गायत्री महाविज्ञान

साधकों के लिये उपवीत आवश्यक है

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कई व्यक्ति सोचते हैं कि यज्ञोपवीत हमसे सधेगा नहीं, हम उसके नियमों का पालन नहीं कर सकेंगे, इसलिये हमें उसे धारण नहीं करना चाहिए। यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कोई कहे कि मेरे मन में ईश्वर भक्ति नहीं है, इसलिये मैं पूजा- पाठ नहीं करूँगा। पूजा- पाठ करने से तात्पर्य ही भक्ति उत्पन्न करना है। यह भक्ति पहले ही होती, तो पूजा- पाठ करने की आवश्यकता ही न रह जाती। यही बात जनेऊ के सम्बन्ध में है। यदि धार्मिक नियमों की साधना अपने आप ही हो जाए, तो उसको धारण करने की आवश्यकता ही क्या? चूँकि आमतौर से नियम नहीं सधते, इसलिये तो यज्ञोपवीत का प्रतिबन्ध लगाकर उन नियमों को साधने का प्रयत्न किया जाता है। जो लोग नियम नहीं साध पाते, उन्हीं के लिये सबसे अधिक आवश्यकता जनेऊ धारण करने की है। जो बीमार है, उसे ही तो दवा चाहिये, यदि बीमार न होता तो दवा की आवश्यकता ही उसके लिये क्या थी?

नियम क्यों साधने चाहिये? इसके बारे में लोगों की बड़ी विचित्र मान्यतायें हैं। कई आदमी समझते हैं कि भोजन सम्बन्धी नियमों का पालन करना ही जनेऊ का नियम है। बिना स्नान किये, रास्ते का चला हुआ, रात का बासी हुआ, अपनी जाति के अलावा किसी अन्य का बनाया हुआ भोजन न करना ही यज्ञोपवीत की साधना है- यह बड़ी अधूरी और भ्रमपूर्ण धारणा है। यज्ञोपवीत का मन्तव्य मानव जीवन की सर्वांगपूर्ण उन्नति करना है। उन उन्नतियों में स्वास्थ्य की उन्नति भी एक है और उसके लिये अन्य नियम पालन करने के साथ- साथ भोजन सम्बन्धी नियमों की सावधानी रखना उचित है। इस दृष्टि से जनेऊधारी के लिये भोजन सम्बन्धी नियमों का पालन करना ठीक है; परन्तु जिस प्रकार प्रत्येक द्विज, जीवन की सर्वांगीण उन्नति के नियमों का पूर्णतया पालन नहीं कर पाता, फिर भी कन्धे पर जनेऊ धारण किये रहता है, उसी प्रकार भोजन सम्बन्धी किसी नियम में यदि त्रुटि रह जाए, तो यह नहीं समझना चाहिये कि त्रुटि के कारण जनेऊ धारण का अधिकार ही छिन जाता है। यदि झूठ बोलने से, दुराचार की दृष्टि रखने से, बेईमानी करने से, आलस्य, प्रमाद या व्यसनों में ग्रस्त रहने से जनेऊ नहीं टूटता, तो केवल भोजन सम्बन्धी नियम में कभी- कभी थोड़ा- सा अपवाद आ जाने से नियम टूट जाएगा, यह सोचना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है?

मल- मूत्र के त्यागने में कान पर जनेऊ चढ़ाने में भूल होने का अक्सर भय रहता है। कई आदमी इस डर की वजह से यज्ञोपवीत नहीं पहनते या पहनना छोड़ देते हैं। यह ठीक है कि नियम का कठोरता से पालन होना चाहिये, पर यह भी ठीक है के आरम्भ में इसकी आदत न पड़ जाने तक नौसिखियों को कुछ सुविधा भी मिलना चाहिये, जिससे कि उन्हें एक दिन में तीन- तीन जनेऊ बदलने के लिये विवश न होना पड़े। इसके लिये ऐसा किया जा सकता है कि जनेऊ का एक फेरा गर्दन में घुमा दिया जाय, ऐसा करने से वह कमर से ऊँचा आ जाता है। कान में चढ़ाने का मुख्य प्रयोजन यह है कि मल- मूत्र की अशुद्धता का यज्ञसूत्र से स्पर्श न हो। जब जनेऊ कण्ठ में लपेट दिये जाने से कमर से ऊँचा उठ जाता है, तो उससे अशुद्धता के स्पर्श होने की आशंका नहीं रहती, और यदि कभी कान में न चढ़ाने की भूल हो भी जाए, तो उसको बदलने की आवश्यकता नहीं होती। थोड़े दिनों में जब भली प्रकार आदत पड़ जाती है, तो फिर कण्ठ में लपेटने की आवश्यकता नहीं रहती।

