मन को पूर्णतया संकल्प रहित कर देने से रिक्त मानस की निर्विषय स्थिति होती है, उसे तुरीयावस्था कहते हैं। जब मन में किसी भी प्रकार का एक भी संकल्प न रहे, ध्यान, भाव, विचार, संकल्प, इच्छा, कामना को पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया जाए और भावरहित होकर केवल आत्मा के एक केन्द्र में अपने अन्त:करण को पूर्णतया समाविष्ट कर दिया जाए, तो साधक तुरीयावस्था में पहुँच जाता है। इस स्थिति में इतना आनन्द आता है कि उस आनन्द के अतिरेक में अपनेपन की सारी सुध-बुध छूट जाती है और पूर्ण मनोयोग होने से बिखरा हुआ आनन्द एकीभूत होकर साधक को आनन्द से परितृप्त कर देता है, इसी स्थिति को समाधि कहते हैं।
समाधि काल में अपना संकल्प ही एक सजीव एवं अनन्त शक्तिशाली देव बन जाता है और उसकी झाँकी दृश्य जगत् से भी अधिक स्पष्ट होती है। नेत्रों के दोष और चञ्चलता से कई वस्तुएँ हमें धुँधली दिखाई पड़ती हैं और उनकी बारीकियाँ नहीं सूझ पड़तीं। परन्तु समाधि अवस्था में परिपूर्ण दिव्य इन्द्रियों और चित्त-वृत्तियों का एकीकरण जिस संकल्प पर होता है, वह संकल्प सब प्रकार मूर्तिमान् एवं सक्रिय परिलक्षित होता है। जिस किसी को जब कभी ईश्वर का मूर्तिमान् साक्षात्कार होता है, तब समाधि अवस्था में उसका संकल्प ही मूर्तिमान् हुआ होता है।
भावावेश में भी क्षणिक समाधि हो जाती है। भूत-प्रेत आवेश, देवोन्माद, हर्ष-शोक की मूर्च्छा, नृत्य-वाद्य में लहरा जाना, आवेश में अपनी या दूसरे की हत्या आदि भयंकर कृत्य कर डालना, क्रोध का व्यतिरेक, बिछुड़ों से मिलन का प्रेमावेश, कीर्तन आदि के समय भाव-विह्वलता, अश्रुपात, चीत्कार, आर्तनाद, करुण क्रन्दन, हूक आदि में आंशिक समाधि होती है। संकल्प में, भावना में आवेश की जितनी अधिक मात्रा होगी, उतनी ही गहरी समाधि होगी और उसका फल भी सुख या दु:ख के रूप में उतना ही अधिक होगा। भय का व्यतिरेक या आवेश होने पर डर के मारे भावना मात्र से लोगों की मृत्यु तक होती देखी गई है। कई व्यक्ति फाँसी पर चढ़ने से पूर्व ही डर के मारे प्राण त्याग देते हैं।
आवेश की दशा में अन्तरंग शक्तियों और वृत्तियों का एकीकरण हो जाने से एक प्रचण्ड भावोद्वेग होता है। यह उद्वेग भिन्न-भिन्न दशाओं में मूर्च्छा, उन्माद, आवेश आदि नामों से पुकारा जाता है। पर जब वह दिव्य भूमिका में आत्मतन्मयता के साथ होता है, तो उसे समाधि कहते हैं। पूर्ण समाधि में पूर्ण तन्मयता के कारण पूर्णानन्द का अनुभव होता है। आरम्भ स्वल्प मात्रा की आंशिक समाधि के साथ होता है। दैवी भावनाओं में एकाग्रता एवं तन्मयतापूर्ण भावावेश जब होता है, तो आँखें झपक जाती हैं, सुस्ती, तन्द्रा या मूर्च्छा भी आने लगती है, माला हाथ से छूट जाती है, जप करते-करते जिह्वा रुक जाती है। अपने इष्ट की हलकी-सी झाँकी होती है और एक ऐसे आनन्द की क्षणिक अनुभूति होती है जैसा कि संसार के किसी पदार्थ में नहीं मिलता। यह स्थिति आरम्भ में स्वल्प मात्रा में ही होती है, पर धीरे-धीरे उसका विकास होकर परिपूर्ण तुरीयावस्था की ओर चलने लगती है और अन्त में सिद्धि मिल जाती है।
आनन्दमय कोश के चार अंग प्रधान हैं—(१) नाद, (२) बिन्दु, (३) कला और (४) तुरीया। इन साधनों द्वारा साधक अपनी पञ्चम भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है। गायत्री के इस पाँचवें मुख को खोल देने वाला साधक जब एक-एक करके पाँच मुखों से माता का आशीर्वाद प्राप्त कर लेता है, तो उसे और प्राप्त करना कुछ शेष नहीं रह जाता।