मोटे तौर से आसनों को शारीरिक व्यायाम में ही गिना जाता है। उनसे वे लाभ मिलते हैं, जो व्यायाम द्वारा मिलने चाहिए। साधारण कसरतों से जिन भीतर के अंगों का व्यायाम नहीं हो पाता, उनका आसनों द्वारा हो जाता है।
ऋषियों ने आसनों का योग साधना में इसलिए प्रमुख स्थान दिया है कि ये स्वास्थ्य रक्षा के लिए अतीव उपयोगी होने के अतिरिक्त मर्म स्थानों में रहने वाली ‘हव्य- वहा’ और ‘कव्य- वहा’ तड़ित शक्ति को क्रियाशील रखते हैं। मर्मस्थल वे हैं जो अतीव कोमल हैं और प्रकृति ने उन्हें इतना सुरक्षित बनाया है कि साधारणतः उन तक बाह्य प्रभाव नहीं पहुँचता। आसनों से इनकी रक्षा होती है। इन मर्मों की सुरक्षा में यदि किसी प्रकार की बाधा पड़ जाए तो जीवन संकट में पड़ सकता है। ऐसे मर्म स्थान उदर और छाती के भीतर विशेष हैं। कण्ठ- कूप, स्कन्ध- पुच्छ, मेरुदण्ड और ब्रह्मरन्ध्र से सम्बन्धित ३६ मर्म हैं। इनमें कोई आघात लग जाए, रोग विशेष के कारण विकृति आ जाए, रक्ताभिसरण रुक जाए और विष- बालुका जमा हो जाए तो देह भीतर ही भीतर घुलने लगती है। बाहर से कोई प्रत्यक्ष या विशेष रोग दिखाई नहीं पड़ता, पर भीतर- भीतर देह खोखली हो जाती है। नाड़ी में ज्वर नहीं होता, पर मुँह का कडुआपन, शरीर में रोमाञ्च, भारीपन, उदासी, हड़फूटन, शिर में हलका- सा दर्द, प्यास आदि भीतरी ज्वर जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं। वैद्य, डॉक्टर कुछ समझ नहीं पाते, दवा- दारू देते हैं, पर कुछ विशेष लाभ नहीं होता।
मर्मों में चोट पहुँचने से आकस्मिक मृत्यु हो सकती है। तान्त्रिक अभिचारी जब मारण प्रयोग करते हैं, तो उनका आक्रमण इन मर्मस्थलों पर ही होता है। हानि, शोक, अपमान आदि की कोई मानसिक चोट लगे तो मर्मस्थल क्षत- विक्षत हो जाते हैं और उस व्यक्ति के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। मर्म अशक्त हो जाएँ तो गठिया, गंज, श्वेतकण्ठ, पथरी, गुर्दे की शिथिलता, खुश्की, बवासीर जैसे न ठीक होने वाले रोग उपज पड़ते हैं।
शिर और धड़ में रहने वाले मर्मों में ‘हव्य- वहा’ नामक धन (पोजेटिव) विद्युत् का निवास और हाथ- पैरों में ‘कव्य- वहा’ ऋण (नेगेटिव) विद्युत् की विशेषता है। दोनों का सन्तुलन बिगड़ जाए तो लकवा, अर्द्धाङ्ग, सन्धिवात जैसे उपद्रव खड़े होते हैं।
कई बार मोटे- तगड़े, स्वस्थ दिखाई पड़ने वाले मनुष्य भी ऐसे मन्द रोगों से ग्रसित हो जाते हैं, जो उनकी शारीरिक अच्छी स्थिति को देखते हुए न होने चाहिए थे। इन मार्मिक रोगों का कारण मर्म स्थानों की गड़बड़ी है। कारण यह है कि साधारण परिश्रम या कसरतों द्वारा इन मर्म स्थानों का व्यायाम नहीं हो पाता। औषधियों की वहाँ तक पहुँच नहीं होती। शल्यक्रिया या सूची- भेद (इञ्जेक्शन) भी उनको प्रभावित करने में समर्थ नहीं होते। उस विकट गुत्थी को सुलझाने में केवल ‘योग- आसन’ ही ऐसे तीक्ष्ण अस्त्र हैं, जो मर्म शोधन में अपना चमत्कार दिखाते हैं।
