गायत्री महाविज्ञान

आनन्दमय कोश की साधना

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गायत्री का पाँचवाँ मुख आनन्दमय कोश है। जिस आवरण में पहुँचने पर आत्मा को आनन्द मिलता है, जहाँ उसे शान्ति, सुविधा, स्थिरता, निश्चिन्तता एवं अनुकूलता की स्थिति प्राप्त होती है, वही आनन्दमय कोश है। गीता के दूसरे अध्याय में ‘स्थितप्रज्ञ’ की जो परिभाषा की गई है और ‘समाधिस्थ’ के जो लक्षण बताए गए हैं, वे ही गुण, कर्म, स्वभाव आनन्दमयी स्थिति में हो जाते हैं। आत्मिक परमार्थों की साधना में मनोयोगपूर्वक संलग्न होने के कारण सांसारिक आवश्यकताएँ बहुत सीमित रह जाती हैं। उनकी पूर्ति में इसलिए बाधा नहीं आती कि साधक अपनी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुओं को उचित मात्रा में आसानी से कमा सकता है।

प्रकृति के परिवर्तन, विश्वव्यापी उतार-चढ़ाव, कर्मों की गहन गति, प्रारब्ध भोग, वस्तुओं की नश्वरता, वैभव की चञ्चल-चपलता आदि कारणों से जो उलझन भरी परिस्थितियाँ सामने आकर परेशान किया करती हैं, उन्हें देखकर वह हँस देता है। सोचता है प्रभु ने इस संसार में कैसी धूप-छाँह का, आँखमिचौनी का खेल खड़ा कर दिया है। अभी खुशी तो अभी रञ्ज, अभी वैभव तो अभी निर्धनता, अभी जवानी तो अभी बुढ़ापा, अभी जन्म तो अभी मृत्यु, अभी नमकीन तो अभी मिठाई, यह दुरंगी दुनिया कैसी विलक्षण है! दिन निकलते देर नहीं हुई कि रात की तैयारी होने लगी। रात को आए जरा सी देर हुई कि नवप्रभात का आयोजन होने लगा। वह तो यहाँ का आदि खेल है, बादल की छाया की तरह पल-पल में धूप-छाँह आती है। मैं इन तितलियों के पीछे कहाँ दौडूँ? मैं इन क्षण-क्षण पर उठने वाली लहरों को कहाँ तक गिनूँ ? पल में रोने, पल में हँसने की बालक्रीड़ा मैं क्यों करूँ?

आनन्दमय कोश में पहुँचा हुआ जीव अपने पिछले चार शरीरों-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश को भली प्रकार समझ लेता है। उनकी अपूर्णता और संसार की परिवर्तनशीलता दोनों के मिलने से ही एक विषैली गैस बन जाती है, जो जीवों को पाप-तापों के काले धुएँ से कलुषित कर देती है। यदि इन दोनों पक्षों के गुण-दोषों को समझकर उन्हें अलग-अलग रखा जाए, बारूद और अग्नि को इकट्ठा न होने दिया जाए तो विस्फोट की कोई सम्भावना नहीं है। यह समझकर वह अपने दृष्टिकोण में दार्शनिकता, तात्त्विकता, वास्तविकता, सूक्ष्मदर्शिता को प्रधानता देता है। तदनुसार उसे सांसारिक समस्याएँ बहुत हल्की और महत्त्वहीन मालूम पड़ती हैं। जिन बातों को लेकर साधारण मनुष्य बेतरह दु:खी रहते हैं, उन स्थितियों को वह हल्के विनोद की तरह समझकर उपेक्षा में उड़ा देता है और आत्मिक भूमिका में अपना दृढ़ स्थान बनाकर सन्तोष और शान्ति का अनुभव करता है।

गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने बताया है कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य अपने भीतर की आत्म -स्थिति में रमण करता है। सुख-दु:ख में समान रहता है, न प्रिय से राग करता है, न अप्रिय से द्वेष करता है। इन्द्रियों को इन्द्रियों तक ही सीमित रहने देता है, उनका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता और कछुआ जैसे अपने अंगों को समेटकर अपने भीतर कर लेता है, वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अन्त:भूमिका में ही समेट लेता है। जिसकी मानसिक स्थिति ऐसी होती है, उसे योगी, ब्रह्मभूत, जीवनमुक्त या समाधिस्थ कहते हैं।

