जीवन का प्रथम चरण ‘भू:’ है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक व्यवहार में जो अनेक गुत्थियाँ, उलझनें, कठिनाइयाँ आती हैं, उन सबका सुलझाव इन अक्षरों में दी हुई शिक्षा से होता है। सांसारिक जीवन का कोई भी कठिन प्रश्न ऐसा नहीं है, जिनका उत्तर और उपाय उन अक्षरों में न हो। इस रहस्यमय व्यावहारिक ज्ञान की अपने उपयुक्त व्याख्या कराने के लिए जिस गुरु की आवश्यकता होती है, उसे ‘आचार्य’ कहते हैं। आचार्य ‘मन्त्र-दीक्षा’ देते हैं। मन्त्र का अर्थ है- विचार, तर्क, प्रमाण, अवसर, स्थिति पर विचार करते हुए आचार्य अपने शिष्य को समय-समय पर ऐसे सुझाव, सलाह, उपदेश गायत्री मन्त्र की शिक्षाओं के आधार पर देते हैं, जिनसे उसकी विभिन्न समस्याओं का पथ प्रशस्त होता चले। यह प्रथम भूमिका है। इसे भू: क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र के शिष्य को आचार्य द्वारा मन्त्र दीक्षा दी जाती है।
मन्त्र दीक्षा लेते समय शिष्य प्रतिज्ञा करता है कि ‘‘मैं गुरु का आदेश, अनुशासन पूर्ण श्रद्धा के साथ मानूँगा। समय-समय पर उनकी सलाह से अपनी जीवन नीति निर्धारित करूँगा, अपनी सभी भूलें निष्कपट रूप से उनके सम्मुख प्रकट कर दिया करूँगा।’’ आचार्य शिष्य को मन्त्र का अर्थ समझाता है और माता गायत्री को यज्ञोपवीत रूप से देता है। शिष्य देवभाव से आचार्य का पूजन करता है और गुरु-पूजा के लिए उन्हें वस्त्र, आभूषण, पात्र, भोजन, दक्षिणा आदि सामार्थ्यानुसार भेंट करता है। रोली, अक्षत, तिलक, कलावा वरण आदि के द्वारा दोनों परस्पर एक दूसरे को बाँधते हैं। मन्त्र-दीक्षा एक प्रकार से दो व्यक्तियों में आध्यात्मिक रिश्तेदारी की स्थापना है। इस दीक्षा के पश्चात् पाप-पुण्य में से वे एक प्रतिशत के भागीदारी हो जाते हैं। शिष्य के सौ पापों में से एक का फल गुरु को भोगना पड़ता है। इसी प्रकार पुण्य में भी एक- दूसरे के साझीदार होते हैं। यह सामान्य दीक्षा है। यह मन्त्र दीक्षा साधारण श्रेणी के सुशिक्षित सत्पुरुष आचार्य प्रारम्भिक श्रेणी के साधक को दे सकते हैं।