ऋषियों ने देखा कि अच्छा आहार- विहार रखते हुए भी, विश्राम- व्यायाम की व्यवस्था रखते हुए भी कई बार अज्ञात सूक्ष्म कारणों से मर्मस्थल विकृत हो जाते हैं और उनमें रहने वाली ‘हव्य- वहा’ ‘कव्य- वहा’ तड़ित शक्ति का सन्तुलन बिगड़ जाने से बीमारी तथा कमजोरी आ घेरती है, जिससे योग साधना में बाधा पड़ती है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए उन्होंने अपने दीर्घकालीन अनुसन्धान और अनुभव द्वारा ‘आसन- क्रिया’ का आविष्कार किया।
आसनों का सीधा प्रभाव हमारे मर्मस्थलों पर पड़ता है। प्रधान नस- नाड़ियों और मांसपेशियों के अतिरिक्त सूक्ष्म कशेरुकाओं का भी आसनों द्वारा ऐसा आकुंचन- प्रकुंचन होता है कि उनमें जमे हुए विकार हट जाते हैं तथा नित्य सफाई होती रहने से नए विकार जमा नहीं होते। मर्मस्थलों की शुद्धि, स्थिरता एवं परिपुष्टि के लिए आसनों को अपने ढंग का सर्वोत्तम उपचार कहा जा सकता है।
आसन अनेक हैं, उनमें से ८४ प्रधान हैं। उन सबकी विधि- व्यवस्था और उपयोगिता वर्णन करने का यहाँ अवसर नहीं है। सर्वाङ्गपूर्ण आसन विद्या की शिक्षा यहाँ नहीं दी जा सकती। इस विषय पर हमारी ‘बलवर्द्धक आसन- व्यायाम’ पुस्तक देखनी चाहिए। आज तो हमें गायत्री की योग साधना करने के इच्छुकों को ऐसे सुलभ आसन बताना पर्याप्त होगा जो साधारणतः उसके सभी मर्मस्थलों की सुरक्षा में सहायक हों।
आठ आसन ऐसे हैं जो सभी मर्मों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं। उनमें से जो चार या अधिक अपने लिए सुविधाजनक हों, उन्हें भोजन से पूर्व कर लेना चाहिए। इनकी उपयोगिता एवं सरलता अन्य आसनों से अधिक है। आसन, उपासना के पश्चात् ही करना चाहिए, जिससे रक्त की गति तीव्र हो जाने से उत्पन्न हुई चित्त की चञ्चलता ध्यान में बाधक न हो।
हाथ और पैरों को मजबूत बनाने वाले चार उपयोगी आसन
ये चारों हैं—सर्वाङ्गासन, बद्ध पद्मासन, पाद- हस्तासन, उत्कटासन। इन आसनों को नित्य करने से हाथ- पाँवों की नसें तथा मांसपेशियाँ मजबूत होती हैं एवं उनकी शक्ति बढ़ती है।
सर्वाङ्गासन—आसन पर चित्त लेट जाइए और शरीर को बिलकुल सीधा कर दीजिए। हाथों को जमीन से ऐसा मिला रखिए कि हथेलियाँ जमीन से चिपकी रहें। अब घुटने सीधे कड़े करके दोनों पैर मिले हुए ऊपर को उठाइए और सीधा खड़े करके रोके रखिए। ध्यान रहे, पैर मुड़ने न पावें, बल्कि सीधे तने हुए रहें। हाथ चाहे जमीन पर रखिए, चाहे सहारे के लिए कमर से लगा दीजिए। ठोढ़ी कण्ठ के सहारे से चिपकी रहनी चाहिए।
(सर्वाङ्गासन का चित्र)
