभा’ नामक ब्रह्मवादिनी संन्यासिनी का वर्णन है, जिसने राजा जनक के साथ शास्त्रार्थ किया था। इसी अध्याय के श्लोकों में सुलभा ने अपना परिचय देते हुए कहा—
प्रधानो नाम राजर्षिव्र्यक्तं ते श्रोत्रमागत:।
कुले तस्य समुत्पन्नां सुलभां नाम विद्धि माम्
साऽहं तस्मिन् कुले जाता भर्तर्यसति मद्विधे।
विनीता मोक्षधर्मेषु चराम्येकामुनिव्रतम्॥ —महा०शान्ति पर्व ३२०। १८१। १८३

मैं सुप्रसिद्ध क्षत्रिय कुल में उत्पन्न सुलभा हूँ। अपने अनुरूप पति न मिलने से मैंने गुरुओं से शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करके संन्यास ग्रहण किया है।
पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी की विद्वत्ता का वर्णन करते हुए श्री आचार्य आनन्दतीर्थ (माधवाचार्य) जी ने ‘महाभारत निर्णय’ में लिखा है—
वेदाश्चाप्युत्तमस्त्रीभि: कृष्णाद्याभिरिवाखिला:।
अर्थात्- उत्तम स्त्रियों को कृष्णा (द्रौपदी) की तरह वेद पढऩे चाहिए।
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे वयुनां धारिणीं स्वधा।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ, ज्ञान- विज्ञान —भागवत ४। १। ६४

स्वधा की दो पुत्रियाँ हुईं, जिनके नाम वयुना और धारिणी थे। ये दोनों ही ज्ञान और विज्ञान में पूर्ण पारंगत तथा ब्रह्मवादिनी थीं।
विष्णु पुराण १। १० और १८। १९ तथा मार्कण्डेय पुराण अ० ५२ में इसी प्रकार (ब्रह्मवादिनी, वेद और ब्रह्म का उपदेश करने वाली) महिलाओं का वर्णन है।
सततं मूर्तिमन्तश्च वेदाश्चत्वार एव च।
सन्ति यस्याश्च जिह्वग्रे सा च वेदवती स्मृता॥ —ब्रह्म वै० प्रकृति खण्ड २/१४/६४

उसे चारों वेद कण्ठाग्र थे, इसलिए उसे वेदवती कहा जाता था। इस प्रकार की नैष्ठिक ब्रह्मचारिणि ब्रह्मवादिनी नारियाँ अगणित थीं। इनके अतिरिक्त गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाली कन्याएँ दीर्घकाल तक ब्रह्मचारिणि रहकर वेद- शात्रों का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त विवाह करती थीं। तभी उनकी सन्तान संसार में उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह यशस्वी, पुरुषार्थी और कीर्तिमान होती थी। धर्मग्रन्थ का स्पष्ट आदेश है कि कन्या ब्रह्मचारिणि रहने के उपरान्त विवाह करे।
ब्रह्मचर्येण कन्या ३ युवानं विन्दते पतिम्। —अथर्व० ११/७/१८

अर्थात् कन्या ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करती हुई उसके द्वारा उपयुक्त पति को प्राप्त होती है।
ब्रह्मचर्य केवल अविवाहित रहने को ही नहीं कहते। ब्रह्मचारी वह है जो संयमपूर्वक वेद की प्राप्ति में निरत रहता है। देखिए—
स्वीकरोक्ति यदा वेद चरेद् वेदव्रतानि च।
ब्रह्मचारी भवेत्तावद् ऊध्र्वं स्नातो भवेत् गृही॥ —दक्षस्मृति १। ७

अर्थात् जब वेद को अर्थ सहित पढ़ता है और उसके लिए व्रतों को ग्रहण करता है, तब ब्रह्मचारी कहलाता है। उसके पश्चात् विद्वान् बनकर गृहस्थ में प्रवेश करता है।

अथर्ववेद में ११। ७। १७ की व्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने लिखा है—
‘ब्रह्मचर्येण- ब्रह्म वेद: तदध्ययनार्थमाचर्यम्।’
अर्थात्- ‘ब्रह्म’ का अर्थ है वेद। उस वेद के अध्ययन के लिये जो प्रयत्न किये जाते हैं, वही ब्रह्मचर्य है।
इसी सूक्त के प्रथम मन्त्र की व्याख्या में सायणाचार्य ने लिखा है—
ब्रह्मणि वेदात्मके अध्येतव्ये वा चरितुं शीलमस्य स तथोक्त:।
अर्थात् ब्रह्मचारी वह है जो वेद के अध्ययन में विशेष रूप से संलग्न है।
महर्षि गाग्र्यायणाचार्य ने प्रणववाद में कहा है—
ब्रह्मचारिणां च ब्रह्मचारिणीभि: सह विवाह: प्रशस्यो भवति।
अर्थात् ब्रह्मचारियों का विवाह ब्रह्मचारिणियों से ही होना उचित है, क्योंकि ज्ञान और विद्या आदि की दृष्टि से दोनों के समान रहने पर ही सुखी और सन्तुष्ट रह सकते हैं। महाभारत में भी इस बात की पुष्टि की गयी है।
ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्।
तयोर्मैत्री विवाहश्च न तु पुष्ट विपुष्टयो:॥ —महाभारत आदिपर्व १। १३१। १०

जिनका वित्त एवं ज्ञान समान है, उनसे मित्रता और विवाह उचित है, न्यूनाधिक में नहीं।
ऋग्वेद १। १। ५ का भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है—
या: कन्या यावच्चतुर्विंशतिवर्षमायुस्तावद् ब्रह्मचर्येण जितेन्द्रिया: तथा सांगोपांगवेदविद्या अधीयते ता: मनुष्य- जाति भवन्ति।
अर्थात्- जो कन्याएँ २४ वर्ष तक ब्रह्मचर्यपूर्वक साङ्गपाङ्ग वेद विद्याओं को पढ़ती हैं, वे मनुष्य जाति को शोभित करती हैं।
ऋग्वेद ५। ६२। ११ के भाष्य में महर्षि ने लिखा है—

ब्रह्मचारिणि प्रसिद्ध- कीर्तिं सत्पुरुषं सुशीलं शुभ- गुण प्रीतिमन्तं पतिं ग्रहीतुमिच्छेत् तथैव ब्रह्मचार्यपि स्वसदृशीमेव ब्रह्मचारिणीं स्त्रियं गृह्णीयात्।
अर्थात्- ब्रह्मचारिणि स्त्री कीर्तिवान्, सुशील, सत्पुरुष, गुणवान्, रूपवान, प्रेमी स्वभाव के पति की इच्छा करे, वैसे ही ब्रह्मचारी भी अपने समान ब्रह्मचारिणि (वेद और ईश्वर की ज्ञाता) स्त्री को ग्रहण करे।

जब विद्याध्ययन करने के लिये कन्याओं को पुरुषों की भाँति सुविधा थी, तभी इस देश की नारियाँ गार्गी और मैत्रेयी की तरह विदुषी होती थीं। याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि को एक नारी ने शास्त्रार्थ में विचलित कर दिया था और उन्होंने हैरान होकर उसे धमकी देते हुए कहा था- ‘अधिक प्रश्र मत करो, अन्यथा तुम्हारा अकल्याण होगा।’

इसी प्रकार शंकराचार्य जी को भारती देवी के साथ शास्त्रार्थ करना पड़ा था। उस भारती देवी नामक महिला ने शंकराचार्य जी से ऐसा अद्भुत शास्त्रार्थ किया था कि बड़े- बड़े विद्वान् भी अचम्भित रह गये थे। उनके प्रश्रों का उत्तर देने के लिये शंकराचार्य को निरुत्तर होकर एक मास की मोहलत माँगनी पड़ी थी। शंकर दिग्विजय में भारती देवी के सम्बन्ध में लिखा है—

