गायत्री महाविज्ञान

गायत्री उपेक्षा की भर्त्सना

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गायत्री को न जानने वाले अथवा जानने पर भी उसकी उपासना न करने वाले द्विजों की शास्त्रकारों ने कड़ी भर्त्सना की है और उन्हें अधोगामी बताया है। इस निन्दा में इस बात की चेतावनी दी है कि जो आलस्य या अश्रद्धा के कारण गायत्री साधना में ढील करते हों, उन्हें सावधान होकर इस श्रेष्ठ उपासना में प्रवृत्त होना चाहिए। गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदै: समीरिता। यया विना त्वध: पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा॥ -देवी भागवत स्कं० १२, अ० ८/८९ गायत्री की उपासना नित्य करने योग्य है, ऐसा समस्त वेदों में वर्णित है। गायत्री के बिना ब्राह्मण की सब प्रकार से अधोगति होती है। सांगांश्च चतुरोवेदानधीत्यापि सवाङ् मयान्। गायत्रीं यो न जानाति वृथा तस्य परिश्रम:॥ -योगी याज्ञवल्क्य सस्वर और अंग- उपांग सहित चारों वेदों और समस्त वाङ्मयों पर अधिकार होने पर भी जो गायत्री मन्त्र को नहीं जानता, उसका परिश्रम व्यर्थ है।

गायत्रीं य: परित्यज्य चान्यमन्त्रमुपासते। न साफल्यमवाप्रोति कल्पकोटिशतैरपि॥ -बृ० सन्ध्या भाष्य जो गायत्री मन्त्र को छोडक़र अन्य मन्त्र की उपासना करते हैं, वे करोड़ों जन्मों में भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। विहाय तां तु गायत्रीं विष्णूपासनतत्पर:। शिवोपासनतो विप्रो नरकं याति सर्वथा॥ देवी भागवत १२/८/९२ गायत्री को त्याग कर विष्णु और शिव की पूजा करने पर भी ब्राह्मण नरक में जाता है। गायत्र्या रहितो विप्र: शूद्रादप्यशुचिर्भवेत्। गायत्री- ब्रह्म: सम्पूज्यस्तु द्विजोत्तम:॥ -पारा० स्मृति ८/३१ ‘गायत्री से रहित ब्राह्मण शूद्र से भी अपवित्र है। गायत्री रूपी ब्रह्म तत्त्व को जानने वाला सर्वत्र पूज्य है।’ एतयर्चा विसंयुक्त: काले च क्रियया स्वया। ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां याति साधुषु॥ मनुस्मृति अ० २/८० प्रणव व्याहृतिपूर्वक गायत्री मन्त्र का जप सन्ध्याकाल में न करने वाला द्विज सज्जनों में निन्दा का पात्र होता है। एवं यस्तु विजानाति गायत्रीं ब्राह्मणस्तु स:। अन्यथा शूद्रधर्मा स्याद् वेदानामपि पारग:॥ यो० याज्ञ० ४/४१- ४२ ‘जो गायत्री को जानता है और जपता है, वह ब्राह्मण है; अन्यथा वेदों में पारंगत होने पर भी शूद्र के समान है।’ अज्ञात्वैतां तु गायत्रीं ब्राह्मण्यादेव हीयते। अपवादेन संयुक्तो भवेच्छ्रुतिनिदर्शनात्॥ -यो० याज्ञ० ४/७१ ‘गायत्री को न जानने से ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से हीन होकर पापयुक्त हो जाता है, ऐसा श्रुति में कहा गया है।’ किं वेदै: पठितै: सर्वै: सेतिहासपुराणकै:। सांगै: सावित्रिहीनेन न विप्रत्वमवाप्यते॥ बृ० पा० अ० ५/१४ ‘इतिहास, पुराणों के तथा समस्त वेदों के पढ़ लेने पर भी यदि ब्राह्मण गायत्री मन्त्र से हीन हो, तो वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त नहीं होता।’ न ब्राह्मणो वेदपाठान्न शास्त्र पठनादपि। देव्यास्त्रिकालमभ्यासाद् ब्राह्मण: स्याद् द्विजोऽन्यथा॥ बृ० सन्ध्या भाष्य वेद और शास्त्रों के पढऩे से ब्राह्मणत्व नहीं हो सकता।

