गायत्री महाविज्ञान

ब्रह्म दीक्षा - आत्मकल्याण की तीन कक्षाएँ

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तीसरी भूमिका ‘स्व:’ है। इसे ब्र्रह्म-दीक्षा कहते हैं। जब दूध अग्रि पर औटाकर नीचे अतार लिया जाता है और ठण्डा हो जाता है, तब उसमें दही का जामन देकर जमा दिया जाता है, फलस्वरुप वह सारा दही ही बन जाता है। मन्त्र द्वारा दृष्टिकोण का परिमार्जन करके साधक अपने सांसारिक जीवन को प्रसन्नता और सम्पन्नता से ओत-प्रोत करता है, अग्रि द्वारा अपने कुसंस्कारों, पापों, भूलों, कषायों, दुर्बलताओं को जलाता है, उनसे अपना पिण्ड छुड़ाकर बन्धन मुक्त होता है एवं तप की उष्मा द्वारा अन्त:करण को पकाकर ब्राह्मीभूत करता है। दूध पकते-पकते जब रबड़ी, मलाई आदि की शक्ल में पहुँच जाता है, तब उसका मूल्य और स्वाद बहुत बढ़ जाता है।

    पहली ज्ञान-भूमि, दूसरी शक्ति-भूमि और तीसरी ब्रह्म-भूमि होती है। क्रमश: एक के बाद एक को पार करना पड़ता है। पिछली दो कक्षाओं को पार कर साधक जब तीसरी कक्षा में पहुँचता है, तो उसे सद्गुरु द्वारा ब्रह्म-दीक्षा लेने की आवश्यकता होती है। यह ‘परा’ वाणी द्वारा होती है। बैखरी वाणी द्वारा मुँह से शब्द उच्चारण करके ज्ञान दिया जाता है। मध्यमा और पश्यन्ती वाणियों द्वारा शिष्य के प्राणमय और मनोमय कोश में अग्रि संस्कार किया जाता है। परा वाणी द्वारा आत्मा बोलती है और उसका सन्देश दूसरी आत्मा सुनती है। जीभ की वाणी कान सुनते हैं, मन की वाणी नेत्र सुनते हैं, हृदय की वाणी हृदय सुनता है और आत्मा की वाणी आत्मा सुनती है। जीभ ‘बैखरी’ वाणी बोलती है, मन ‘मध्यमा’ बोलता है, हृदय की वाणी ‘पश्यन्ती’ कहलाती है और आत्मा ‘परा’ वाणी बोलती है। ब्रह्म-दीक्षा में जीभ, मन, हृदय किसी को नहीं बोलना पड़ता। आत्मा के अन्तरंग क्षेत्र में जो अनहद ध्वनि उत्पन्न होती है, उसेे दूसरी आत्मा ग्रहण करती है। उसे ग्रहण करने के पश्चात् वह भी ऐसी ही ब्राह्मीभूत हो जाती है जैसा थोड़ा-सा दही पड़ने से औटाया हुआ दूध सबका सब दही बन जाता है।

    काला कोयला या सड़ी-गली लकड़ी का टुकड़ा जब अग्नि में पड़ता है, तो उसका पुराना स्वरूप बदल जाता है और वह अग्निमय होकर अग्नि के ही गुणों से सुसज्जित हो जाता है। यह कोयला या लकड़ी का टुकड़ा भी अग्नि के गुणों से परिपूर्ण होता है और गर्मी, प्रकाश तथा जलाने की शक्ति भी उसमें अग्नि के समान होती है। ब्राह्मी दीक्षा से ब्रह्मभूत हुए साधक का शरीर तुच्छ होते हुए भी उसकी अन्तरंग सत्ता ब्राह्मीभूत हो जाती है। उसे अपने भीतर-बाहर चारों ओर सत् ही सत् दृष्टिगोचर होता है। विश्व में सर्वत्र उसे ब्रह्म ही ब्रह्म परिलक्षित होता है।

    गीता में भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर अपना विराट् रूप दिखाया था, अर्थात् उसे वह ज्ञान दिया था जिससे विश्व के अन्तरंग में छिपी हुई अदृश्य ब्रह्मसत्ता का दर्शन कर सके। भगवान् सब में व्यापक है, पर उसे कोई बिरले ही देखते, समझते हैं। भगवान् ने अर्जुन को यह दिव्य दृष्टि दी जिससे उसकी ईक्षण शक्ति इतनी सूक्ष्म और पारदर्शी हो गयी कि वह उन दिव्य तत्वों का अनुभव करने लगा, जिसे साधारण लोग नहीं कर पाते। इस दिव्य दृष्टि को ही पाकर योगी लोग आत्मा का, ब्रह्म का साक्षात्कार अपने भीतर और बाहर करते हैं तथा ब्राह्मी गुणों से, विचारों से, स्वभावों से, कार्यों से ओतप्रोत हो जाते हैं। यशोदा ने, कौशल्या ने, काकभुशुण्डि ने ऐसी ही दिव्य दृष्टि पाई थी और ब्रह्म का साक्षात्कार किया था। ईश्वर का दर्शन इसे ही कहते हैं। ब्रह्म दीक्षा पाने वाला शिष्य ईश्वर में अपनी समीपता और स्थिति का वैसे ही अनुभव करता है जैसे कोयला अग्रि में पड़कर अपने को अग्निमय अनुभव करता है।