सर्वाणि शास्त्राणि षडंग वेदान्, काव्यादिकान् वेत्ति, परञ्च सर्वम्।
तन्नास्ति नोवेत्ति यदत्र बाला, तस्मादभूच्चित्र- पदं जनानाम्॥ —शंकर दिग्विजय ३। १६
भारती देवी सर्वशास्त्र तथा अंगों सहित सभी वेदों और काव्यों को जानती थी। उससे बढक़र श्रेष्ठ और कोई विदुषी स्त्री न थी।
आज जिस प्रकार स्त्रियों के शास्त्राध्ययन पर रोक लगाई जाती है, यदि उस समय ऐसे ही प्रतिबन्ध रहे होते, तो याज्ञवल्क्य और शंकराचार्य से टक्कर लेने वाली स्त्रियाँ किस प्रकार हो सकती थीं? प्राचीनकाल में अध्ययन की सभी नर- नारियों को समान सुविधा थी।
स्त्रियों के द्वारा यज्ञ का ब्रह्मा बनने तथा उपाध्याय एवं आचार्य होने के प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में नारी को सम्बोधन करके कहा गया है कि तू उत्तम आचरण द्वारा ब्रह्मा का पद प्राप्त कर सकती है।

अध: पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर।
मा ते कशप्लकौ दृशन् स्त्री ह ब्रह्मा बभूविथ॥ —ऋग्वेद ८। ३३। १९
अर्थात् हे नारी! तुम नीचे देखकर चलो। व्यर्थ में इधर उधर की वस्तुओं को मत देखती रहो। अपने पैरों को सावधानी तथा सभ्यता से रखो। वस्त्र इस प्रकार पहनो कि लज्जा के अंग ढके रहें। इस प्रकार उचित आचरण करती हुई तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने के योग्य बन सकती हो।
अब यह देखना है कि ब्रह्मा का पद कितना उच्च है और उसे किस योग्यता का मनुष्य प्राप्त कर सकता है।

ब्रह्म वाऽऋत्विजाम्भिषक्तम:। —शतपथ ब्रा० १। ७। ४। १९
अर्थात् ब्रह्मा ऋत्विजों की त्रुटियों को दूर करने वाला होने से सब पुरोहितों से ऊँचा है।
तस्माद्यो ब्रह्मिष्ठ:स्यात् तं ब्रह्माणं कुर्वीत। —गोपथ ब्रा० उत्तरार्ध १। ३
अर्थात् जो सबसे अधिक ब्रह्मनिष्ठ (परमेश्वर और ब्रह्म का ज्ञाता) हो, उसे ब्रह्मा बनाना चाहिए।
अथ केन ब्रह्माणं क्रियत इति त्रय्या विद्ययेति ब्रूयात्। —ऐतरेय ब्रा० ५। ३३
ज्ञान, कर्म, उपासना तीनों विद्याओं के प्रतिपादक वेदों के पूर्ण ज्ञान से ही मनुष्य ब्रह्मा बन सकता है।
अथ केन ब्रह्मत्वं इत्यनया, त्रय्या विद्ययेति ह ब्रूयात्। —शतपथ ब्रा० ११। ५। ८। ७

वेदों के पूर्ण ज्ञान (त्रिविध विद्या) से ही मनुष्य ब्रह्मा पद के योग्य बनता है।
व्याकरण शास्त्र के कतिपय स्थलों पर ऐसे उल्लेख हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि वेद का अध्ययन- अध्यापन भी स्त्रियों का कार्यक्षेत्र रहा है। देखिए—
‘इडश्च’ ३। ३। २१ के महाभाष्य में लिखा है—
‘उपेत्याधीयतेऽस्या उपाध्यायी उपाध्याया’
अर्थात् जिनके पास आकर कन्याएँ वेद के एक भाग तथा वेदांगों का अध्ययन करें, वह उपाध्यायी या उपाध्याया कहलाती है।
मनु ने भी उपाध्याय के लक्षण यही बताए हैं—
एकदेशं तु वेदस्य वेदांगान्यपि वा पुन:।
योऽध्यापयति वृत्त्यर्थम् उपाध्याय: स उच्यते॥ —मनु० २। १४१
जो वेद के एक देश या वेदांगों को पढ़ाता है, वह उपाध्याय कहा जाता है।
आचार्यादणत्वं। —अष्टाध्यायी ४। १। ४९
इस सूत्र पर सिद्धान्त कौमुदी में कहा गया है—
आचार्यस्य स्त्री आचार्यानी पुंयोग इत्येवं आचार्या स्वयं व्याख्यात्री।
अर्थात् जो स्त्री वेदों का प्रवचन करने वाली हो, उसे आचार्या कहते हैं।
आचार्या के लक्षण मनुजी ने इस प्रकार बतलाए हैं—
उपनीयं तु य: शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विज:।
सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥ —मनु २। १४०
जो शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करके कल्प सहित, रहस्य सहित वेद पढ़ाता है, उसे आचार्य कहते हैं।
स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं० शिवदत्त शर्मा ने सिद्धान्त कौमुदी का सम्पादन करते हुए इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखा है—
‘‘इति वचनेनापि स्त्रीणां वेदाध्ययनाधिकारो ध्वनित:।’’
अर्थात्- इससे स्त्रियों को वेद पढऩे का अधिकार सूचित होता है।
उपर्युक्त प्रमाणों को देखते हुए पाठक यह विचार करें कि ‘स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं’ कहना कहाँ तक उचित है?

क्या स्त्रियों को वेद का अधिकार नहीं ?

गायत्री मन्त्र का स्त्रियों को अधिकार है या नहीं? यह कोई स्वतन्त्र प्रश्र नहीं है। अलग से कहीं ऐसा विधि- निषेध नहीं कि स्त्रियाँ गायत्री जपें या न जपें। यह प्रश्न इसलिये उठता है- यह कहा जाता है कि स्त्रियों को वेद का अधिकार नही है। चुकी गायत्री भी वेद मन्त्र है, इसलिये अन्य मन्त्रों की भाँति उसके उच्चारण का भी अधिकार नहीं होना चाहिये।

स्त्रियों को वेदाधिकारी न होने का निषेध वेदों में नहीं है। वेदों में तो ऐसे कितने ही मन्त्र हैं, जो स्त्रियों द्वारा उच्चारण होते हैं। उन मन्त्रों में स्त्री- लिङ्गं की क्रियाएँ हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि स्त्रियों द्वारा ही प्रयोग होने के लिये हैं। देखिये—

उदसौ सूर्यो अगाद् उदयं मामको भग:।
अहं तद्विद् वला पतिमभ्यसाक्षि विषासहि:।
अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी,
ममेदनु क्रतुं पति: सेहानाया उपाचरेत्॥
मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो मे दुहिता विराट्
उताहमस्मि संजया पत्यौ मे श्लोक उत्तम:॥ —ऋग्वेद १०। १५९ ।। १- ३
अर्थात्- सूर्योदय के साथ मेरा सौभाग्य बढ़े। मैं पतिदेव को प्राप्त करूँ। विरोधियों को पराजित करने वाली और सहनशील बनूँ। मैं वेद से तेजस्विनी प्रभावशाली वक्ता बनूँ। पतिदेव मेरी इच्छा, ज्ञान व कर्म के अनुकूल कार्य करें। मेरे पुत्र भीतरी व बाहरी शत्रुओं को नष्ट करें। मेरी पुत्री अपने सद्गुणों के कारण प्रकाशवती हो। मैं अपने कार्यों से पतिदेव के उज्ज्वल यश को बढ़ाऊँ।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत:॥ —यजुर्वेद ३। ६०
अर्थात्- हम कुमारियाँ उत्तम पतियों को प्राप्त कराने वाले परमात्मा का स्मरण करती हुई यज्ञ करती हैं, जो हमें इस पितृकुल से छुड़ा दे, किन्तु पति कुल से कभी वियोग न कराये।

