गायत्री मन्त्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है। इस महामन्त्र की उपासना आरम्भ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आन्तरिक क्षेत्र में एक नयी हलचल एवं रद्दोबदल आरम्भ हो गई है। सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि होने तथा दुर्गुण, कुविचार, दु:स्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरम्भ हो जाते हैं और संयम, नम्रता, पवित्रता, उत्साह, श्रमशीलता, मधुरता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, उदारता, प्रेम, सन्तोष, शान्ति, सेवा- भाव, आत्मीयता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन- दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप लोग उसके स्वभाव एवं आचरण से सन्तुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान के भाव रखते हैं। इसके अतिरिक्त ये सद्गुण स्वयं इतने मुधर हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होता है, वहाँ आत्मसन्तोष की परम शान्तिदायक निर्झरिणी सदा बहती रहती है।
गायत्री साधना से साधक के मन:क्षेत्र में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक, तत्त्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञानजन्य दु:खों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश अनिवार्य कर्मफल के कारण कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों में जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्युतुल्य कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, सन्तोष, संयम, ईश्वर- विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते- हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द का मार्ग ढूँढ़ निकालता है और मस्ती एवं प्रसन्नता का जीवन बिताता है।
संसार का सबसे बड़ा लाभ ‘आत्मबल’ गायत्री साधक को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के सांसारिक लाभ भी होते देखे गये हैं। बीमारी, कमजोरी, बेकारी, घाटा, गृह- कलह, मनोमालिन्य, मुकदमा, शत्रुओं का आक्रमण, दाम्पत्य सुख का अभाव, मस्तिष्क की निर्बलता, चित्त की अस्थिरता, सन्तान सुख, कन्या के विवाह की कठिनाई, बुरे भविष्य की आशंका, परीक्षा में उत्तीर्ण न होने का भय, बुरी आदतों के बन्धन जैसी कठिनाइयों से ग्रसित अगणित व्यक्तियों ने आराधना करके अपने दु:खों से छुटकारा पाया है।
कारण यह है कि हर एक कठिनाई के पीछे, जड़ में निश्चय ही कुछ न कुछ अपनी त्रुटियाँ, अयोग्यताएँ एवं खराबियाँ रहती हैं। सद्गुणों की वृद्धि के साथ अपने आहार- विहार, दिनचर्या, दृष्टिकोण, स्वभाव एवं कार्यक्रम में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन ही आपत्तियों के निवारण का, सुख- शान्ति की स्थापना का राजमार्ग बन जाता है। कई बार हमारी इच्छाएँ, तृष्णाएँ, लालसाएँ, कामनाएँ ऐसी होती हैं, जो अपनी योग्यता एवं परिस्थितियों से मेल नहीं खातीं। मस्तिष्क शुद्ध होने पर बुद्धिमान व्यक्ति उन तृष्णाओं को त्याग कर अकारण दुःखी रहने के भ्रम जंजाल से छूट जाता है। अवश्यम्भावी, न टलने वाले प्रारब्ध का भोग जब सामने आता है, तो साधारण व्यक्ति बुरी तरह रोते- चिल्लाते हैं; किन्तु गायत्री साधक में इतना आत्मबल एवं साहस बढ़ जाता है कि वह उन्हें हँसते- हँसते झेल लेता है।
