गायत्री महाविज्ञान

गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्रोत है

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पिछले पृष्ठों पर बतलाया जा चुका है कि एक अव्यय, निर्विकार, अजर- अमर परमात्मा की ‘एक से अधिक हो जाने की’ इच्छा हुई। ब्रह्म में स्फुरण हुआ कि ‘एकोऽहं बहुस्याम् मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ। उसकी यह इच्छा ही शक्ति बन गयी। इस अच्छा, स्फुरणा या शक्ति को ही ब्रह्म- पत्नी कहते हैं। इस प्रकार ब्रह्म एक से दो हो गया। अब उसे लक्ष्मी- नारायण, सीता- राम, राधे- श्याम, उमा- महेश, शक्ति- शिव, माया- ब्रह्म, प्रकृति- परमेश्वर आदि नामों से पुकारने लगे।

इस शक्ति के द्वारा अनेक पदार्थों तथा प्राणियों का निर्माण होना था, इसलिए उसे भी तीन भागों में अपने को विभाजित कर देना पड़ा, ताकि अनेक प्रकार के सम्मिश्रण तैयार हो सकें और विविध गुण, कर्म, स्वभाव वाले जड़, चेतन पदार्थ बन सकें। ब्रह्मशक्ति के ये तीन टुकड़े- (१) सत् (२) रज (३) तम- इन तीन नामों से पुकारे जाते हैं। सत् का अर्थ है- ईश्वर का दिव्य तत्त्व। तम का अर्थ है- निर्जीव पदार्थों में परमाणुओं का अस्तित्व। रज का अर्थ है- जड़ पदार्थों और ईश्वरीय दिव्य तत्त्व के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई आनन्द दायक चैतन्यता। ये तीन तत्त्व स्थूल सृष्टि के मूल कारण हैं। इनके उपरान्त स्थूल उपादान के रूप में मिट्टी, पानी, हवा, अग्रि, आकाश- ये पाँच स्थूल तत्त्व और उत्पन्न होते हैं। इन तत्त्वों के परमाणुओं तथा उनकी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तन्मात्राओं द्वारा सृष्टि का सारा कार्य चलता है। प्रकृति के दो भाग हैं—सूक्ष्म प्रकृति, जो शक्ति प्रवाह के रूप में, प्राण संचार के रूप में कार्य करती है, वह सत्, रज, तममयी है। स्थूल प्रकृति, जिससे दृश्य पदार्थों का निर्माण एवं उपयोग होता है, परमाणुमयी है। यह मिट्टी, पानी, हवा आदि स्थूल पंचतत्त्वों के आधार पर अपनी गतिविधि जारी रखती है।

उपर्युक्त पंक्तियों के पाठक समझ गए होंगे कि पहले एक ब्रह्म था, उसकी स्फुरणा से आदिशक्ति का आविर्भाव हुआ। इस आदिशक्ति का नाम ही गायत्री है। जैसे ब्रह्म ने अपने तीन भाग कर लिए- (१) सत्- जिसे ह्रीं या सरस्वती कहते हैं, (२) रज- जिसे ‘श्रीं’ या लक्ष्मी कहते हैं, (३) तम- जिसे ‘क्लीं’ या काली कहते हैं। वस्तुत: ‘सत्’ और ‘तम’ दो ही विभाग हुए थे; इन दोनों के मिलने से जो धारा उत्पन्न हुई, वह रज कहलाती है। जैसे गंगा, यमुना जहाँ मिलती हैं, वहाँ उनकी मिश्रित धारा को सरस्वती कहते हैं। सरस्वती वैसे कोई पृथक् नदी नहीं है। जैसे इन दो नदियों के मिलने से सरस्वती हुई, वैसे ही सत् और तम के योग से रज उत्पन्न हुआ और यह त्रिधा प्रकृति कहलाई।

अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद का बहुत झगड़ा सुना जाता है, वस्तुतः: यह समझने का अन्तर मात्र है। ब्रह्म, जीव, प्रकृति यह तीनों ही अस्तित्व में हैं। पहले एक ब्रह्म था, यह ठीक है, इसलिए अद्वैतवाद भी ठीक है। पीछे ब्रह्म और शक्ति (प्रकृति) दो हो गए, इसलिए द्वैतवाद भी ठीक है। प्रकृति और परमेश्वर के संस्पर्श से जो रसानुभूति और चैतन्यता मिश्रित रज सत्ता उत्पन्न हुई, वह जीव कहलाई। इस प्रकार त्रैतवाद भी ठीक है। मुक्ति होने पर जीव सत्ता नष्ट हो जाती है। इससे भी स्पष्ट है कि जीवधारी की जो वर्तमान सत्ता मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊपर आधारित है, वह एक मिश्रण मात्र है।

तत्त्वदर्शन के गम्भीर विषय में प्रवेश करके आत्मा के सूक्ष्म विषयों पर प्रकाश डालने का यहाँ अवसर नहीं है। इन पंक्तियों में तो स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का भेद बताया था, क्योंकि विज्ञान के दो भाग यहीं से होते हैं, मनुष्य की द्विधा प्रकृति यहीं से बनती है। पंचतत्त्वों द्वारा काम करने वाली स्थूल प्रकृति का अन्वेषण करने वाले मनुष्य भौतिक विज्ञानी कहलाते हैं। उन्होंने अपने बुद्धि बल से पंचतत्त्वों के भेद- उपभेदों को जानकर उनसे अनेक लाभदायक साधन प्राप्त किये। रसायन, कृषि, विद्युत्, वाष्प, शिल्प, संगीत, भाषा, साहित्य, वाहन, गृह निर्माण, चिकित्सा, शासन, खगोल विद्या, अस्त्र- शस्त्र, दर्शन, भू- परिशोध आदि अनेक प्रकार के सुख- साधन खोज निकाले और रेल, मोटर, तार, डाक, रेडियो, टेलीविजन, फोटो आदि विविध वस्तुएँ बनाने के बड़े- बड़े यन्त्र निर्माण किए। धन, सुख- सुविधा और आराम के साधन सुलभ हुए। इस मार्ग से जो लाभ मिलता है, उसे शास्त्रीय भाषा में ‘प्रेय’ या ‘भोग’ कहते हैं। यह विज्ञान भौतिक विज्ञान कहलाता है। यह स्थूल प्रकृति के उपयोग की विद्या है।

सूक्ष्म प्रकृति वह है जो आद्यशक्ति गायत्री से उत्पन्न होकर सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा में बँटती है। यह सर्वव्यापिनी शक्ति- निर्झरिणी पंचतत्त्वों से कहीं अधिक सूक्ष्म है। जैसे नदियों के प्रवाह में, जल की लहरों पर वायु के आघात होने के कारण ‘कल- कल’ से मिलती- जुलती ध्वनियाँ उठा करती हैं, वैसे ही सूक्ष्म प्रकृति की शक्ति- धाराओं से तीन प्रकार की शब्द- ध्वनियाँ उठती हैं। सत् प्रवाह में ह्रीं, रज प्रवाह में ‘श्रीं’ और तम प्रवाह में ‘क्लीं’ शब्द से मिलती- जुलती ध्वनि उत्पन्न होती है। उससे भी सूक्ष्म ब्रह्म का ऊँकार ध्वनि- प्रवाह है। नादयोग की साधना करने वाले ध्यानमग्न होकर इन ध्वनियों को पकड़ते हैं और उनका सहारा पकड़ते हुए सूक्ष्म प्रकृति को भी पार करते हुए ब्रह्मसायुज्य तक जा पहुँचते हैं। यह योग साधना पथ आपको आगे पढ़ने को मिलेगा।