तीनों कालों में गायत्री की उपासना से ब्राह्मणत्व होता है, अन्यथा वह द्विज नहीं रहता है। ओंकार पितृरूपेण गायत्रीं मातरं तथा। पितरौ यो न जानाति स विप्रस्त्वन्यरेतस:॥ ‘ओंकार को पिता और गायत्री को माता रूप से जो नहीं जानता, वह पुरुष अन्य की संतान है, अर्थात् व्यभिचार से उत्पन्न है।’ उपलभ्य च सावित्रीं नोपतिष्ठति यो द्विज:। काले त्रिकालं सप्ताहात् स पतेन् नात्र संशय:॥ ‘गायत्री मन्त्र को जानकर जो द्विज इसका आचरण नहीं करता, अर्थात् इसे त्रिकाल में नहीं जपता, उसका निश्चित पतन हो जाता है।’ अस्तु हर मनुष्य को आत्म- कल्याण एवं जन- कल्याण के उद्देश्य से गायत्री साधना करनी चाहिए। गायत्री साधना से सतोगुणी सिद्धियाँ प्राचीन इतिहास, पुराणों से पता चलता है कि पूर्व युगों में प्राय: ऋषि- महर्षि गायत्री के आधार पर योग साधना तथा तपश्चर्या करते थे। वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विश्वामित्र, व्यास, शुकदेव, दधीचि, वाल्मीकि, च्यवन, शङ्ख, लोमश, जाबालि, उद्दालक, वैशम्पायन, दुर्वासा, परशुराम, पुलस्त्य, दत्तात्रेय, अगस्त्य, सनतकुमार, कण्व, शौनक आदि ऋषियों के जीवन वृत्तान्तों से स्पष्ट है कि उनकी महान् सफलताओं का मूल हेतु गायत्री ही थी। थोड़े ही समय पूर्व ऐसे अनेक महात्मा हुए हैं, जिन्होंने गायत्री का आश्रय लेकर अपने आत्मबल एवं ब्रह्मतेज को प्रकाशवान् किया था। उनके इष्टदेव, आदर्श, सिद्धान्त भिन्न भले ही रहे हों, वेदमाता के प्रति सभी की अनन्य श्रद्धा थी। उन्होंने प्रारम्भिक स्तन पान इसी महाशक्ति का किया था, जिससे वे इतने प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष बन सके।

शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, नरसिंह मेहता, दादूदयाल, सन्त ज्ञानेश्वर, स्वामी रामानन्द, गोरखनाथ, मच्छीन्द्रनाथ, हरिदास, तुलसीदास, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, योगी अरविन्द, महर्षि रमण, गौराङ्ग महाप्रभु, स्वामी दयानन्द, महात्मा एकरसानन्द आदि अनेक महात्माओं का विकास गायत्री महाशक्ति के अञ्चल में ही हुआ था। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘माधव निदान’ के प्रणेता श्री माधवाचार्य ने आरम्भ में १३ वर्षों तक वृन्दावन में रहकर गायत्री अनुष्ठान किए थे। जब उन्हें कुछ भी सफलता न मिली, तो वे निराश होकर काशी चले गये और एक अवधूत की सलाह से भैरव की तान्त्रिक उपासना करने लगे। कुछ दिन में भैरव प्रसन्न हुए और पीठ पीछे से कहने लगे कि ‘वर माँग’। माधवाचार्यजी ने उनसे कहा- ‘आप सामने आइए और दर्शन दीजिए भैरव ने उत्तर दिया- ‘मैं गायत्री उपासक के सामने नहीं आ सकता।’ इस बात से माधवाचार्य जी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनने कहा- ‘यदि आप गायत्री उपासक के सम्मुख प्रकट नहीं हो सकते, तो मुझे वरदान क्या देंगे? कृपया अब आप केवल यह बता दीजिए कि मेरी अब तक की गायत्री साधना क्यों निष्फल हुई?’ भैरव ने उत्तर दिया- ‘तुम्हारे पूर्व जन्मों के पाप नाश करने में अब तक की साधना लग गई।