किसी विशेष आपत्ति का निवारण करने एवं किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी गायत्री साधना की जाती है। बहुधा इसका परिणाम बड़ा ही आश्चर्यजनक होता है। देखा गया है कि जहाँ चारों ओर निराशा, असफलता, आशंका और भय का अन्धकार ही छाया हुआ था, वहाँ वेदमाता की कृपा से दैवी प्रकाश उत्पन्न हुआ और निराशा आशा में परिणत हो गयी, बड़े कष्टसाध्य कार्य तिनके की तरह सुगम हो गये। ऐसे अनेकों अवसर अपनी आँखों के सामने देखने के कारण हमारा यह अटूट विश्वास हो गया कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती।
गायत्री साधना आत्मबल बढ़ाने का अचूक आध्यात्मिक व्यायाम है। किसी को कुश्ती में पछाड़ने एवं दंगल में जीतकर इनाम पाने के लिए कितने ही लोग पहलवानी और व्यायाम का अभ्यास करते हैं। यदि कदाचित् कोई अभ्यासी किसी कुश्ती को हार जाये, तो भी ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उसका प्रयत्न निष्फल गया। इसी बहाने उसका शरीर तो मजबूत हो गया, वह जीवन भर अनेक प्रकार से अनेक अवसरों पर बड़े- बड़े लाभ उपस्थित करता रहेगा। निरोगिता, सौन्दर्य, दीर्घ जीवन, कठोर परिश्रम करने की क्षमता, दाम्पत्य सुख, सुसन्तति, अधिक कमाना, शत्रुओं से निर्भयता आदि कितने लाभ ऐसे हैं, जो कुश्ती पछाड़ने से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। साधना से यदि कोई विशेष प्रयोजन प्रारब्ध वश पूरा न भी हो, तो भी इतना निश्चित है कि किसी न किसी प्रकार साधना की अपेक्षा कई गुना लाभ अवश्य मिलकर रहेगा।
आत्मा स्वयं अनेक ऋद्धि- सिद्धियों का केन्द्र है। जो शक्तियाँ परमात्मा में हैं, वे ही उसके अमर युवराज आत्मा में हैं। समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का केन्द्र आत्मा में है। किन्तु जिस प्रकार राख से ढका हुआ अङ्गीकार मन्द हो जाता है, वैसे ही आन्तरिक मलीनताओं के कारण आत्मतेज कुण्ठित हो जाता है। गायत्री साधना से मलिनता का पर्दा हट जाता है और राख हटा देने से जैसे अङ्गीकार अपने प्रज्वलित स्वरूप में दिखाई पडऩे लगता है, वैसे ही साधक की आत्मा भी अपने ऋद्धि- सिद्धि समन्वित ब्रह्मतेज के साथ प्रकट होती है। योगियों को जो लाभ दीर्घकाल तक कष्टसाध्य तपस्याएँ करने से प्राप्त होता है, वही लाभ गायत्री साधकों को स्वल्प प्रयास में ही प्राप्त हो जाता है।
गायत्री उपासना का यह प्रभाव इस समय भी समय- समय पर दिखाई पड़ता है। इन सौ- पचास वर्षों में ही सैकड़ों व्यक्ति इसके फलस्वरूप आश्चर्यजनक सफलताएँ पा चुके हैं और अपने जीवन को इतना उच्च और सार्वजनिक दृष्टि से कल्याणकारी तथा परोपकारी बना चुके हैं कि उनसे अन्य सहस्रों लोगों को प्रेरणा प्राप्त हुई है। गायत्री साधना में आत्मोत्कर्ष का गुण इतना अधिक पाया जाता है कि उससे सिवाय कल्याण और जीवन सुधार के और कोई अनिष्ट हो ही नहीं सकता।
प्राचीनकाल में महर्षियों ने बड़ी- बड़ी तपस्याएँ और योग- साधनाएँ करके अणिमा, महिमा आदि ऋद्धि- सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनकी चमत्कारी शक्तियों के वर्णन से इतिहास- पुराण भरे पड़े हैं। वह तपस्या और योग- साधना गायत्री के आधार पर ही की थी। अब भी अनेकों महात्मा मौजूद हैं, जिनके पास दैवी शक्तियों और सिद्धियों का भण्डार है। उनका कथन है कि गायत्री से बढक़र योगमार्ग में सुगमतापूर्वक सफलता प्राप्त करने का दूसरा मार्ग नहीं है। सिद्ध पुरुषों के अतिरिक्त सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी सभी चक्रवर्ती राजा गायत्री उपासक रहे हैं। ब्राह्मण लोग गायत्री की ब्रह्म- शक्ति के बल पर जगद्गुरु थे। क्षत्रिय गायत्री के भर्ग रूपी तेज को धारण करके चक्रवर्ती शासक बने थे। यह सनातन सत्य आज भी वैसा ही है। गायत्री माता का आँचल श्रद्धापूर्वक पकड़ने वाला मनुष्य कभी भी निराश नहीं रहता।