बद्ध पद्मासन—पालथी मार कर आसन पर बैठिए। अब दाहिना पैर को बाएँ जंघा के ऊपर एवं बायाँ पैर को दाहिने जंघा के ऊपर आहिस्ता से रखिए। फिर पीठ के पीछे से दाहिना हाथ ले जाकर दाहिने पैर का अँगूठा पकड़िए और बायाँ हाथ उसी तरह ले जाकर बाएँ पैर का अँगूठा पकड़िए। पीठ को तान दीजिए और दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर जमाइए। ठोढ़ी को कण्ठ के मूल में गड़ाए रखिए। बहुतों के पैर आरम्भ में एक दूसरे के ऊपर नहीं चढ़ते। हाथ भी शुरू में ही पीठ के पीछे घूमकर अँगूठा नहीं पकड़ सकते। इसका कारण उनकी इन नसों का शुद्ध और पूरे फैलाव में न होना है। इसलिए जब तक आसन लगकर दोनों पैरों के अँगूठे पकड़े न जा सकें, तब तक बारी- बारी से एक ही पैर का अँगूठा पकड़कर अभ्यास बढ़ाना चाहिए।
(बद्ध पद्मासन का चित्र)
पाद- हस्तासन—सीधे खड़े हो जाइए, फिर धीरे- धीरे हाथों को नीचे ले जाकर हाथ से पैरों के दोनों अँगूठों को पकड़िए। पैर आपस में मिले और बिलकुल सीधे रहें, घुटने- मुड़ने न पावें। इसके बाद शिर दोनों हाथों के बीच से भीतर की ओर ले जाकर नाक सीधा घुटनों से मिलाइए। दाहिने हाथ से बाएँ पैर और बाएँ हाथ से दाहिने पैर का अँगूठा पकड़ करके भी यह किया जाता है। इस आसन को करते समय पेट को भीतर की ओर खूब जोर से खींचना चाहिए।
(पाद- हस्तासन का चित्र)
उत्कटासन—सीधे खड़े हो जाइए। दोनों पैर, घुटने, एड़ी और पंजे आपस में मिले रहने चाहिए। दोनों हाथ कमर पर रहें अथवा सम्मुख की ओर सीधे फैले रहें। पेट को कुछ भीतर की तरफ खींचिए और घुटनों को मोड़ते हुए शरीर सीधा रखते हुए उसे धीरे- धीरे पीछे की ओर झुकाइए और उस तरह हो जाइए जैसे कुर्सी पर बैठे हों। जब कमर झुककर घुटनों के सामने हो जाए तो उसी दशा में स्थिर हो जाना चाहिए।
इसका अभ्यास हो जाने पर एड़ियों को भी जमीन से उठा दीजिए और केवल पंजों के बल स्थिर होइए। उसका भी अभ्यास हो जाए तो घुटनों को खोलिए और उन्हें काफी फैला दीजिए। ध्यान रहे, घुटनों को इस प्रकार रखिए कि दोनों हाथों की उँगलियाँ घुटनों के बाहर जमीन को छूती रहें।
(उत्कटासन का चित्र)
पीठ और पेट को मजबूत बनाने वाले
चार प्रभावशाली आसन
इनके नाम हैं- पश्चिमोत्तानासन, सर्पासन, धनुरासन, मयूरासन। इन आसनों का अभ्यास करते रहने से रीढ़, पसलियाँ, फेफड़े, हृदय, आमाशय, आँतों और जिगर की दुर्बलता दूर होती है।
पश्चिमोत्तानासन—बैठकर पैरों को लम्बा फैला दीजिए। दोनों पैर मिले रहें, घुटने मुड़े न हों, बिलकुल सीधे रहें, टाँगें जमीन से लगी रहें। इसके बाद टाँगों की ओर झुककर दोनों हाथों से पैरों के दोनों अँगूठों को पकड़िए। ध्यान रहे कि पैर जमीन से जरा भी न उठने पाएँ। पैरों के अँगूठे पकड़कर सिर दोनों घुटनों के बीच में करके यह प्रयत्न करना चाहिए कि सिर घुटनों पर या उनके भी आगे रखा जा सके। यदि बन सके तो हाथ की कोहनियों को जमीन से छुआना चाहिए। शुरू में पैर फैलाकर और घुटने सीधे रखकर कमर आगे झुकाकर अँगूठे पकड़ने का प्रयत्न करना चाहिए और धीरे- धीरे पकड़ने लग जाने पर सिर घुटनों पर रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
(पश्चिमोत्तानासन का चित्र)