प्राचीन काल में हमारे पूजनीय पूर्वजों ने, ऋषियों ने अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से विज्ञान के इस सूक्ष्म तत्त्व को पकड़ा था, उसी की शोध और सफलता में अपनी शक्तियों को लगाया था। फलस्वरूप वे वर्तमान काल के यशस्वी भौतिक विज्ञान की अपेक्षा अनेक गुने लाभों से लाभान्वित होने में समर्थ हुए थे। वे आद्यशक्ति के सूक्ष्म शक्ति प्रवाहों पर अपना अधिकार स्थापित करते थे। यह प्रकट तथ्य है कि मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियों का आविर्भाव होता है। हमारे ऋषिगण योग- साधना के द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में छिपे पड़े हुए शक्ति- केन्द्रों को, चक्रों को, ग्रन्थियों को, मातृकाओं को, ज्योतियों को, भ्रमरों को जगाते थे और उस जागरण से जो शक्ति प्रवाह उत्पन्न होता था, उसे आद्यशक्ति के त्रिविध प्रवाहों में से जिसके साथ आवश्यकता होती थी, उससे सम्बन्धित कर देते थे। जैसे रेडियो का स्टेशन के ट्रान्समीटर यन्त्र से सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है, तो दोनों की विद्युत् शक्तियाँ सम श्रेणी में होने के कारण आपस में सम्बन्धित हो जाती हैं तथा उन स्टेशनों के बीच आपसी वार्तालाप का, सम्वादों के आदान- प्रदान का सिलसिला चल पड़ता है; इसी प्रकार साधना द्वारा शरीर के अन्तर्गत छिपे हुए और तन्द्रित पड़े हुए केन्द्रों का जागरण करके सूक्ष्म प्रकृति के शक्ति प्रवाहों से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, तो मनुष्य और आद्यशक्ति आपस में सम्बन्धित हो जाते हैं। इस सम्बन्ध के कारण मनुष्य उस आद्यशक्ति के गर्भ में भरे हुए रहस्यों को समझने लगता है और अपनी इच्छानुसार उनका उपयोग करके लाभान्वित हो सकता है। चूँकि संसार में जो भी कुछ है, वह सब आद्यशक्ति के भीतर है, इसलिए वह सम्बन्धित व्यक्ति भी संसार के सब पदार्थों और साधनों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।

वर्तमान काल के वैज्ञानिक पंचतत्त्वों की सीमा तक सीमित, स्थूल प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बड़ी- बड़ी कीमती मशीनों को विद्युत्, वाष्प, गैस, पेट्रोल आदि का प्रयोग करके कुछ आविष्कार करते हैं और थोड़ा- सा लाभ उठाते हैं। यह तरीका बड़ा श्रम- साध्य, कष्ट- साध्य, धन- साध्य और समय- साध्य है। उसमें खराबी, टूट- फूट और परिवर्तन की खटपट भी आये दिन लगी रहती है। उन यन्त्रों की स्थापना, सुरक्षा और निर्माण के लिए हर समय काम जारी रखना पड़ता है। उनका स्थान परिवर्तन तो और भी कठिन होता है। ये सब झंझट भारतीय योग विज्ञान के विज्ञानवेत्ताओं के सामने नहीं थे। वे बिना किसी यन्त्र की सहायता के, बिना संचालक, विद्युत्, पेट्रोल आदि के केवल अपने शरीर के शक्ति- केन्द्रों का सम्बन्ध सूक्ष्म प्रकृति से स्थापित करके ऐसे आश्चर्यजनक कार्य कर लेते थे, जिनकी सम्भावना तक को आज के भौतिक विज्ञानी समझने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।