अब तुम्हारी आत्मा निष्पाप हो गई है। आगे की साधना करोगे तो सफल होगी।’ यह सुनकर माधवाचार्य फिर वृन्दावन आए और पुन: गायत्री साधना प्रारम्भ कर दी। अन्त में उन्हें माता के दर्शन हुए और पूर्ण सिद्धि प्राप्त हुई। श्री महात्मा देवगिरि जी के गुरु हिमालय की एक गुफा में गायत्री का जप करते थे। उनकी आयु ४०० वर्ष से अधिक थी। वे अपने आसन से उठकर भोजन, शयन, स्नान या मल- मूत्र त्यागने तक को कहीं नहीं जाते थे। इन कामों की उन्हें आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी। नगराई के पास रामटेकरी के घने जंगल में एक हरिहर नाम के महात्मा ने गायत्री तप करके सिद्धि पाई थी। महात्मा जी की कुटी के पास जाने में सात कोस का घना जंगल पड़ता था। उसमें सैकड़ों सिंह- व्याघ्र रहते थे। कोई व्यक्ति महात्मा जी के दर्शनों को जाता, तो उसे दो चार व्याघ्रों से भेंट अवश्य होती। ‘हरिहर बाबा के दर्शन को जा रहे हैं’ इतना कह देने मात्र से हिंसक पशु रास्ता छोड़कर चले जाते थे। लक्ष्मणगढ़ में विश्वनाथ गोस्वामी नामक एक प्रसिद्ध गायत्री उपासक हुए हैं। उनके जीवन का अधिकांश भाग गायत्री उपासना में ही व्यतीत हुआ है।

उनके आशीर्वाद से सीकर का एक वीदावत परिवार गरीबी से छुटकारा पाकर बड़ा ही समृद्धिशाली एवं सम्पन्न बना। इस परिवार के लोग अब तक उन पण्डित जी की समाधि पर अपने बच्चों का मुण्डन कराते हैं। जयपुर रियासत के जौन नामक गाँव में पं. हरराय नामक नैष्ठिक गायत्री उपासक रहते थे। उनको अपनी मृत्यु का पहले से ही पता चल गया था। उनने सब परिजनों को बुलाकर धार्मिक उपदेश दिए और बोलते, बातचीत करते तथा गायत्री मन्त्र उच्चारण करते हुए प्राण त्याग दिए। जूनागढ़ के एक विद्वान् पं. मणिशंकर भट्ट पहले यजमानों के लिए गायत्री अनुष्ठान दक्षिणा लेकर करते थे। जब इससे अनेकों को भारी लाभ होते देखा, तो उन्होंने दूसरों के अनुष्ठान छोड़ दिए और अपना सारा जीवन गायत्री उपासना में लगा दिया। उनका शेष जीवन बहुत ही शान्ति से बीता। जयपुर के बूढ़ा देवल ग्राम में विष्णुदासजी का जन्म हुआ। वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे। उन्होंने पुष्कर में एक कुटी बनाकर गायत्री की घोर तपस्या की थी, फल स्वरूप उन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो गयी थीं। बड़े- बड़े राजा उनकी कुटी की धूल मस्तक पर रखने लगे। जयपुर और जोधपुर के महाराजा अनेक बार उनकी कुटी पर उपस्थित हुए। महाराणा उदयपुर तो अत्यन्त आग्रह करके उन्हें अपनी राजधानी में ले आए और उनके पुरश्चरण की शाही तैयारी के साथ अपने यहाँ पूर्णाहुति कराई। ब्रह्मचारीजी के सम्बन्ध में अनेक चमत्कारी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। खातौली से ७ मील दूर धौकलेश्वर में मगनानन्द नामक एक गायत्री सिद्ध महापुरुष रहते थे। उनके आशीर्वाद से खातौली के ठिकानेदार को उनकी छीनी हुई जागीर वापिस मिल गयी। रतनगढ़ के पं. भूदरमल नामक एक विद्वान् ब्राह्मण गायत्री के अनन्य उपासक हुए हैं। वे सम्वत् १९६६ में काशी आ गए थे और अन्त तक वहीं रहे।