आशासाना सौमनसं प्रजां सौभाग्यं रयिम्।
पत्युरनुव्रता भूत्वा सन्नह्यस्वामृतायकम्॥ —अथर्व० १४। १। ४२
वधू कहती है कि मैं यज्ञादि शुभ अनुष्ठानों के लिए शुभ वस्त्र पहनती हूँ। सौभाग्य, आनन्द, धन तथा सन्तान की कामना करती हुई मैं सदा प्रसन्न रहूँगी।
वेदोऽसि वित्तिरसि वेदसे त्वा वेदो मे विन्द विदेय।
घृतवन्तं कुलायिनं रायस्पोषँ सहस्रिणम् ।।
वेदो वाजं ददातु मे वेदो वीरं ददातु मे। —काठक संहिता ५/४/२३- २४
अर्थात्- आप वेद हैं, सब श्रेष्ठ गुणों और ऐश्वर्यों को प्राप्त कराने वाले ज्ञान- लाभ के लिये आपको भली प्रकार प्राप्त करूँ। वेद मुझे तेजस्वी, कुल को उत्तम बनाने वाला, ऐश्वर्य को बढ़ाने वाला ज्ञान दें। वेद मुझे वीर, श्रेष्ठ सन्तान दें।
विवाह के समय वर- वधू दोनों सम्मिलित रूप से मन्त्र उच्चारण करते हैं—
समञ्जन्तु विश्वे देवा: समापो हृदयानि नौ।
सं मातरिश्वा सं धाता समुदेष्टरी दधातु नौ॥ —ऋग्वेद १०। ८५। ४७
अर्थात् सब विद्वान् लोग यह जान लें कि हम दोनों के हृदय जल की तरह परस्पर प्रेमपूर्वक मिले रहेंगे। विश्वनियन्ता परमात्मा तथा विदुषी देवियाँ हम दोनों के प्रेम को स्थिर बनाने में सहायता करें।

स्त्री के मुख से वेदमन्त्रों के उच्चारण के लिए असंख्यों प्रमाण भरे पड़े हैं। शतपथ ब्राह्मण १४। १। ४। १६ में, यजुर्वेद के ३७। २० मन्त्र ‘त्वष्टमन्तस्त्वा सपेम’ इस मन्त्र को पत्नी द्वारा उच्चारण करने का विधान है। शतपथ के १। ९। २। २३ में स्त्रियों द्वारा यजुर्वेद के २। २१ मन्त्रों के उच्चारण का आदेश है। तैत्तिरीय संहिता के १। १। १० ‘सुप्रजसस्त्वा वयं’ आदि मन्ज्ञत्रों को स्त्र द्वारा बुलवाने का आदेश है। आश्वलायन गृह्य सूत्र १। १। ९ के ‘पाणिग्रहणादि गृह्य....’ में भी इसी प्रकार यजमान की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी, पुत्र अथवा कन्या को यज्ञ करने का आदेश है। काठक गृह्य सूत्र ३। १। ३० एवं २७। ३ में स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन, मन्त्रोच्चारण एवं वैदिक कर्मकाण्ड करने का प्रतिपादन है। लौगाक्षी गृह्म सूत्र की २५वीं कण्डिका में भी ऐसे प्रमाण मौजूद हैं।
पारस्कर गृह्म सूत्र १। ५। १,२ के अनुसार विवाह के समय कन्या लाजाहोम के मन्त्रों को स्वयं पढ़ती हैं। सूर्य दर्शन के समय भी वह यजुर्वेद के ३६। २४ मन्त्र ‘तच्चक्षुर्देवहितं’ को स्वयं ही उच्चारण करती है। विवाह के समय ‘समञ्जन’ करते समय वर- वधू दोनों साथ- साथ ‘अथैनौ समञ्जयत: .....’ इस ऋग्वेद १०। ८५। ४७ के मन्त्र को पढ़ते हैं।

ताण्ड्य ब्राह्मण ५। ६। ८ में युद्ध में स्त्रियों को वीणा लेकर सामवेद के मन्त्रों का गान करने का आदेश है तथा ५। ६। १५ में स्त्रियों के कलश उठाकर वेद- मन्त्रों का गान करते हुए परिक्रमा करने का विधान है।
ऐतरेय ५। ५। २९ में कुमारी गन्धर्व गृहीता का उपाख्यान है, जिसमें कन्या के यज्ञ एवं वेदाधिकार का स्पष्टीकरण हुआ है।
कात्यायन श्रौत सूत्र १। १। ७, ४। १। २२ तथा २०। ६। १२ आदि में ऐसे स्पष्ट आदेश हैं कि अमुक वेद- मन्त्रों का उच्चारण स्त्री करे। लाट्यायन श्रौत सूत्र में पत्नी द्वारा सस्वर सामवेद के मन्त्रों के गायन का विधान है। शांखायन श्रौत सूत्र के १। १२। १३ में तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र १। ११। १ में इसी प्रकार के वेद- मन्त्रोच्चारण के आदेश हैं। मन्त्र ब्राह्मण के १। २। ३ में कन्या द्वारा वेद- मन्त्र के उच्चारण की आज्ञा है। नीचे कुछ मन्त्रों में वधू को वेदपरायण होने के लिये कितना अच्छा आदेश दिया है—

ब्रह्मपरं युज्यतां ब्रह्म पूर्वं ब्रह्मन्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वत:।
अनाव्याधां देव पुरां प्रपद्य शिवा स्योना पतिलोके विराज॥ —अथर्व० १४। १। ६४
हे वधू ! तुम्हारे आगे, पीछे, मध्य तथा अन्त में सर्वत्र वेद विषयक ज्ञान रहे। वेद ज्ञान को प्राप्त करके तदनुसार तुम अपना जीवन बनाओ। मंगलमयी, सुखदायिनी एवं स्वस्थ होकर पति के घर में विराजमान और अपने सद्गुणों से प्रकाशवान् हो।
कुलायिनी घृतवती पुरन्धि: स्योने सीद सदने पृथिव्या:। अभित्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा। ब्रह्म पीपिहि सौभगायाश्विनाध्वर्यू सादयतामिहत्वा। —यजुर्वेद १४। २
हे स्त्री! तुम कुलवती घृत आदि पौष्टिक पदार्थों का उचित उपयोग करने वाली, तेजस्विनी, बुद्धिमती, सत्कर्म करने वाली होकर सुखपूर्वक रहो। तुम ऐसी गुणवती और विदुषी बनो कि रुद्र और वसु भी तुम्हारी प्रशंसा करें। सौभाग्य की प्राप्ति के लिये इन वेदमन्त्रों के अमृत का बार- बार भली प्रकार पान करो। विद्वान् तुम्हें शिक्षा देकर इस प्रकार की उच्च स्थिति पर प्रतिष्ठित कराएँ।

यह सर्वविदित है कि यज्ञ, बिना वेदमन्त्रों के नहीं होता और यज्ञ में पति- पत्नी दोनों का सम्मिलित रहना आवश्यक है। रामचन्द्र जी ने सीता जी की अनुपस्थिति में सोने की प्रतिमा रखकर यज्ञ किया था। ब्रह्माजी को भी सावित्री की अनुपस्थिति में द्वितीय पत्नी का वरण करना पड़ा था, क्योंकि यज्ञ की पूर्ति के लिये पत्नी की उपस्थिति आवश्यक है। जब स्त्री यज्ञ करती है, तो उसे वेदाधिकार न होने की बात किस प्रकार कही जा सकती है? देखिये—
अ यज्ञो वा एष योऽपत्नीक:। —तैत्तिरीय सं० २। २। २। ६
अर्थात् बिना पत्नी के यज्ञ नहीं होता है।

अथो अर्धो वा एष आत्मन: यत् पत्नी।
—तैत्तिरीय सं० ३। ३। ३। ५
अर्थात्- पत्नी पति की अर्धांगिनी है, अत: उसके बिना यज्ञ अपूर्ण है।