    द्विजत्व की तीन कक्षाएँ हैं-(१) ब्राह्मण, (२) क्षत्रिय, (३) वैश्य। पहली कक्षा है- वैश्य । वैश्य का उद्देश्य है- सुख सामग्री का उपार्जन। उसको मन्त्र (विचार) द्वारा यह लोक व्यवहार सिखाया जाता है, वह दृष्टिकोण दिया जाता है जिसके द्वारा सांसारिक जीवन सुखमय, शान्तिमय, सफल एवं सुसम्पन्न बन सके। बुरे गुण, कर्म एवं स्वभावों के कारण लोग अपने आपको चिन्ता, भय, दु:ख, रोग, क्लेश एवं दरिद्रता के चंगुल में फँसा लेते हैं। यदि उनका दृष्टिकोण सही हो, दस शूलों से बचे रहें तो निश्चय ही मानव जीवन स्वर्गीय आनन्द से ओत-प्रोत होना चाहिए।

    क्षत्रिय तत्व का आधार है- शक्ति। शक्ति तप से उत्पन्न होती है। दो वस्तुओं को घिसने से गर्मी पैदा होती है। पत्थर पर घिसने से चाकू तेज होता है। बिजली की उत्पत्ति घर्षण से होती है। बुराइयों के, त्रुटियों के, कुसंस्कारों के, विकारों के विरुद्ध संघर्ष कार्य को तप कहते हैं। तप से आत्मिक शक्ति उत्पन्न होती है और उसे जिस दिशा में भी प्रयुक्त किया जाए उसी में चमत्कार उत्पन्न हो जाते हैं। शक्ति स्वयं ही चमत्कार है, शक्ति का नाम ही सिद्धि है। अग्रि-दीक्षा से तप आरम्भ होता है, आत्मदान के लिए युद्ध छेड़ा जाता है। गीता में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया था कि ‘तू निरन्तर युद्ध कर।’ निरन्तर युद्ध किससे करता? महाभारत तो थोड़े ही दिन में समाप्त हो गया था, फिर अर्जुन निरन्तर किससे लड़ता? भगवान् का संकेत आन्तरिक शत्रुओं से संघर्ष जारी रखने का था। यही अग्रि-दीक्षा का उपदेश था। अग्नि-दीक्षा से दीक्षित व्यक्ति में क्षत्रियत्व का, साहस का, शौर्य का, पुरुषार्थ का, पराक्रम का विकास होता है। इससे वह यश का भागी बनता है।

    मन्त्रदीक्षा से साधक व्यवहार कुशल बनता है और अपने जीवन को सुख-शांति, सहयोग एवं सम्पन्नता से भरा-पूरा कर लेता है। अग्रि-दीक्षा से उसकी प्रतिभा, प्रतिष्ठा, ख्याति, प्रशंसा एवं महानता का प्रकाश होता है। दूसरों का सिर उसके चरणों में स्वत: झुक जाता है। लोग उसे नेता मानते हैं, उसका अनुसरण और अनुगमन करते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त दो दीक्षाओं द्वारा वैश्य और क्षत्रिय बनने के उपरान्त साधक ब्राह्मण बनने के लिए अग्रसर होता है। ब्रह्मदीक्षा से उसे ‘दिव्य दृष्टि’ मिलती है, इसे नेत्रोन्मीलन कहते हैं।

    शंकर ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को जला दिया था। अर्जुन को भगवान् ने ‘‘दिव्यं ददामि ते चक्षु:’’ दिव्य नेत्र देकर अपने विराट् स्वरूप का दर्शन सम्भव करा दिया था। वह तृतीय नेत्र हर योगी का खुलता है, उसे वे बाते दिखाई पड़ती हैं जो साधारण व्यक्तियों को नहीं दिखतीं। उनको कण-कण में परमात्मा का पुण्य प्रकाश बहुमूल्य रत्नों की तरह जगमगाता हुआ दिखाई पड़ता है। भक्त माइकेल को प्रत्येक शिला में स्वर्गीय फरिश्ता दिखाई पड़ता था। सामान्य व्यक्तियों की दृष्टि बड़ी संकुचित होती है, वे आज के हानि-लाभों में रोते-हँसते हैं, पर ब्रह्मज्ञानी दूर तक देखता है। वह वस्तु और परिस्थिति पर पारदर्शी  विचार करता है और प्रत्येक परिस्थिति में प्रभु की लीला एवं दया का अनुभव करता हुआ प्रसन्न रहता है। विश्व मानव की सेवा में ही वह अपना जीवन लगाता है। इस प्रकार ब्रह्मदीक्षा में दीक्षित हुआ साधक परम भागवत होकर परम शान्ति को अन्त:करण में धारण करता हुआ दिव्य तत्वों से परिपूर्ण हो जाता है। इस श्रेणी के साधकों को ही भूसुर कहते हैं।


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