आनन्दमय कोश की स्थिति पंचम भूमिका है। इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं। समाधि अनेक प्रकार की है। काष्ठ-समाधि, भाव-समाधि, ध्यान-समाधि, प्राण-समाधि, सहज-समाधि आदि २७ समाधियाँ बताई गई हैं। मूर्च्छा, नशा एवं क्लोरोफॉर्म आदि सूँघने से आई हुई समाधि को काष्ठ-समाधि कहते हैं। किसी भावना का इतना अतिरेक हो कि मनुष्य की शारीरिक चेष्टा संज्ञाशून्य हो जाए, उसे भाव-समाधि कहते हैं। ध्यान में इतनी तन्मयता आ जाए कि उसे अदृश्य एवं निराकार सत्ता साकार दिखाई पड़ने लगे, उसे ध्यान-समाधि कहते हैं। इष्टदेव के दर्शन जिन्हें होते हैं, उन्हें ध्यान-समाधि की अवस्था में ऐसी चेतना आ जाती है कि यह अन्तर उन्हें नहीं विदित होने पाता कि हम दिव्य नेत्रों से ध्यान कर रहे हैं या आँखों से स्पष्ट रूप से अमुक प्रतिमा को देख रहे हैं। प्राण-समाधि ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकत्रित करके की जाती है। हठयोगी इसी समाधि द्वारा शरीर को बहुत समय तक मृत बनाकर भी जीवित रहते हैं। अपने आप को ब्रह्म में लीन होने का जिस अवस्था में बोध होता है, उसे ब्रह्म समाधि कहते हैं।

इस प्रकार की २७ समाधियों में से वर्तमान देश, काल, पात्र की स्थिति में सहज समाधि सुलभ और सुख साध्य है। महात्मा कबीर ने सहज समाधि पर बड़ा बल दिया है। अपने अनुभव से उन्होंने सहज समाधि को सर्व सुलभ देखकर अपने अनुयायियों को इसी साधना के लिए प्रेरित किया है।

महात्मा कबीर का वचन है—

साधो! सहज समाधि भली।

गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली॥

आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ, काया कष्ट न धारूँ।

खुले नयन से हँस-हँस देखूँ, सुन्दर रूप निहारूँ॥

कहूँ सोई नाम, सुनूँ सोई सुमिरन, खाऊँ सोई पूजा।

गृह उद्यान एक सम लेखूँ, भाव मिटाऊँ दूजा॥

जहाँ-जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा, जो कुछ करूँ सो सेवा।

जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत, पूजूँ और न देवा॥

शब्द निरन्तर मनुआ राता, मलिन वासना त्यागी।

बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी॥

कहै ‘कबीर’ वह उन्मनि रहती, सोई प्रकट कर गाई।

दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई॥

उपर्युक्त पद में सद्गुरु कबीर ने सहज समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है। यह समाधि सहज है, सर्वसुलभ है, सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है, इसलिए उसे सहज समाधि का नाम दिया गया है। हठ साधनाएँ कठिन हैं। उनका अभ्यास करते हुए समाधि की स्थिति तक पहुँचना असाधारण कष्टसाध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या, षट्कर्मों के श्रमसाध्य साधन सब किसी के लिए सुलभ नहीं हैं। अनुभवी गुरु के सम्मुख रहकर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियाएँ साधनी पड़ती हैं। फिर यदि उनकी साधना खण्डित हो जाती है तो संकट भी सामने आ सकते हैं, जो योग-भ्रष्ट लोगों के समान कभी भयंकर रूप से आ खड़े होते हैं। कबीर जी सहज योग को प्रधानता देते हैं। सहज योग का तात्पर्य है—सिद्धान्तमय जीवन, कर्त्तव्यपूर्ण कार्यक्रम। क्योंकि इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह की तुच्छ इच्छाओं से प्रेरित होकर आमतौर से लोग अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और इसी कारण भाँति-भाँति के कष्टों का अनुभव करते हैं।