या दम्पती समनसा सुनुत आ च धावत:।
दिवासो नित्ययोऽऽशिरा। —ऋग्वेद ८। ३१। ५
हे विद्वानो! जो पति- पत्नी एकमन होकर यज्ञ करते हैं और ईश्वर की उपासना करते हैं..।
वि त्वा ततस्रे मिथुना अवस्यवो......
गव्यन्ता द्वाजना स्व१र्यन्ता समूहसि। ..... —ऋग्वेद १। १३१। ३
हे परमात्मन् आपके निमित्त यजमान, पत्नी समेत यज्ञ करते हैं। आप उन लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति कराते हैं, अतएव वे मिलकर यज्ञ करते हैं।
अग्रिहोत्रस्य शुश्रूषा सन्ध्योपासनमेव च।
कार्यं पत्न्या प्रतिदिनं बलिकर्म च नैत्यिकम्॥ —स्मृति रत्न
पत्नी प्रतिदिन अग्रिहोत्र, सन्ध्योपासना, बलिवैश्व आदि नित्यकर्म करे। यदि पुरुष न हो तो अकेली स्त्री को भी यज्ञ का अधिकार है। देखिए—
होमे कर्तार: स्वयंत्वस्यासम्भवे पत्न्यादय:। —— गदाधराचार्य
होम करने में पहले स्वयं यजमान का स्थान है। वह न हो तो पत्नी, पुत्र आदि करें।
पत्नी कुमार: पुत्री च शिष्यो वाऽपि यथाक्रमम्।
पूर्वपूर्वस्य चाभावे विदध्यादुत्तरोत्तर:॥ —प्रयोग रत्न स्मृति
यजमान: प्रधान:स्यात् पत्नी पुत्रश्च कन्यका।
ऋत्विक् शिष्यो गुरुभ्र्राता भागिनेय: सुतापति:॥ —स्मृत्यर्थसार
उपर्युक्त दोनों श्लोकों का भावार्थ यह है कि यजमान हवन के समय किसी कारण से उपस्थित न हो सके तो उसकी पत्नी, पुत्र, कन्या, शिष्य, गुरु, भाई आदि कर लें।

आहुरप्युत्तमस्त्रीणाम् अधिकारं तु वैदिके।
यथोर्वशी यमी चैव शच्याद्याश्च तथाऽपरा:। —— व्योम संहिता
श्रेष्ठ स्त्रियों को वेद का अध्ययन तथा वैदिक कर्मकाण्ड करने का वैसे ही अधिकार है जैसे कि उर्वशी, यमी, शची आदि ऋषिकाओं को प्राप्त था।
अग्रिहोत्रस्य शुश्रूषा सन्ध्योपासनमेव च। —स्मृतिरत्न (कुल्लूक भट्ट)
इस श्लोक में यज्ञोपवीत एवं सन्ध्योपासना का प्रत्यक्ष विधान है।
या स्त्री भत्र्रा वियुक्तापि स्वाचारै: संयुता शुभा।
सा च मन्त्रान् प्रगृह्णातु सभत्र्री तदनुज्ञया॥
—भविष्य पुराण उत्तर पर्व ४। १३। ६३
उत्तम आचरण वाली विधवा स्त्री वेद- मन्त्रों को ग्रहण करे और सधवा स्त्री अपने पति की अनुमति से मन्त्रों को ग्रहण करे।
यथाधिकार: श्रौतेषु योषितां कर्मसु श्रुत:।
एवमेवानुमन्यस्व ब्रह्मणि ब्रह्मवादिनाम्॥ यमस्मृति
जिस प्रकार स्त्रियों को वेद के कर्मों में अधिकार है, वैसे ही ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का भी अधिकार है।
कात्यायनी च मैत्रेयी गार्गी वाचक्रवी तथा।
एवमाद्या विदुब्र्रह्म तस्मात् स्त्री ब्रह्मविद् भवेत् ॥
—अस्य वामीय भाष्यम्
जैसे कात्यायनी, मैत्रेयी, वाचक्रवी, गार्गी आदि ब्रह्म (वेद और ईश्वर) को जानने वाली थीं, वैसे ही सब स्त्रियों को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
वाल्मीकि रामायण में कौशल्या, कैकेयी, सीता, तारा आदि नारियों द्वारा वेदमन्त्रों का उच्चारण, अग्निहोत्र, सन्ध्योपासन का वर्णन आता है।
सन्ध्याकालमना: श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी॥
—वा० रा० ५। १४ ।। ४९
सायंकाल के समय सीता उत्तम जल वाली नदी के तट पर सन्ध्या करने अवश्य आयेगी।
वैदेही शोकसन्तप्ता हुताशनमुपागमत्।
—वाल्मीकि० सुन्दर ५३। २६
अर्थात्- तब शोक सन्तप्त सीताजी ने हवन किया।
‘तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ह।’
—वा० रा० अयो० १४। ६१
वेदमन्त्रों को जानने वाली कैकेयी ने सुमन्त्र से कहा।
सा क्षौमवसना हृष्ट नित्यं व्रतपरायणा।
अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत् कृतमंगला॥ —वा० रा० २। २०। १५
वह रेशमी वस्त्र धारण करने वाली, व्रतपरायण, प्रसन्नमुखी, मंगलकारिणी कौशल्या मन्त्रपूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी।
तत: स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्त:पुरं सहस्त्रीभि: प्रविष्टि शोकमोहिता॥ —वा० रा० ४। १६। १२
तब मन्त्रों को जानने वाली तारा ने अपने पति बाली की विजय के लिये स्वस्तिवाचन के मन्त्रों का पाठ करके अन्त:पुर में प्रवेश किया।
गायत्री मन्त्र के अधिकार के सम्बन्ध में तो ऋषियों ने और भी स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है। नीचे के दो स्मृति प्रमाण देखिये, जिनमें स्त्रियों को गायत्री की उपासना का विधान किया गया है।

पुरा कल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते।
अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा॥ —यम
प्राचीन समय में स्त्रियों को मौञ्जी बन्धन, वेदों का पढ़ाना तथा गायत्री का उपदेश इष्ट था।
मनसा भर्तुरतिचारे त्रिरात्रं यावकं क्षीरौदनं वा भुञ्जानाऽध: शयीत, ऊध्र्वं त्रिरात्रादप्सु निमग्नाया: सावित्र्यष्टशतेन शिरोभिर्जुहुयात् पूता भवतीति विज्ञायते। —वसिष्ठ स्मृति २१। ७

यदि स्त्री के मन में पति के प्रति दुर्भाव आये, तो उस पाप का प्रायश्चित्त करने के साथ १०८ मन्त्र गायत्री जपने से वह पवित्र होती है।
इतने पर भी यदि कोई यह कहे कि स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं, तो दुराग्रह या कुसंस्कार ही कहना चाहिये।
गायत्री उपासना का अर्थ है ईश्वर को माता मानकर उसकी गोदी में चढऩा। संसार में जितने सम्बन्ध हैं, रिश्ते हैं, उन सबमें माता का रिश्ता अधिक प्रेमपूर्ण, अधिक घनिष्ठ है। प्रभु को जिस दृष्टि से हम देखते हैं, हमारी भावना के अनुरूप वे वैसा ही प्रत्युत्तर देते हैं। जब ईश्वर की गोदी में जीव, मातृ भावना के साथ चढ़ता है, तो निश्चय ही उधर से वात्सल्यपूर्ण उत्तर मिलता है।

स्नेह, वात्सल्य, करुणा, दया, ममता, उदारता, कोमलता आदि तत्त्व नारी में नर की अपेक्षा स्वभावतः अधिक होते हैं। ब्रह्म का अर्ध वामांग, ब्राह्म तत्त्व अधिक कोमल, आकर्षक एवं शीघ्र द्रवीभूत होने वाला है। इसीलिए अनादिकाल से ऋषि लोग ईश्वर की मातृ भावना के साथ उपासना करते रहे हैं और उन्होंने प्रत्येक भारतीय धर्मावलम्बी को इसी सुखसाध्य, सरल एवं शीघ्र सफल होने वाली साधना प्रणाली को अपनाने का आदेश दिया है। गायत्री उपासना प्रत्येक भारतीय का धार्मिक नित्यकर्म है। सन्ध्यावन्दन किसी भी पद्धति से किया जाए, उसमें गायत्री का होना आवश्यक है। विशेष लौकिक या पारलौकिक प्रयोजन के लिए विशेष रूप से गायत्री की उपासना की जाती है, पर उतना न हो सके, तो नित्यकर्म की साधना तो दैनिक कर्त्तव्य है, उसे न करने से धार्मिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने का दोष लगता है।