सर्पासन—पेट के बल आसन पर लेट जाइए। फिर दोनों हाथों के पंजे जमीन पर टेककर हाथ खड़े कर दीजिए। पंजे नाभि के पास रहें। शरीर पूरी तरह जमीन से चिपटा हो, मूल घुटने यहाँ तक कि पैर के पंजों की पीठ तक जमीन से पूरी तरह चिपकी हो। अब क्रमशः शिर, गरदन, गला, छाती और पेट को धीरे- धीरे जमीन से उठाते जाइए और जितना तान सकें तान दीजिए। दृष्टि सामने रहे। शरीर साँप के फन की तरह तना खड़ा रहे, नाभि के पास तक शरीर जमीन से उठा रहना चाहिए।
(सर्पासन का चित्र)
धनुरासन—आसन पर नीचे मुँह करके लेट जाइए। फिर दोनों पैरों को घुटनों से मोड़कर पीछे की तरफ ले जाइए और हाथ भी पीछे ले जाकर दोनों पैरों को पकड़ लीजिए। अब धीरे- धीरे सिर और छाती को ऊपर उठाइए, साथ ही हाथों को भी ऊपर की ओर खींचते हुए पैरों को ऊपर की ओर तानिए। आगे- पीछे शरीर इतना उठा दीजिए कि केवल पेट और पेडू जमीन से लगे रह जाएँ। शरीर का बाकी तमाम हिस्सा उठ जाए और शरीर खिंचकर धनुष के आकार का हो जाए। पैर, सिर और छाती के तनाव में टेढ़ापन आ जाए, दृष्टि सामने रहे और सीना निकलता हुआ मालूम हो।
(धनुरासन का चित्र)
मयूरासन—घुटनों के सहारे आसन पर बैठ जाइए और फिर दोनों हाथ जमीन पर साधारण अन्तर से ऐसे रखिए कि पंजे पीछे भीतर की ओर रहें। अब दोनों पैरों को पीछे ले जाकर पंजों के बल होइए और हाथों की दोनों कोहनियाँ नाभि के दोनों तरफ लगाकर छाती और शिर को आगे दबाते हुए पैरों को जमीन से ऊपर उठाने का प्रयत्न कीजिए। जब पैर जमीन से उठकर कोहनियों के समानान्तर आ जाएँ तो सिर और छाती को भी सीधा कर दीजिए। सारा शरीर हाथों की कोहनियों पर सीधा आकर तुल जाना चाहिए।
(मयूरासन का चित्र)
ये आठ आसन ऐसे हैं, जो अधिक कष्टसाध्य न होते हुए भी मर्मों और सन्धियों पर प्रभाव डालने वाले हैं। शास्त्रों में इनकी विशेष प्रशंसा है।
इन सबके द्वारा जो लाभ होते हैं, उसका सम्मिलित लाभ सूर्य नमस्कार से होता है। यह एक ही आसन कई आसनों के मिश्रण से बना है। इसका परस्पर ऐसा क्रमवत् तारतम्य है कि अलग- अलग आसनों की अपेक्षा यह एक ही आसन अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है। हम गायत्री साधकों को बहुधा सूर्य- नमस्कार करने की ही सलाह देते हैं। हमारे अनुभव में सूर्य नमस्कार के लाभ अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं, किन्तु जो कर सकते हों, वे उपरोक्त आठ आसनों को भी करें, बड़े लाभदायक हैं।
सूर्य- नमस्कार की विधि
प्रातःकाल सूर्योदय समय के आस- पास इन आसनों को करने के लिए खड़े होइए। यदि अधिक सर्दी- गर्मी या हवा हो तो हलका कपड़ा शरीर पर पहने रहिए, अन्यथा लँगोट या नेकर के अतिरिक्त सब कपड़े उतार दीजिए। खुली हवा में, स्वच्छ खुली खिड़कियों वाले कमरे में कमर सीधी रखकर खड़े होइए।
मुख पूर्व की ओर कर लीजिए। नेत्र बन्द करके हाथ जोड़कर भगवान् सूर्य नारायण का ध्यान कीजिए और भावना कीजिए कि सूर्य की तेजस्वी आरोग्यमयी किरणें आपके शरीर में चारों ओर से प्रवेश कर रही हैं। अब निम्न प्रकार आरम्भ कीजिए—