महाभारत और लंका युद्ध में जो अस्त्र- शस्त्र व्यवहृत हुए थे, उनमें से बहुत थोड़ों का धुँधला रूप अभी सामने आया है। रडार, गैस बम, अणु बम, रोग कीटाणु बम, परमाणु बम, मृत्यु किरण आदि का धुँधला चित्र अभी तैयार हो पाया है। प्राचीनकाल में मोहक शस्त्र, ब्रह्मपाश, नागपाश, वरुणास्त्र, आग्रेय बाण, शत्रु को मारकर तरकस में लौट आने वाले बाण आदि व्यवहृत होते थे; शब्दवेध का प्रचलन था। ऐसे अस्त्र- शस्त्र किन्हीं कीमती मशीनों से नहीं, मन्त्र बल से चलाए जाते थे, जो शत्रु को जहाँ भी वह छिपा हो, ढूँढ़कर उसका संहार करते थे। लंका में बैठा हुआ रावण और अमेरिका में बैठा हुआ अहिरावण आपस में भली प्रकार वार्तालाप करते थे; उन्हें किसी रेडियो या ट्रान्समीटर की जरूरत नहीं थी। विमान बिना पेट्रोल के उड़ते थे।

अष्ट- सिद्धि और नव निधि का योगशास्त्रों में जगह- जगह पर वर्णन है। अग्रि में प्रवेश करना, जल पर चलना, वायु के समान तेज दौडऩा, अदृश्य हो जाना, मनुष्य से पशु- पक्षी और पशु- पक्षी से मनुष्य का शरीर बदल लेना, शरीर को बहुत छोटा या बड़ा, हल्का या भारी बना लेना, शाप से अनिष्ट उत्पन्न कर देना, वरदानों से उत्तम लाभों की प्राप्ति, मृत्यु को रोक लेना, पुत्रेष्टि यज्ञ, भविष्य का ज्ञान, दूसरों के अन्तस् की पहचान, क्षण भर में यथेष्ट धन, ऋतु, नगर, जीव- जन्तुगण, दानव आदि उत्पन्न कर लेना, समस्त ब्रह्माण्ड की हलचलों से परिचित होना, किसी वस्तु का रूपान्तर कर देना, भूख, प्यास, नींद, सर्दी- गर्मी पर विजय, आकाश में उड़ना आदि अनेकों आश्चर्य भरे कार्य केवल मन्त्र बल से, योगशक्ति से, अध्यात्म विज्ञान से होते थे और उन वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिए किसी प्रकार की मशीन, पेट्रोल, बिजली आदि की जरूरत न पड़ती थी। यह कार्य शारीरिक विद्युत् और प्रकृति के सूक्ष्म प्रवाह का सम्बन्ध स्थापित कर लेने पर बड़ी आसानी से हो जाते थे। यह भारतीय विज्ञान था, जिसका आधार था- साधना।

साधना द्वारा केवल ‘तम’ तत्त्व से सम्बन्ध रखने वाले उपरोक्त प्रकार के भौतिक चमत्कार ही नहीं होते वरन् ‘रज’ और ‘सत्’ क्षेत्र के लाभ एवं आनन्द भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त किए जा सकते हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विपन्न परिस्थितियों में पडक़र जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य मानसिक कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मशक्तियों के उपयोग की विद्या जानने वाला व्यक्ति विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते- हँसते आसानी से काट लेता है और बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द को बढ़ाने का मार्ग ढूँढ़ निकालता है। वह जीवन को इतनी मस्ती, प्रफुल्लता और मजेदारी के साथ बिताता है, जैसा कि बेचारे करोड़पतियों को भी नसीब नहीं हो सकता। जिसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य आत्मबल के कारण ठीक बना हुआ है, उसे बड़े अमीरों से भी अधिक आनन्दमय जीवन बिताने का सौभाग्य अनायास ही प्राप्त हो जाता है। रज शक्ति का उपयोग जानने का यह लाभ भौतिक विज्ञान द्वारा मिलने वाले लाभों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।