कन्या और पुत्र दोनों ही माता की प्राणप्रिय सन्तान हैं। ईश्वर को नर और नारी दोनों दुलारे हैं। कोई भी निष्पक्ष और न्यायशील माता- पिता अपने बालकों में इसलिए भेदभाव नहीं करते कि वे कन्या हैं या पुत्र हैं। ईश्वर ने धार्मिक कर्त्तव्यों एवं आत्मकल्याण के साधनों की नर और नारी दोनों को ही सुविधा दी है। यह समता, न्याय और निष्पक्षता की दृष्टि से उचित है, तर्क और प्रमाणों से सिद्ध है। इस सीधे- सादे तथ्य में कोई विघ्न डालना असंगत ही होगा।
मनुष्य की समझ बड़ी विचित्र है। उसमें कभी- कभी ऐसी बातें भी घुस जाती हैं, जो सर्वथा अनुचित एवं अनावश्यक होती हैं। प्राचीन काल में नारी जाति का समुचित सम्मान रहा, पर एक समय ऐसा भी आया जब स्त्री जाति को सामूहिक रूप से हेय, पतित, त्याज्य, पातकी, अनधिकारी व घृणित ठहराया। उस विचारधारा ने नारी के मनुष्योचित अधिकारों पर आक्रमण किया और पुरुष की श्रेष्ठता एवं सुविधा को पोषण देने के लिए उस पर अनेक प्रतिबन्ध लगाकर शक्तिहीन, साहसहीन, विद्याहीन बनाकर उसे इतना लुंज- पुञ्ज कर दिया कि बेचारी को समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकना तो दूर, आत्मरक्षा के लिए भी दूसरों का मोहताज होना पड़ा। आज भारतीय नारी पालतू पशु- पक्षियों जैसी स्थिति में पहुँच गयी है। इसका कारण वह उलटी समझ ही है, जो मध्यकाल के सामन्तशाही अहंकार के साथ उत्पन्न हुई थी। प्राचीन काल में भारतीय नारी सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समकक्ष थी। रथ के दोनों पहिये ठीक होने से समाज की गाड़ी उत्तमता से चल रही थी; पर अब एक पहिया क्षत- विक्षत हो जाने से दूसरा पहिया भी लडख़ड़ा गया। अयोग्य नारी समाज का भार नर को ढोना पड़ रहा है। इस अव्यवस्था ने हमारे देश और जाति को कितनी क्षति पहुँचाई है, उसकी कल्पना करना भी कष्टसाध्य है।

मध्यकालीन अन्धकार युग की कितनी ही बुराइयों को सुधारने के लिए विवेकशील और दूरदर्शी महापुरुष प्रयत्नशील हैं, यह प्रसन्नता की बात है। विज्ञ पुरुष अनुभव करने लगे हैं कि मध्यकालीन संकीर्णता की लौहशृंखला से नारी को न खोला गया, तो हमारा राष्ट्र प्राचीन गौरव को प्राप्त नहीं कर सकता। पूर्वकाल में नारी जिस स्वस्थ स्थिति में थी, उस स्थिति में पुन: पहुँचने से हमारा आधा अंग विकसित हो सकेगा और तभी हमारा सर्वांगीण विकास हो सकेगा। इन शुभ प्रयत्नों में मध्यकालीन कुसंस्कारों की रूढ़ियों का अन्धानुकरण करने को ही धर्म समझ बैठने वाली विचारधारा अब भी रोड़े अटकाने से नहीं चूकती।

ईश्वर- भक्ति, गायत्री की उपासना तक के बारे में यह कहा जाता है कि स्त्रियों को अधिकार नहीं। इसके लिए कई पुस्तकों के श्लोक भी प्रस्तुत किए जाते हैं, जिनमें यह कहा है कि स्त्रियाँ वेद- मन्त्रों को न पढ़ें, न सुनें, क्योंकि गायत्री भी वेद मन्त्र है, इसलिए स्त्रियाँ उसे न अपनाएँ। इन प्रमाणों से हमें कोई विरोध नहीं, क्योंकि एक काल भारतवर्ष में ऐसा बीता है, जब नारी को निकृष्ट कोटि के जीव की तरह समझा गया है। यूरोप में तो उस समय यह मान्यता थी कि घास- पात की तरह स्त्रियों में भी आत्मा नहीं होती। यहाँ भी उनसे मिलती- जुलती ही मान्यता ली गई थी। कहा जाता था कि—
निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थिति:। —मनु० ९/१८

अर्थात्- स्त्रियाँ निरिन्द्रिय (इन्द्रिय रहित), मन्त्ररहिता, असत्य स्वरूपिणी हैं।
स्त्री को ढोल, गँवार, शूद्र और पशु की तरह पिटने योग्य ठहराने वाले विचारकों का कथन था कि—
पौंश्चल्याच्चलचित्ताच्च नैस्नेह्यच्च स्वभावत:।
रक्षिता यत्नतोऽपीह भत्र्तृष्वेता विकुर्वते॥ —मनु० ९/१५

अर्थात्- स्त्रियाँ स्वभावतया ही व्यभिचारिणी, चंचल चित्त और प्रेम शून्य होती हैं। उनकी बड़ी होशियारी के साथ देखभाल रखनी चाहिए।
विश्वासपात्रं न किमस्ति नारी।
द्वारं किमेकं नरकस्य नारी।
विद्वान्महाविज्ञतमोऽस्ति को वा।
नार्या पिशाच्या न च वंचितो य:॥ —शंकराचार्य प्रश्रोत्तरी से
प्रश्न- विश्वास करने योग्य कौन नहीं है? उत्तर- नारी।
प्रश्र- नरक का एक मात्र द्वार क्या है? उत्तर- नारी।
प्रश्र- बुद्धिमान् कौन है? उत्तर- जो नारी रूपी पिशाचिनी से नहीं ठगा गया।

जब स्त्रियों के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता फैली हुई हो तो उन पर वेद- शास्त्रों से, धर्म- कर्त्तव्यों से, ज्ञान- उपार्जन से वंचित रहने का प्रतिबन्ध लगाया गया हो, तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। इस प्रकार के प्रतिबन्ध सूचक अनेक श्लोक उपलब्ध भी होते हैं।
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा। —भागवत
अर्थात्- स्त्रियों, शूद्रों और नीच ब्राह्मणों को वेद सुनने का अधिकार नहीं।
अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषत:।
संस्कारार्थं शरीरस्य यथा कालं यथाक्रमम्॥ —मनु० २। ६६
अर्थात्- स्त्रियों के जातकर्मादि सब संस्कार बिना वेदमन्त्रों के करने चाहिए।
नन्वेवं सति स्त्रीशूद्रसहिता: सर्वे वेदाधिकारिण:। —सायण
स्त्री और शूद्रों को वेद का अधिकार नहीं है।
वेदेऽनधिकारात्। —शंकराचार्य
स्त्रियाँ वेद की अधिकारिणी नहीं हैं।

अध्ययन रहितया स्त्रिया तदनुष्ठानमशक्यत्वात् तस्मात् पुंस एवोपस्थानादिकम्।
स्त्री अध्ययन रहित होने के कारण यज्ञ में मन्त्रोच्चार नहीं कर सकती, इसलिये केवल पुरुष मन्त्र पाठ करें।
स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्। अर्थ- स्त्री और शूद्र वेद न पढ़ें।
न वै कन्या न युवति:। अर्थ- न कन्या पढ़े, न स्त्री पढ़े।
इस प्रकार स्त्रियों को धर्म, ज्ञान, ईश्वर उपासना और आत्मकल्याण से रोकने वाले प्रतिबन्धों को कई भोले मनुष्य ‘सनातन’ मान लेते हैं और उनका समर्थन करने लगते हैं। ऐसे लोगों को जानना चाहिये कि प्राचीन साहित्य में इस प्रकार के प्रतिबन्ध कहीं नहीं हैं, वरन् उसमें तो सर्वत्र नारी की महानता का वर्णन है और उसे भी पुरुष जैसे ही धार्मिक अधिकार प्राप्त हैं। यह प्रतिबन्ध तो कुछ काल तक कुछ व्यक्तियों की एक सनक के प्रमाण मात्र हैं। ऐसे लोगों ने धर्मग्रन्थों में जहाँ- तहाँ अनर्गल श्लोक ठूँसकर अपनी सनक को ऋषि प्रणीत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।