सहज समाधि असंख्य प्रकार की योग साधनाओं में से एक है। इसकी विशेषता यह है कि साधारण रीति के सांसारिक कार्य करते हुए भी साधनाक्रम चलता है। इसी बात को ही यों कहना चाहिए कि ऐसा व्यक्ति जीवन के सामान्य सांसारिक कार्य, कर्त्तव्य, यज्ञ, धर्म, ईश्वरीय आज्ञा पालन की दृष्टि से करता है। भोजन करने में उसकी भावना रहती है कि प्रभु की एक पवित्र धरोहर शरीर को यथावत् रखने के लिए भोजन किया जा रहा है। खाद्य पदार्थों का चुनाव करते समय शरीर की स्वस्थता उसका ध्येय रहती है। स्वादों के चटोरेपन के बारे में वह सोचता तक नहीं। कुटुम्ब का पालन-पोषण करते समय वह परमात्मा की एक सुरम्य वाटिका के माली की भाँति सिञ्चन, सम्वर्द्धन का ध्यान रखता है, कुटुम्बियों को अपनी सम्पत्ति नहीं मानता। जीविकोपार्जन को ईश्वरप्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति का एक पुनीत साधन मात्र समझता है। अमीर बनने के लिए जैसे भी बने वैसे धन-संग्रह करने की तृष्णा उसे नहीं होती है। बातचीत करना, चलना-फिरना, खाना-पीना, सोना-जागना, जीविकोपार्जन, प्रेम-द्वेष आदि सभी कार्यों को करने से पूर्व परमार्थ को, कर्त्तव्य को प्रधानता देते हुए करने से वे समस्त साधारण काम-काज भी यज्ञ रूप हो जाते हैं।

जब हर काम के मूल में कर्त्तव्य भावना की प्रधानता रहेगी तो उन कार्यों में पुण्य प्रमुख रहेगा। सद्बुद्धि से, सद्भाव से किए हुए कार्यों द्वारा अपने आप को और दूसरों को सुख-शान्ति ही प्राप्त होती है। ऐसे सत्कार्य मुक्तिप्रद होते हैं, बन्धन नहीं करते। सात्त्विकता, सद्भावना और लोक-सेवा की पवित्र आकांक्षा के साथ जीवन सञ्चालन करने पर कुछ दिन में वह नीति एवं कार्य-प्रणाली पूर्णतया अभ्यस्त हो जाती है और जो चीज अभ्यास में आती है, वह प्रिय लगने लगती है, उसमें रस आने लगता है। बुरे स्वाद की, खर्चीली, प्रत्यक्ष हानिकारक, दुष्पाच्य, नशीली चीजें, मदिरा, अफीम, तम्बाकू आदि जब कुछ दिन के बाद प्रिय लगने लगते हैं और उन्हें बहुत कष्ट उठाते हुए भी छोड़ते नहीं बनता; जब तामसी तत्त्व कालान्तर के अभ्यास से इतने प्राणप्रिय हो जाते हैं तो कोई कारण नहीं कि सात्त्विक तत्त्व उससे अधिक प्रिय न हो सकें।

सात्त्विक सिद्धान्त को जीवन-आधार बना लेने से, उन्हीं के अनुरूप विचार और कार्य करने से आत्मा को सत्-तत्त्व में रमण करने का अभ्यास पड़ जाता है। यह अभ्यास जैसे-जैसे परिपक्व होता है, वैसे-वैसे सहज योग का रसास्वादन होने लगता है, उसमें आनन्द आने लगता है। जब अधिक दृढ़ता, श्रद्धा, विश्वास, उत्साह एवं साहस के साथ सत्परायणता में, सिद्धान्त सञ्चालित जीवन में संलग्न रहता है, तो वह उसकी स्थायी वृत्ति बन जाती है, उसे उसी में तन्मयता रहती है, एक दिव्य आवेश-सा छाया रहता है। उसकी मस्ती, प्रसन्नता, सन्तुष्टता असाधारण होती है। इस स्थिति को सहजयोग की समाधि या ‘सहज समाधि’ कहा जाता है।