अपनी मृत्यु की पूर्व जानकारी होने से उनने विशाल धार्मिक आयोजन किया था और साधना करते हुए आषाढ़ सुदी ५ को शरीर त्याग किया। उनका आशीर्वाद पाने वाले बहुत से सामान्य मनुष्य आज भी लखपति बने हुए हैं। अलवर राज्य के अन्तर्गत एक ग्राम के सामान्य परिवार में पैदा हुए एक सज्जन को किसी कारणवश वैराग्य हो गया। वे मथुरा आए और एक टीले पर रहकर साधना करने लगे। एक करोड़ गायत्री जप करने के अनन्तर उन्हें गायत्री का साक्षात्कार हुआ और वे सिद्ध हो गए। वह स्थान गायत्री टीले के नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ एक छोटा सा मन्दिर है, जिसमें गायत्री की सुन्दर मूर्ति स्थापित है। उनका नाम बूटी सिद्ध था। सदा मौन रहते थे। उनके आशीर्वाद से अनेकों का कल्याण हुआ। धौलपुर अलवर के राजा उनके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। आर्य समाज के संस्थापक श्री स्वामी दयानन्दजी के गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने बड़ी तपश्चर्यापूर्वक गंगा तीर पर रहकर तीन वर्ष तक जप किया था। इस अन्धे संन्यासी ने अपने तपोबल से अगाध विद्या और अलौकिक ब्रह्मतेज प्राप्त किया था। मान्धाता ओंकारेश्वर मन्दिर के पीछे गुफा में एक महात्मा गायत्री जप करते थे। मृत्यु के समय उनके परिवार के व्यक्ति उपस्थित थे। परिवार के एक बालक ने प्रार्थना की कि ‘मेरी बुद्धि मन्द है, मुझे विद्या नहीं आती, कुछ आशीर्वाद दे जाइए जिससे मेरा दोष दूर हो जाए।’ महात्मा जी ने बालक को समीप बुलाकर उसकी जीभ पर कमण्डल से थोड़ा- सा जल डाला और आशीर्वाद दिया कि ‘तू पूर्ण विद्वान् हो जाएगा।’ आगे चलकर यह बालक असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् हुआ और इन्दौर में ओंकार जोशी के नाम से प्रसिद्धि पायी। इन्दौर नरेश उनसे इतने प्रभावित थे कि सबेरे घूमने जाते समय उनके घर से उन्हें साथ ले जाते थे।

चन्देल क्षेत्र निवासी गुप्त योगेश्वर श्री उद्धडज़ी जोशी एक सिद्ध पुरुष हो गये। गायत्री उपासना के फलस्वरूप उनकी कुण्डलिनी जाग्रत् हुई और वे परम सिद्ध बन गए। उनकी कृपा से कई मनुष्यों के प्राण बचे थे, कई को धन प्राप्त हुआ था, कई आपत्तियों से छूटे थे। उनकी भविष्यवाणियाँ सदा सत्य होती थीं। एक व्यक्ति ने उनकी परीक्षा करने तथा उपहास करने का दुस्साहस किया तो वह कोढ़ी हो गया। बड़ौदा के पास जम्बुसर के निवासी श्री मुकुटराम जी महाराज गायत्री उपासना में परम सिद्धि प्राप्त कर ली हैं। प्राय: आठ घण्टे नित्य जप करते थे। उन्हें अनेकों सिद्धियाँ प्राप्त थीं। दूर देशों के समाचार वे ऐसे सच्चे बताते थे मानो सब हाल आँखों से देख रहे हों। पीछे परीक्षा करने पर वे समाचार सोलह आने सच निकलते। उन्होंने गुजराती की एक दो- कक्षा तक पढऩे की स्कूली शिक्षा पाई थी, तो भी वे संसार की सभी भाषाओं को भली प्रकार बोल और समझ लेते थे। विदेशी लोग उनके पास आकर अपनी भाषा में घण्टों तक वार्तालाप करते थे। योग, ज्योतिष, वैद्यक, तन्त्र तथा धर्म शास्त्र का उन्हें पूरा- पूरा ज्ञान था। बड़े- बड़े पण्डित उनसे अपनी गुत्थियाँ सुलझवाने आते थे। उन्होंने कितनी ही ऐसी करामातें दिखाई थीं, जिनके कारण लोगों की उन पर अटूट श्रद्धा हो गई थी। बरसोड़ा में एक ऋषिराज ने सात वर्ष तक निराहार रहकर गायत्री पुरश्चरण किए थे। उनकी वाणी सिद्ध थी। जो कह देते थे, वही होता था। मासिक कल्याण पत्रिका के सन्त अंक में हरेराम नामक एक ब्रह्मचारी का जिक्र छपा है। यह ब्रह्मचारी गंगाजी के भीतर उठी हुई एक टेकरी पर रहते थे और गायत्री जी की आराधना करते थे।