भगवान मनु ने नारी जाति की महानता को मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते हुए लिखा है-
प्रजनार्थं महाभागा: पूजार्हा गृहदीप्तय:।
स्त्रिय: श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥ मनु० ९। २६
अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषारतिरुत्तमा।
दाराधीनस्तथा स्वर्ग: पितृणामात्मनश्च ह॥ -मनु० ९। २८
यत्र नाय्र्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:॥ -मनु० ३। ५६
अर्थात्- स्त्रियाँ पूजा के योग्य हैं, महाभाग हैं, घर की दीप्ति हैं; कल्याणकारिणी हैं। धर्म कार्यों की सहायिका हैं। स्त्रियों के अधीन ही स्वर्ग है। जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ उनका तिरस्कार होता है, वहाँ सब क्रियायें निकल हो जाती हैं।
जिन मनु भगवान की श्रद्धा नारी जाति के प्रति इतनी उच्चकोटि की थी, उन्हीं के ग्रन्थ में यत्र- तत्र स्त्रियों की भरपेट निन्दा और उनकी धार्मिक सुविधा का निषेध है। मनु जैसे महापुरुष ऐसी परस्पर विरोधी बात नहीं लिख सकते। निश्चय ही उनके ग्रन्थों में पीछे वाले लोगों ने मिलावट की है। इस मिलावट के प्रमाण भी मिलते हैं। देखिये-

मान्या कापि मनुस्मृतिस्तदुचिता व्याख्यापि मेधातिथे:।
सा लुप्तैव विधेर्वशात्क्वचिदपि प्राप्यं न तत्पुस्तकम्॥
क्षोणीन्द्रो मदन: सहारणसुतो देशान्तरादाहृतै:।
जीर्णोद्धारमचीकरत् तत इतस्तत्पुस्तकैर्लिख्यते॥
-मेधातिथिरचित मनुभाष्य सहित मनुस्मृतेरुपोद्घात:
अर्थात्- प्राचीन काल में कोई प्रामाणिक मनुस्मृति थी और उसकी मेधातिथि ने उचित व्याख्या की थी। दुर्भाग्यवश वह पुस्तक लुप्त हो गयी। तब राजा मदन ने इधर- उधर की पुस्तकों से उसका जीर्णोद्धार कराया।
केवल मनुस्मृति तक यह घोटाला सम्मिलित नहीं है, वरन् अन्य ग्रन्थों में भी ऐसी ही मिलावटें की गयी हैं और अपनी मनमानी को शास्त्र विरुद्ध होते हुए भी ‘‘शास्त्र वचन’’ सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है।
दैत्या: सर्वे विप्रकुलेषु भूत्वा, कृते युगे भारते षट्सहस्र्याम्।
निष्कास्य कांश्चिन्नवनिर्मितानां निवेशनं तत्र कुर्वन्ति नित्यम् ॥
-गरुड़ पुराण उ० खं० ब्रह्म का० १। ६९
राक्षस लोग कलियुग में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर महाभारत के छ: हजार श्लोकों में से अनेक श्लोकों को निकाल देंगे और उनके स्थान पर नये कृत्रिम श्लोक गढक़र प्रक्षेप कर देंगे।’
यही बात माधवाचार्य ने इस प्रकार कही है-
क्वचिद् ग्रन्थान् प्रक्षिपन्तिक्वचिदन्तरितानपि।
कुर्यु: क्वचिच्च व्यत्यासं प्रमादात् क्वचिदन्यथा॥
अनुत्पन्ना: अपि ग्रन्था व्याकुला इति सर्वश:।
स्वार्थी लोग कहीं ग्रन्थों के वचनों को प्रक्षिप्त कर देते हैं, कहीं निकाल देते हैं, कहीं जान- बूझकर, कहीं प्रमाद से उन्हें बदल देते हैं। इस प्रकार प्राचीन ग्रन्थ बड़े अस्त- व्यस्त हो गये हैं।

जिन दिनों यह मिलावट की जा रही थी, उन दिनों भी विचारवान विद्वानों ने इस गड़बड़ी का डटकर विरोध किया था। महर्षि हारीत ने इन स्त्री- द्वेषी ऊल- जलूल उक्तियों का घोर विरोध करते हुए कहा था-
न शूद्रसमा: स्त्रिय:। नहि शूद्र योनौ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्या जायन्ते, तस्माच्छन्दसा स्त्रिय: संस्कार्या:॥ -हारीत
स्त्रियाँ शूद्रों के समान नहीं हो सकतीं। शूद्र- योनि से भला ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है? इसलिए स्त्रियों को वेद द्वारा संस्कृत (संस्कारित) करना चाहिये।
नर और नारी एक ही रथ के दो पहिये हैं, एक ही शरीर की दो भुजायें हैं, एक ही मुख के दो नेत्र हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। दोनों अर्ध अगों के मिलन से एक पूर्ण अंग बनता है। मानव प्राणी के अविच्छिन्न दो भागों में इस प्रकार की असमानता, द्विधा, नीच- ऊँच की भावना पैदा करना भारतीय परम्परा के सर्वथा विपरीत है। भारतीय धर्म में सदा नर- नारी को एक और अविच्छिन्न अंग माना है-

यथैवात्मा तथा पुत्र: पुत्रेण दुहिता समा। -मनु० ९। १३०
आत्मा के समान ही सन्तान है। जैसा पुत्र वैसी ही कन्या, दोनों समान हैं।
एतावानेव पुरुषो यज्जायात्मा प्रजेति ह।
विप्रा: प्राहुस्तथा चैतद्यो भत्र्ता सा स्मृतांगना॥ -मनु० ९। ४५
पुरुष अकेला नहीं होता, किन्तु स्वयं पत्नी और सन्तान मिलकर पुरुष बनता है।
अथो अद्र्धो वा एष आत्मन: यत् पत्नी।
अर्थात् पत्नी पुरुष का आधा अंग है।

ऐसी दशा में यह उचित नहीं कि नारी को प्रभु की वाणी वेदज्ञान से वंचित रखा जाए। अन्य मन्त्रों की तरह गायत्री का भी उसे पूरा अधिकार है। ईश्वर की हम नारी के रूप में, गायत्री के रूप में उपासना करें और फिर नारी जाति को ही घृणित, पतित, अश्पृस्या, अनधिकारिणी ठहराएँ, यह कहाँ तक उचित है, इस पर हमें स्वयं ही विचार करना चाहिये।

स्त्रियों को वेदाधिकार से वंचित रखने तथा उन्हें उसकी अनधिकारिणी मानने से उसके सम्बन्ध में स्वभावत: एक प्रकार की हीन भावना पैदा हो जाती है, जिसका दूरवर्ती घातक परिणाम हमारे सामाजिक तथा राष्ट्रीय विकास पर पड़ता है। यों तो वर्तमान समय में अधिकांश पुरुष भी वेदों से अपरिचित हैं और उनके सम्बन्ध में ऊटपटांग बातें करते रहते हैं। पर किसी समुदाय को सिद्धान्त रूप से अनधिकारी घोषित कर देने पर परिणाम हानिकारक ही निकलता है। इसलिये वितण्डावादियों के कथनों का ख्याल न करके हमको स्त्रियों के प्रति किये गये अन्याय का अवश्य ही निराकरण करना चाहिये।
वेद- ज्ञान सबके लिये है, नर- नारी सभी के लिये है। ईश्वर अपनी सन्तान को जो सन्देश देता है, उसे सुनने पर प्रतिबन्ध लगाना, ईश्वर के प्रति द्रोह करना है। वेद भगवान स्वयं कहते हैं-

समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि॥ -ऋग्वेद १०। १९१। ३
अर्थात्- हे समस्त नारियो! तुम्हारे लिये ये मन्त्र समान रूप से दिये गये हैं तथा तुम्हारा परस्पर विचार भी समान रूप से हो। तुम्हारी सभायें सबके लिये समान रूप से खुली हुई हों, तुम्हारा मन और चित्त समान मिला हुआ हो, मैं तुम्हें समान रूप से मत्रों का उपदेश करता हूँ और समान रूप से ग्रहण करने योग्य पदार्थ देता हूँ।