छोटी आयु वाले बालकों के लिये तथा अन्य भुलक्कड़ व्यक्तियों के लिये तृतीयांश यज्ञोपवीत की व्यवस्था की जा सकती है। पूरे यज्ञोपवीत की अपेक्षा दो- तिहाई छोटा अर्थात् एक- तिहाई लम्बाई का तीन लड़ वाला उपवीत केवल कण्ठ में धारण कराया जा सकता है। इस प्रकार के उपवीत को आचार्यों ने ‘कण्ठी’ शब्द से सम्बोधित किया है। छोटे बालकों का जब उपनयन होता था, तो उन्हें दीक्षा के साथ कण्ठी पहना दी जाती थी। आज भी गुरु नामधारी पण्डित जी गले में कण्ठी पहनाकर और कान में मन्त्र सुनाकर ‘गुरु दीक्षा’ देते हैं।

इस प्रकार के अविकसित व्यक्ति उपवीत की नित्य की सफाई का भी पूरा ध्यान रखने में प्राय: भूल करते हैं, जिससे शरीर का पसीना उसमें रमता रहता है, फलस्वरूप बदबू, गन्दगी, मैल और रोग- कीटाणु उसमें पलने लगते हैं। ऐसी स्थिति में यह सोचना पड़ता है कि कोई उपाय निकल आये, जिससे कण्ठ में पड़ी हुई उपवीती- कण्ठी का शरीर से कम स्पर्श हो। इस निमित्त तुलसी, रुद्राक्ष या किसी और पवित्र वस्तु के दानों में कण्ठी के सूत्रों को पिरो दिया जाता है; फलस्वरूप वे दाने ही शरीर का स्पर्श कर पाते हैं, सूत्र अलग रह जाता है और पसीने का जमाव होने एवं शुद्धि में प्रमाद होने के खतरे से बचत हो जाती है, इसलिये दाने वाली कण्ठियाँ पहनने का रिवाज चलाया गया।

पूर्ण रूप से न सही, आंशिक रूप से सही, गायत्री के साधकों को यज्ञोपवीत अवश्य धारण करना चाहिये, क्योंकि उपनयन गायत्री का मूर्तिमान प्रतीक है, उसे धारण किये बिना भगवती की साधना का धार्मिक अधिकार नहीं मिलता। आजकल नये फैशन में जेवरों का रिवाज कम होता जा रहा है, फिर भी गले में कण्ठीमाला किसी न किसी रूप में स्त्री- पुरुष धारण करते हैं। गरीब स्त्रियाँ काँच के मनकों की कण्ठियाँ धारण करती हैं। इन आभूषणों के नाम हार, नेकलेस, जंजीर, माला आदि रखे गये हैं, पर यह वास्तव में कण्ठियों के ही प्रकार हैं। चाहे स्त्रियों के पास कोई अन्य आभूषण हो या न हो, परन्तु इतना निश्चित है कि कण्ठी को गरीब स्त्रियाँ भी किसी न किसी रूप में अवश्य धारण करती हैं। इससे प्रकट है कि भारतीय नारियों ने अपने सहज धर्म- प्रेम को किसी न किसी रूप मंप जीवित रखा है और उपवीत को किसी न किसी प्रकार धारण किया है।

जो लोग उपवीत धारण करने के अधिकारी नहीं कहे जाते, जिन्हें कोई दीक्षा नहीं देता, वे भी गले में तीन तार का या नौ तार का डोरा चार गाँठ लगाकर धारण कर लेते हैं। इस प्रकार चिह्न पूजा हो जाती है। पूरे यज्ञोपवीत का एक- तिहाई लम्बा यज्ञोपवीत गले में डाले रहने का भी कहीं- कहीं रिवाज है।

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