(१) पैरों को सीधा रखिए। कमर पर से नीचे की ओर झुकिए, दोनों हाथों को जमीन पर लगाइए, मस्तक घुटनों से लगे।
यह ‘पाद- हस्तासन’ है। इससे टखनों का, टाँग के नीचे के भागों का, जंघा का, पुट्ठों का, पसलियों का, कन्धों के पृष्ठ भाग तथा बाँहों के नीचे के भाग का व्यायाम होता है।
(२) सिर को घुटनों से हटाकर लम्बी साँस लीजिए। पहले दाहिने पैर को पीछे ले जाइए और पंजे को लगाइए। बाएँ पैर को आगे की ओर मुड़ा रखिए। दोनों हथेलियाँ जमीन से लगी रहें। निगाह सामने और सिर कुछ ऊँचा रहे।
इसे ‘एक पादप्रसारणासन’ कहते हैं। इससे जाँघों के दोनों भागों का तथा बाएँ पेडू का व्यायाम होता है।
(३) बाएँ पैर को पीछे ले जाइए। उसे दाहिने पैर से सटाकर रखिए। कमर को ऊँचा उठा दीजिए। सिर और सीना कुछ नीचे झुक जाएगा।
यह ‘द्विपादप्रसारणासन’ है। इससे हथेलियों की सब नसों का, भुजाओं का, पैरों की उँगलियों और पिण्डलियों का व्यायाम होता है।
(४) दोनों पाँवों के घुटने, दोनों हाथ, छाती तथा मस्तक, इन सब अंगों को सीधा रखकर भूमि में स्पर्श कराइए। शरीर तना रहे, कहीं लेटने की तरह निश्चेष्ट न हो जाइए। पेट जमीन को न छुए।
इसे ‘अष्टाङ्ग प्रणिपातासन’ कहते हैं। इससे बाँहों, पसलियों, पेट, गरदन, कन्धे तथा भुजदण्डों का व्यायाम होता है।
(५) हाथों को सीधा खड़ा कर दीजिए। सीना ऊपर उठाइए। कमर को जमीन की ओर झुकाइए, सिर ऊँचा कर दीजिए, आकाश को देखिए। घुटने जमीन पर न टिकने पाएँ। पंजे और हाथों पर शरीर सीधा रहे। कमर जितनी मुड़ सके मोड़िए ताकि धड़ ऊपर को अधिक उठ सके।
यह ‘सर्पासन’ है। इससे जिगर का, आँतों का तथा कण्ठ का अच्छा व्यायाम होता है।
(६) हाथ और पैर के पूरे तलुए जमीन से स्पर्श कराइए। घुटने और कोहनियों के टखने झुकने न पाएँ। कमर को जितना हो सके ऊपर उठा दीजिए। ठोढ़ी कण्ठमूल में लगी रहे, सिर नीचे रखिए।
यह ‘मयूरासन’ है। इससे गरदन, पीठ, कमर, कूल्हे, पिण्डली, पैर तथा भुजदण्डों की कसरत होती है।
(७) यहाँ से अब पहली की हुई क्रियाओं पर वापस जाया जाएगा। दाहिने पैर को पीछे ले जाइए, पूर्वोक्त नं. २ के अनुसार ‘एक पादप्रसारणासन’ कीजिए।
(८) पूर्वोक्त नं. १ की तरह ‘पादहस्तासन’ कीजिए।
(९) सीधे खड़े हो जाइए। दोनों हाथों को आकाश की ओर ले जाकर हाथ जोड़िए। सीने को जितना पीछे ले जा सकें ले जाइए। हाथ जितने पीछे ले जा सकें ठीक है, पर मुड़ने न पायें। यह ‘ऊर्ध्वनमस्कारासन’ है। इससे फेफड़ों और हृदय का अच्छा व्यायाम होता है।
(१०) अब उसी आरम्भिक स्थिति पर आ जाइए, सीधे खड़े होकर हाथ जोड़िए और भगवान् सूर्यनारायण का ध्यान कीजिए।
यह एक सूर्य नमस्कार हुआ। आरम्भ पाँच से करके सुविधानुसार थोड़ी- थोड़ी संख्या धीरे- धीरे बढ़ाते जाना चाहिए। व्यायाम काल में मुँह बन्द रखना चाहिए। साँस नाक से ही लेनी चाहिए।