मालवीय जी द्वारा निर्णय

स्त्रियों को वेद- मत्रों का अधिकार है या नहीं? इस प्रश्न को लेकर काशी के पण्डितों में पर्याप्त विवाद हो चुका है। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी में कुमारी कल्याणी नामक छात्रा वेद कक्षा में प्रविष्ट होना चाहती थी, पर प्रचलित मान्यता के आधार पर विश्वविद्यालय ने उसे दाखिल करने से इन्कार कर दिया। अधिकारियों का कथन था कि शास्त्रों में स्त्रियों को वेद- मन्त्रों का अधिकार नहीं दिया गया है।

इस विषय को लेकर पत्र- पत्रिकाओं में बहुत दिन विवाद चला। वेदाधिकार के समर्थन में ‘‘सार्वदेशिक’’ पत्र ने कई लेख छापे और विरोध में काशी के ‘‘सिद्धान्त’’ पत्र में कई लेख प्रकाशित हुए। आर्य समाज की ओर से एक डेपुटेशन हिन्दू विश्वविद्यालय के अधिकारियों से मिला। देश भर में इस प्रश्न को लेकर काफी चर्चा हुई।

अन्त में विश्वविद्यालय ने महामना मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में इस प्रश्न पर विचार करने के लिये एक कमेटी नियुक्त की, जिसमें अनेक धार्मिक विद्वान् सम्मिलित किये गये। कमेटी ने इस सम्बन्ध में शास्त्रों का गम्भीर विवेचन करके यह निष्कर्ष निकाला कि स्त्रियों को भी पुरुषों की भाँति वेदाधिकार है। इस निर्णय की घोषणा २२ अगस्त सन् १९४६ को सनातन धर्म के प्राण समझे जाने वाले महामना मालवीय जी ने की। तदनुसार कुमारी कल्याणी देवी को हिन्दू विश्वविद्यालय की वेद कक्षा में दाखिल कर लिया गया और शास्त्रीय आधार पर निर्णय किया कि- विद्यालय में स्त्रियों के वेदाध्ययन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं रहेगा। स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति वेद पढ़ सकेंगी।

महामना मालवीय जी तथा उनके सहयोगी अन्य विद्वानों पर कोई सनातन धर्म विरोधी होने का सन्देह नहीं कर सकता। सनातन धर्म में उनकी आस्था प्रसिद्ध है। ऐसे लोगों द्वारा इस प्रश्र को सुलझा दिये जाने पर भी जो लोग गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं और कहते हैं कि स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं है, उनकी बुद्धि के लिए क्या कहा जाय, समझ में नहीं आता।

पं० मदनमोहन मालवीय सनातन धर्म के प्राण थे। उनकी शास्त्रज्ञता, विद्वत्ता, दूरदर्शिता एवं धार्मिक दृढ़ता असन्दिग्ध थी। ऐसे महापण्डित ने अन्य अनेकों प्रामाणिक विद्वानों के परामर्श से स्वीकार किया है। उस निर्णय पर भी जो लोग सन्देह करते हैं, उनकी हठधर्मिता को दूर करना स्वयं ब्रह्माजी के लिये भी कठिन है।

खेद है कि ऐसे लोग समय की गति को भी नहीं देखते, हिन्दू समाज की गिरती हुई संख्या और शक्ति पर भी ध्यान नहीं देते, केवल दस- बीस कल्पित या मिलावटी श्लोकों को लेकर देश तथा समाज का अहित करने पर उतारू हो जाते हैं। प्राचीन काल की अनेक विदुषी स्त्रियों के नाम अभी तक संसार में प्रसिद्ध हैं। वेदों में बीसियों स्त्री- ऋषिकाओं का उल्लेख मन्त्र रचयिता के रूप में लिखा मिलता है। पर ऐसे लोग उधर दृष्टिपात न करके मध्यकाल के ऋषियों के नाम पर स्वार्थी लोगों द्वारा लिखी पुस्तकों के आधार पर समाज सुधार के पुनीत कार्य में व्यर्थ ही टाँग अड़ाया करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की उपेक्षा करके वर्तमान युग के ऋषि मालवीय जी की सम्मति का अनुसरण करना ही समाज- सेवकों का कर्तव्य है ।।


स्रियाँ अनधिकारिणी नहीं हैं

पिछले पृष्ठों पर शास्त्रों के आधार पर जो प्रमाण उपस्थित किये गये हैं, पाठक उनमें से हर एक पर विचार करें। हर विचारवान को यह सहज ही प्रतीत हो जायेगा कि वेद- शास्त्रों में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है जो धार्मिक कार्यों के लिये, सद्ज्ञान उपार्जन के लिये वेद- शास्त्रों का श्रवण- मनन करने के लिये रोकता हो। हिन्दूधर्म वैज्ञानिक धर्म है, विश्व धर्म है। इसमें ऐसी विचारधारा के लिये कोई स्थान नहीं है, जो स्त्रियों को धर्म, ईश्वर, वेद विद्या आदि के उत्तम मार्ग से रोककर उन्हें अवनत अवस्था में पड़ी रहने के लिए विवश करे। प्राणीमात्र पर अनन्त दया एवं करुणा रखने वाले ऋषि- मुनि ऐसे निष्ठुर नहीं हो सकते, जो ईश्वरीय ज्ञान वेद से स्त्रियों को वंचित रखकर उन्हें आत्मकल्याण के मार्ग पर चलने से रोकें। हिन्दूधर्म अत्यधिक उदार है, विशेषत: स्त्रियों के लिए तो उसमें बहुत ही आदर, श्रद्धा एवं उच्च स्थान है। ऐसी दशा में यह कैसे हो सकता है कि गायत्री उपासना जैसे उत्तम कार्य के लिए उन्हें अयोग्य घोषित किया जाए?

जहाँ तक दस- पाँच ऐसे श्लोक मिलते हैं, जो स्त्रियों को वेद- शास्त्र पढ़ने से रोकते हैं, पण्डित समाज में उन पर विशेष ध्यान दिया गया है। प्रारम्भ में बहुत समय तक हमारी भी ऐसी ही मान्यता रही कि स्त्रियाँ वेद न पढ़ें। परन्तु जैसे- जैसे शास्त्रीय खोज में अधिक गहरा प्रवेश करने का अवसर मिला, वैसे- वैसे पता चला कि प्रतिबन्धित श्लोक मध्यकालीन सामन्तवादी मान्यता के प्रतिनिधि हैं। उसी समय में इस प्रकार के श्लोक बनाकर ग्रन्थों में मिला दिये गये हैं। सत्य सनातन वेदोक्त भारतीय धर्म की वास्तविक विचारधारा स्त्रियों पर कोई बन्धन नहीं लगाती। उसमें पुरुषों की भाँति ही स्त्रियों को भी ईश्वर- उपासना एवं वेद- शास्त्रों का आश्रय लेकर आत्मलाभ करने की पूरी- पूरी सुविधा है।

प्रतिष्ठित गणमान्य विद्वानों की भी ऐसी ही सम्मति है। साधना और योग की प्राचीन परम्पराओं के जानकार महात्माओं का कथन भी यही है कि स्त्रियाँ सदा से ही गायत्री की अधिकारिणी रही हैं। स्वर्गीय मालवीय जी सनातन धर्म के प्राण थे। पहले उनके हिन्दू विश्वविद्यालय में स्त्रियों को वेद पढऩे की रोक थी, पर जब उन्होंने विशेष रूप से पण्डित मण्डली के सहयोग से इस सम्बन्ध में स्वयं खोज की तो वे भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि शास्त्रों में स्त्रियों के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उन्होंने रूढ़ीवादी लोगों के विरोध की रत्तीभर भी परवाह न करते हुए हिन्दू विश्वविद्यालय में स्त्रियों को वेद पढऩे की खुली व्यवस्था कर दी।

अब भी कई महानुभाव यह कहते रहते हैं कि स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं। ऐसे लोगों की आँखें खोलने के लिए असंख्य प्रमाणों में से ऐसे कुछ थोड़े से प्रमाण इस पुस्तक में प्रस्तुत किए गए हैं। सम्भव है जानकारी के अभाव में किसी को विरोध रहा हो। दुराग्रह से कभी किसी विवाद का अन्त नहीं होता। अपनी ही बात को सिद्ध करने के लिए हठ ठानना अशोभनीय है। विवेकवान व्यक्तियों का सदा यह सिद्धान्त रहता है कि ‘जो सत्य सो हमारा’। अविवेकी मनुष्य ‘जो हमारा सो सत्य’ सिद्ध करने के लिए वितण्डा खड़ा करते हैं।