‘सत्’ तत्त्व के लाभों का वर्णन करना तो लेखनी और वाणी दोनों की ही शक्ति के बाहर है। ईश्वरीय दिव्य तत्त्वों की जब आत्मा में वृद्धि होती है, तो दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, त्याग, सन्तोष, शान्ति, सेवा भाव, आत्मीयता, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, संयम, नम्रता, पवित्रता, श्रमशीलता, धर्मपरायणता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन- दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप संसार में उसके लिए प्रशंसा, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, श्रद्धा, सहायता, सम्मान के भाव बढ़ते हैं और उसे प्रत्युपकार से सन्तुष्ट करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त यह सद्गुण स्वयं इतने मधुर हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होता है, वहीं आत्म- सन्तोष की शीतल निर्झरिणी सदा बहती रहती है। ऐसे लोग चाहे जीवित अवस्था में हों, चाहे मृत अवस्था में, उन्हें जीवन- मुक्ति, स्वर्ग, परमानन्द, ब्रह्मानन्द, आत्म- दर्शन, प्रभु- प्राप्ति, ब्रह्म- निर्वाण, तुरीयावस्था, निर्विकल्प समाधि का सुख प्राप्त होता रहता है। यही तो जीवन का लक्ष्य है। इसे पाकर आत्मा परितृप्ति के आनन्द सागर में निमग्न हो जाती है।

आत्मिक, मानसिक और सांसारिक तीनों प्रकार के सुख- साधन आद्यशक्ति गायत्री की सत्, रज, तममयी धाराओं तक पहुँचने वाला साधक सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। सरस्वती, लक्ष्मी और काली की सिद्धियाँ पृथक्- पृथक् प्राप्त की जाती हैं। पाश्चात्य देशों में भौतिक विज्ञानी ‘क्लीं’ तत्त्व की काली शक्ति का अन्वेषण आराधना करने में निमग्न हैं। बुद्धिवादी, धर्म प्रचारक, सुधारवादी, गाँधीवादी, समाजसेवी, व्यापारी, श्रमिक, उद्योगी, समाजवादी, कम्युनिस्ट यह ‘श्रीं’ शक्ति की सुव्यवस्था में, लक्ष्मी के आयोजन में लगे हुए हैं। योगी, ब्रह्मवेत्ता, अध्यात्मवादी, तत्त्वदर्शी, भक्त, दार्शनिक, परमार्थी व्यक्ति ह्रीं तत्त्व की, सरस्वती की आराधना कर रहे हैं। यह तीनों ही वर्ग गायत्री की आद्यशक्ति के एक- एक चरण के उपासक हैं। गायत्री को ‘त्रिपदा’ कहा गया है। उसके तीन चरण हैं। यह त्रिवेणी उपर्युक्त तीनों ही प्रयोजनों को पूरा करने वाली है। माता बालक के सभी काम करती है। आवश्यकतानुसार वह उसके लिए मेहतर का, रसोइये का, कहार का, दाई का, घोड़े का, दाता का, दर्जी का, धोबी का, चौकीदार का काम बजा देती है। वैसे ही जो लोग आत्मशक्ति को आद्यशक्ति के साथ जोडऩे की विद्या को जानते हैं, वे अपने को सुसन्तति सिद्ध करते हैं। वे गायत्री रूपी सर्वशक्तिमयी माता से यथेष्ट लाभ प्राप्त कर लेते हैं।

संसार में दुःखों के तीन कारण हैं—(१) अज्ञान (२) अशक्ति (३) अभाव। इन तीन दुःखों को गायत्री की सूक्ष्म प्रकृति की तीनों धाराओं के सदुपयोग से मिटाया जा सकता है। ह्रीं अज्ञान को, श्रीं अभाव को, क्लीं अशक्ति को दूर करती है। भारतीय सूक्ष्म विद्या- विशेषज्ञों ने सूक्ष्म प्रकृति पर अधिकार करके अभीष्ट आनन्द प्राप्त करने के जिस विज्ञान का आविष्कार किया था, वह सभी दृष्टियों से असाधारण और महान है। उस आविष्कार का नाम है- साधना। साधना से सिद्धि मिलती है। गायत्री साधना अनेक सिद्धियों की जननी है।
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