उनका ब्रह्मतेज अवर्णनीय था। सारा शरीर तेज से दमकता था। उन्होंने अपनी सिद्धियों से अनेकों के दु:ख दूर किए थे। देव प्रयाग के विष्णुदत्त जी वानप्रस्थी ने चान्द्रायण व्रतों के साथ सवा लक्ष जप के सात अनुष्ठान किये थे। इससे उनका आत्मबल बहुत बढ़ गया था। उन्हें कितनी ही सिद्धियाँ मिल गयी थीं। लोगों को जब पता चला, तो अपने कार्य सिद्ध कराने के लिए उनके पास दूर- दूर से भी आने लगे। वानप्रस्थी जी इस खेल में उलझ गये। रोज- रोज बहुत खर्च करने से उनका शक्ति भण्डार चुक गया। पीछे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ और फिर मृत्युकाल तक एकान्त साधना करते रहे। रुद्र प्रयाग के स्वामी निर्मलानन्द संन्यासी को गायत्री साधना से भगवती के दिव्य दर्शन और ईश्वर साक्षात्कार का लाभ प्राप्त हुआ था। इससे उन्हें असीम तृप्ति हुई। बिठूर के पास खाँडेराव नामक एक वयोवृद्ध तपस्वी एक विशाल खिरनी के पेड़ के नीचे गायत्री साधना करते थे। एक बार उन्होंने विराट् गायत्री यज्ञ का ब्रह्मभोज किया। दिन भर हजारों आदमियों की पंगतें होती रहीं। रात नौ बजे भोजन समाप्त हो गया। भोजन अभी कई हजार आदमियों का होना शेष था। खाँडेरावजी को सूचना दी गयी तो उन्होंने आज्ञा दी, गङ्गा जी में से चार कनस्तर पानी भरकर लाओ और उसमें पूडिय़ाँ सिकने दो। ऐसा ही किया गया। पूडिय़ाँ घी के समान स्वादिष्ट थीं। दूसरे दिन चार कनस्तर घी मँगवाकर गंगाजी में डलवा दिया। काशी में जिस समय बाबू शिवप्रसाद जी गुप्त द्वारा ‘भारत माता मन्दिर’ का शिलारोपण समारोह किया गया था, उस समय २०० दिन तक का एक बड़ा महायज्ञ किया गया, जिसमें विद्वानों द्वारा २० लाख गायत्री जप किया गया। यज्ञ की पूर्णाहुति के दिन पास में लगे पेड़ों के सूखे पत्ते फिर से हरे हो गये थे और एक पेड़ में तो असमय ही फल भी आ गए थे।

 इस अवसर पर पं. मदनमोहन मालवीय, राजा मोतीचन्द्र, हाई कोर्ट के जज श्री कन्हैयालाल और अन्य अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे, जिन्होंने यह घटना अपनी आँखों से देखी और गायत्री के प्रभाव को स्वयं अनुभव किया। गढ़वाल के महात्मा गोविन्दानन्द अत्यन्त विषधर साँपों के काटे हुए रोगियों की प्राण रक्षा करने के लिए प्रसिद्ध थे। उनका कहना था कि मैं गायत्री जप से ही सब रोगियों को ठीक करता हूँ। इसी प्रकार समस्तीपुर के एक सम्पन्न व्यक्ति शोभान साहू भी गायत्री मन्त्र से अत्यन्त जहरीले बिच्छुओं और पागल कुत्ते के काटे तक को चंगा कर देते थे। अनेक सात्त्विक साधक केवल गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित जल द्वारा बड़े- बड़े रोगों को दूर कर देते हैं। स्वर्गीय पण्डित मोतीलालजी नेहरू का जीवन उस समय के वातावरण के कारण यद्यपि एक भिन्न कर्तव्य क्षेत्र में व्यतीत हुआ था, पर जीवन के अन्तिम समय में उनको गायत्री का ध्यान आया और उसे जपते हुए ही उन्होंने जीवन लीला समाप्त की। इससे विदित होता है कि गायत्री का संस्कार शीघ्र ही समाप्त नहीं होता, वरन् आगामी पीढिय़ों तक भी प्रभाव डालता रहता है।