विचारवान व्यक्तियों को अपने आप से एकान्त में बैठकर यह प्रश्र करना चाहिए— (१) यदि स्त्रियों को गायत्री या वेदमन्त्रों का अधिकार नहीं, तो प्राचीनकाल में स्त्रियाँ वेदों की मन्त्रद्रष्ट्री- ऋषिकाएँ क्यों हुईं? (२) यदि वेद की वे अधिकारिणी नहीं तो यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों तथा षोडश संस्कारों में उन्हें सम्मिलित क्यों किया जाता है? (३) विवाह आदि अवसरों पर स्त्रियों के मुख से वेदमन्त्रों का उच्चारण क्यों कराया जाता है? (४) बिना वेदमन्त्रों के नित्य सन्ध्या और हवन स्त्रियाँ कैसे कर सकती हैं? (५) यदि स्त्रियाँ अनधिकारिणी थीं तो अनसूया, अहल्या, अरुन्धती, मदालसा आदि अगणित स्त्रियाँ वेदशास्त्रों में पारंगत कैसे थीं? (६) ज्ञान, धर्म और उपासना के स्वाभाविक अधिकारों से नागरिकों को वंचित करना क्या अन्याय एवं पक्षपात नहीं है? (७) क्या नारी को आध्यात्मिक दृष्टि से अयोग्य ठहराकर उनसे उत्पन्न होने वाली सन्तान धार्मिक हो सकती है? (८) जब स्त्री, पुरुष की अर्धांगिनी है तो आधा अंग अधिकारी और आधा अनधिकारी किस प्रकार रहा?

इन प्रश्रों पर विचार करने से हर एक निष्पक्ष व्यक्ति की अन्तरात्मा यही उत्तर देगी कि स्त्रियों पर धार्मिक अयोग्यता का प्रतिबन्ध लगाना किसी प्रकार न्यायसंगत नहीं हो सकता। उन्हें भी गायत्री आदि पुरुषों की भाँति ही अधिकार होना चाहिए। हम स्वयं भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। हमारा ऐसी पचासों स्त्रियों से परिचय है जिनने श्रद्धापूर्वक वेदमाता गायत्री की उपासना की है और पुरुषों के ही समान सन्तोषजनक सफलता प्राप्त किए हैं। कई बार तो उन्हें पुरुषों से भी अधिक एवं शीघ्र सफलताएँ मिलीं। कन्याएँ उत्तम घर वर प्राप्त करने में, सधवाएँ पति का सुख सौभाग्य एवं सुसन्तति के सम्बन्ध में और विधवाएँ संयम तथा धन उपार्जन में आशाजनक सफल हुई हैं।

आत्मा न स्त्री है, न पुरुष। वह विशुद्ध ब्रह्म ज्योति की चिनगारी है। आत्मिक प्रकाश प्राप्त करने के लिए जैसे पुरुष को किसी गुरु या पथ- प्रदर्शक की आवश्यकता होती है, वैसे ही स्त्री को भी होती है। तात्पर्य यह है कि साधना क्षेत्र में पुरुष- स्त्री का भेद नहीं। साधक ‘आत्मा’ है, उन्हें अपने को पुरुष- स्त्री न समझ कर आत्मा समझना चाहिए। साधना क्षेत्र में सभी आत्माएँ समान हैं। लिंग भेद के कारण कोई अयोग्यता उन पर नहीं थोपी जानी चाहिए।
पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में धार्मिक तत्त्वों की मात्रा अधिक होती है। पुरुषों पर बुरे वातावरण एवं व्यवहार की छाया अधिक पड़ती है जिससे बुराइयाँ अधिक हो जाती हैं। आर्थिक संघर्ष में रहने के कारण चोरी, बेईमानी आदि के अवसर उनके सामने आते रहते हैं। पर स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बड़ा सरल, सीधा और सात्त्विक है। घर में जो कार्य करना पड़ता है, उसमें सेवा की मात्रा अधिक रहती है। वे आत्मनिग्रह करती हैं, कष्ट सहती हैं, पर बच्चों के प्रति, पतिदेव के प्रति, सास- ससुर, देवर- जेठ आदि सभी के प्रति अपने व्यवहार को सौम्य, सहृदय, सेवापूर्ण, उदार, शिष्ट एवं सहिष्णु रखती हैं। उनकी दिनचर्या सतोगुणी होती है, जिसके कारण उनकी अन्तरात्मा पुरुषों की अपेक्षा अधिक पवित्र रहती है। चोरी, हत्या, ठगी, धूर्तता, शोषण, निष्ठुरता, व्यसन, अहंकार, असंयम, असत्य आदि दुर्गुण पुरुष में ही प्रधानतया पाये जाते हैं। स्त्रियों में इस प्रकार के पाप बहुत कम देखने को मिलते हैं। यों तो फैशनपरस्ती, अशिष्टता, कर्कशता, श्रम से जी चुराना आदि छोटी- छोटी बुराइयाँ अब स्त्रियों में बढऩे लगी हैं, परन्तु पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ निस्सन्देह अनेक गुनी अधिक सद्गुणी हैं, उनकी बुराइयाँ अपेक्षाकृत बहुत ही सीमित हैं।

ऐसी स्थिति में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में धार्मिक प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक ही है। उनकी मनोभूमि में धर्म का बीजांकुर अधिक जल्दी जमता और फलता- फूलता है। अवकाश रहने के कारण वे घर में पूजा- आराधना की नियमित व्यवस्था भी कर सकती हैं। अपने बच्चों पर धार्मिक संस्कार अधिक अच्छी तरह से डाल सकती हैं। इन सब बातों को देखते हुए महिलाओं को धार्मिक साधना के लिए उत्साहित करने की आवश्यकता है। इसके विपरीत उन्हें नीच, अनधिकारिणी, शूद्रा आदि कहकर उनके मार्ग में रोड़े खड़े करना, निरुत्साहित करना किस प्रकार उचित है, यह समझ में नहीं आता !
महिलाओं के वेद- शास्त्र अपनाने एवं गायत्री साधना करने के असंख्य प्रमाण धर्मग्रन्थों में भरे पड़े हैं। उनकी ओर से आँखें बन्द करके किन्हीं दो- चार प्रक्षिप्त श्लोकों को लेकर बैठना और उन्हीं के आधार पर स्त्रियों को अनधिकारिणी ठहराना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। धर्म की ओर एक तो वैसे ही किसी की प्रवृत्ति नहीं है, फिर किसी को उत्साह, सुविधा हो तो उसे अनधिकारी घोषित करके ज्ञान और उपासना का रास्ता बन्द कर देना कोई विवेकशीलता नहीं है।

हमने भली प्रकार खोज विचार, मनन और अन्वेषण करके यह पूरी तरह विश्वास कर लिया है कि स्त्रियों को पुरुषों की भाँति ही गायत्री का अधिकार है। वे भी पुरुषों की भाँति ही माता की गोदी में चढऩे की, उसका आँचल पकडऩे की, उसका पय:पान करने की पूर्ण अधिकारिणी हैं। उन्हें सब प्रकार का संकोच छोडक़र प्रसन्नतापूर्वक गायत्री की उपासना करनी चाहिए। इससे उनके भव- बन्धन कटेंगे, जन्म- मरण की फाँसी से छूटेंगी, जीवन- मुक्ति और स्वर्गीय शान्ति की अधिकारिणी बनेंगी, साथ ही अपने पुण्य प्रताप से अपने परिजनों के स्वास्थ्य, सौभाग्य, वैभव एवं सुख- शान्ति की दिन- दिन वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दे सकेंगी। गायत्री को अपनाने वाली देवियाँ सच्चे अर्थों में देवी बनती हैं। उनके दिव्य गुणों का प्रकाश होता है, तदनुसार वे सर्वत्र उसी आदर को प्राप्त करती हैं जो उनका ईश्वर प्रदत्त जन्मजात अधिकार है।

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