कबीर ने इसी समाधि का उपर्युक्त पद में उल्लेख किया है। वे कहते हैं—‘‘हे साधुओ! सहज समाधि श्रेष्ठ है। जिस दिन से गुरु की कृपा हुई और वह स्थिति प्राप्त हुई है, उस दिन से सूरत दूसरी जगह नहीं गई, चित्त डावाँडोल नहीं हुआ। मैं आँख मूँदकर, कान मूँदकर कोई हठयोगी की तरह काया की कष्टदायिनी साधना नहीं करता। मैं तो आँखें खोले रहता हूँ और हँस-हँसकर परमात्मा  की पुनीत कृति का सुन्दर रूप देखता हूँ। जो कहता हूँ सो नाम जप है; जो सुनता हूँ सो सुमिरन है; जो खाता-पीता हूँ सो पूजा है। घर और जंगल एक सा देखता हूँ और अद्वैत का अभाव मिटाता हूँ। जहाँ-जहाँ जाता हूँ, सोई परिक्रमा है; जो कुछ करता हूँ सोई सेवा है। जब सोता हूँ तो वह मेरी दण्डवत है। मैं एक को छोड़कर अन्य देव को नहीं पूजता। मन की मलिन वासना छोड़कर निरन्तर शब्द में, अन्त:करण की ईश्वरीय वाणी सुनने में रत रहता हूँ। ऐसी तारी लगी है, निष्ठा जमी है कि उठते-बैठते वह कभी नहीं बिसरती।’’ कबीर कहते हैं कि ‘‘मेरी यह उनमनि, हर्ष-शोक से रहित स्थिति है जिसे प्रकट करके गाया है। दु:ख-सुख से परे जो एक परम सुख है, मैं उसी में समाया रहता हूँ।’’

यह सहज समाधि उन्हें प्राप्त होती है ‘जो शब्द में रत’ रहते हैं। भोग एवं तृष्णा की क्षुद्र वृत्तियों का परित्याग करके जो अन्त:करण में प्रतिक्षण ध्वनित होने वाले ईश्वरीय शब्दों को सुनते हैं, सत् की दिशा में चलने की ओर दैवी संकेतों को देखते हैं और उन्हीं को जीवन-नीति बनाते हैं, वे ‘शब्द रत’ सहज योगी उस परम आनन्द की सहज समाधि में सुख को प्राप्त होते हैं। चूँकि उनका उद्देश्य ऊँचा रहता है, दैवी प्रेरणा पर निर्भर रहता है, इसलिए उनके समस्त कार्य पुण्य रूप बन जाते हैं। जैसे खाँड़ से बने खिलौने आकृति में कैसे ही क्यों न हों, होंगे मीठे ही, इसी प्रकार सद्भावना और उद्देश्य परायणता के साथ किए हुए काम बाह्य आकृति में कैसे ही क्यों न दिखाई देते हों, होंगे वे यज्ञरूप ही, पुण्यमय ही। सत्यपरायण व्यक्तियों के सम्पूर्ण कार्य, छोटे से छोटे कार्य, यहाँ तक कि चलना, सोना, खाना-देखना तक ईश्वर-आराधना बन जाते हैं।

स्वल्प प्रयास में समाधि का शाश्वत सुख उपलब्ध करने की इच्छा रखने वाले अध्यात्ममार्ग के पथिकों को चाहिए कि वे जीवन का दृष्टिकोण उच्च उद्देश्यों पर अवलम्बित करें, दैनिक कार्यक्रम का सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्णय करें। भोग से उठकर योग में आस्था का आरोपण करें। इस दिशा में जो जितनी प्रगति करेगा, उसे उतने ही अंशों में समाधि के लोकोत्तर सुख का रसास्वादन होता चलेगा।

आनन्दमय कोश की साधना में आनन्द का रसास्वादन होता है। इस प्रकार की आनन्दमयी साधनाओं में से तीन प्रमुख साधनाएँ नीचे दी जाती हैं। सहज समाधि की भाँति ये तीन महासाधनाएँ भी बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं, साथ ही उनकी सुगमता भी असन्दिग्ध है।
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