पण्डितजी के पूर्वज धार्मिक प्रवृत्ति के गायत्री उपासक थे। उसी के प्रभाव से उनको भी मृत्युकाल जैसे महत्त्व के अवसर पर उसका ध्यान आ गया। अहमदाबाद के श्री डाह्यभाई रामचन्द्र मेहता गायत्री के श्रद्धालु उपासक और प्रचारक हैं। इनकी आयु ८० वर्ष है। शरीर और मन में सतोगुण की अधिकता होने से वह सभी गुण उनमें परिलक्षित होते हैं, जो महात्माओं में पाए जाते हैं। दीनवा के स्वामी मनोहर दासजी ने गायत्री के कई पुरश्चरण किए हैं। उनका कहना है कि इस महासाधना से मुझे इतना अधिक लाभ हुआ है कि उसे प्रकट करने की उसी प्रकार इच्छा नहीं होती, जैसे कि लोभी को अपना धन प्रकट करने में संकोच होता है। हटा के श्री रमेशचन्द्र दुबे को गायत्री साधना के कारण कई बार बड़े अनुभव हुए हैं, जिनके कारण उनकी निष्ठा में वृद्धि हुई है। पाटन के श्री जटाशंकर नन्दी की आयु ७७ वर्ष से अधिक है। वे गत पचास वर्षों से गायत्री उपासना कर रहे हैं। कुविचारों और कुसंस्कारों से मुक्ति एवं दैवी तत्त्वों की अधिकता का लाभ उन्होंने प्राप्त किया है और उसे वे जीवन की प्रधान सफलता मानते हैं। वृन्दावन के काठिया बाबा, उडिय़ा बाबा, प्रज्ञाचक्षु स्वामी गंगेश्वरानन्द जी गायत्री उपासना से आरम्भ करके अपनी साधना को आगे बढ़ाने में समर्थ हुए थे। वैष्णव सम्प्रदाय के प्राय: सभी आचार्य गायत्री की साधना पर विशेष जोर देते हैं। नवाबगंज के पण्डित बलभद्र जी ब्रह्मचारी, सहारनपुर जिले के श्रीस्वामी देवदर्शनजी, बुलन्दशहर, उ० प्र० के परिव्राजक महात्मा योगानन्दजी, ब्रह्मनिष्ठ श्री स्वामी ब्रह्मर्षिदासजी उदासीन, बिहार प्रान्त के महात्मा अनासक्तजी, यज्ञाचार्य पं. जगन्नाथ शास्त्री, राजगढ़ के महात्मा हरि ऊँ तत् सत् आदि कितने ही सन्त महात्मा गायत्री उपासना में पूर्ण मनोयोग के साथ संलग्न रहे हैं। अनेक गृहस्थ भी तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए महान् साधना में प्रवृत्त हैं।

इस मार्ग पर चलते हुए उन्हें महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक सफलताएँ प्राप्त हो रही हैं। हमने स्वयं अपने जीवन के आरम्भ काल में ही गायत्री की उपासना की है और वह हमारा जीवन आधार ही बन गयी है। दोषों, विकारों, कषाय- कल्मषों, कुविचार और कुसंस्कारों को हटा देने में जो थोड़ी- सी सफलता मिली है, यह श्रेय इसी साधना को है। ब्राह्मणत्व की ब्राह्मी भावनाओं की, धर्मपरायणता की, सेवा, स्वाध्याय, संयम और तपश्चर्या की जो यत्किञ्चित् प्रवृत्तियाँ हैं, वे माता की कृपा के कारण ही हैं। अनेक बार विपत्तियों से उसने बचाया है और अन्धकार में मार्ग दिखाया है। आपबीती इन घटनाओं का वर्णन बहुत विस्तृत है, जिसके कारण हमारी श्रद्धा दिन- दिन माता के चरणों में बढ़ती चली आयी है। इन वर्णनों के लिए इन पंक्तियों में स्थान नहीं है। हमारे प्रयत्न और प्रोत्साहन से जिन सज्जनों ने वेदमाता की उपासना की है, उनमें आत्मशुद्धि, पापों से घृणा, सन्मार्ग में श्रद्धा, सतोगुण की वृद्धि, संयम, पवित्रता, आस्तिकता, जागरूकता एवं धर्मपरायणता की प्रवृत्तियों को बढ़ते हुए पाया है। उन्हें अन्य प्रारम्भिक लाभ चाहे हुए हों या न हुए हों, पर आत्मिक लाभ हर एक को निश्चित रूप से हुए हैं। विवेकपूर्वक विचार किया जाय, तो यह लाभ इतने महान हैं कि इनके ऊपर धन- सम्पत्ति की छोटी- मोटी सफलताओं को न्योछावर करके फेंका जा सकता है। इसलिए हम अपने पाठकों से आग्रहपूर्वक अनुरोध करेंगे कि वे गायत्री की उपासना करके उसके द्वारा होने वाले लाभों का चमत्कार देखें। जो वेदमाता की शरण ग्रहण करते हैं, अन्तःकरण में सतोगुण, विवेक, सद्विचार और सत्कर्मों की ओर उनकी असाधारण प्रवृत्ति जाग्रत् होती है। यह आत्म- जागरण लौकिक और पारलौकिक, सांसारिक और आत्मिक सभी प्रकार की सफलताओं का दाता है।
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