गायत्री महाविज्ञान

एक वर्ष की उद्यापन साधना

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कई व्यक्तियों का जीवन- क्रम बड़ा अस्त- व्यस्त होता है, वे सदा कार्य में व्यस्त रहते हैं। व्यावहारिक जीवन की कठिनाइयाँ उन्हें चैन नहीं लेने देतीं। जीविका कमाने में, सामाजिक व्यवहारों को निभाने में, पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने में, उलझी हुई परिस्थितियों को सुलझाने में, कठिनाइयों के निवारण की चिन्ता में उनके समय और शक्ति का इतना व्यय हो जाता है कि जब फुरसत मिलने की घड़ी आती है, तब वे अपने को थका- माँदा, शक्तिहीन, शिथिल और परिश्रम के भार से चकनाचूर पाते हैं। उस समय उनकी एक ही इच्छा होती है कि उन्हें चुपचाप पड़े रहने दिया जाए, कोई उन्हें छेड़े नहीं, ताकि वे सुस्ताकर अपनी थकान उतार सकें। कई व्यक्तियों का शरीर एवं मस्तिष्क अल्प शक्ति वाला होता है, मामूली दैनिक कार्यों के श्रम में ही वे अपनी शक्ति खर्च कर देते हैं, फिर उनके हाथ- पैर शिथिल पड़ जाते हैं।

साधारणत: सभी आध्यात्मिक साधनाओं के लिए और विशेषकर गायत्री साधना के लिए उत्साहित मन एवं शक्ति सम्पन्न शरीर की आवश्यकता होती है ताकि स्थिरता, दृढ़ता, एकाग्रता और शान्ति के साथ मन साधना में लग सके। इस स्थिति में की गई साधनायें सफल होती हैं। परन्तु कितने लोग हैं, जो ऐसी स्थिति को उपलब्ध कर पाते हैं? अस्थिर, अव्यवस्थित चित्त किसी प्रकार साधना में जुट जाये तो भी उसमें वैसा परिणाम नहीं निकल पाता जैसा कि निकलना चाहिए। अधूरे मन से की गयी उपासना भी अधूरी होती है और उसका फल भी वैसा ही अधूरा मिलता है।

ऐसे स्त्री- पुरुषों के लिये एक अति सरल एवं बहुत महत्त्वपूर्ण साधना ‘गायत्री- उद्यापन’ है। इसे बहुधन्धी, कामकाजी और कार्यव्यस्त व्यक्ति भी कर सकते हैं। कहते हैं कि बूँद- बँद बूँद जोडऩे से धीरे- धीरे घड़ा भर जाता है। थोड़ी- थोड़ी आराधना करने से कुछ समय में एक बड़े परिमाण में साधना- शक्ति जमा हो जाती है।

प्रतिमास अमावस्या और पूर्णमासी दो दिन उद्यापन की साधना करनी पड़ती है। किसी मास की पूर्णिमा से उसे आरम्भ किया जा सकता है। ठीक एक वर्ष बाद उसी पूर्णमासी को उसकी समाप्ति करनी चाहिये। प्रति अमावस्या और पूर्णमासी को निम्र कार्यक्रम होना चाहिये और इन नियमों का पालन करना चाहिये।

(१) गायत्री उद्यापन के लिये कोई सुयोग्य, सदाचारी, गायत्री विद्या का ज्ञाता ब्राह्मण वरण करके उसे ब्रह्मणा नियुक्त करना चाहिये।

१ नोट—यह मर्यादा प्रारम्भ में बताई गई थी। बाद में युगऋषि के प्रतीक- चित्र को ही ‘ब्रह्म के रूप में स्थापित करके दक्षिणा की राशि लोक मङ्गल के कार्यों के लिए समर्पित करने से प्रयोजन की पूर्ति हो जाती है।

(२) ब्रह्म को उद्यापन आरम्भ करते समय अन्न, वस्त्र, पात्र और यथा सम्भव दक्षिणा देकर इस यज्ञ के लिये वरण करना चाहिये।

(३) प्रत्येक अमावस्या व पूर्णमासी को साधक की तरह ब्रह्म भी अपने निवास स्थान पर रहकर यजमान की सहयता के लिये उसी प्रकार की साधना करे।

 यजमान और ब्रह्म को एक समान नियमों का पालन करना चाहिये, जिससे उभयपक्षीय साधनायें मिलकर एक सर्वांगपूर्ण साधना प्रस्तुत हो।

(४) उस दिन ब्रह्मचर्य से रहना आवश्यक है।

(५) उस दिन उपवास रखें। अपनी स्थिति और स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए एक बार एक अन्न का आहार, फलाहार, दुग्धाहार या इनके मिश्रण के आधार पर उपवास किया जा सकता है। तपश्चर्या एवं प्रायश्चित्त प्रकरण में इस सम्बन्ध में विस्तृत बातें लिखी जा चुकी हैं।

(६) तपश्चर्या प्रकरण में बतायी हुई तपश्चर्याओं में से जो अन्य नियम, व्रत पालन किये जा सकें, उनका यथा सम्भव पालन करना चाहिये। उस दिन पुरुषों को हजामत बनाना, स्त्रियों को सुसज्जित चोटी गूथना वर्जित है।

(७) उस दिन प्रात:काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर स्वच्छतापूर्वक साधना के लिये बैठना चाहिये। गायत्री सन्ध्या करने के उपरान्त गायत्री की प्रतिमा (चित्र या मूर्ति) का पूजन धूप, दीप, अक्षत, पुष्प, चन्दन, रोली, जल, मिष्ठान्न से करें। तदुपरान्त यजमान इस उद्यापन के ब्रह्म का ध्यान करके मन ही मन उसे प्रणाम करे और ब्रह्म यजमान का ध्यान करते हुए आशीर्वाद दे। इसके पश्चात् गायत्री मन्त्र का जप आरम्भ करे। जप के समय गायत्री माता का ध्यान करता रहे। गायत्री मन्त्र का दस माला जप करे। मिट्टी के एक पात्र में अग्रि रखकर उसमें घी में मिली हुई धूप डालता रहे, जिससे यज्ञ जैसी सुगन्ध उड़ती रहे, साथ ही घी का दीपक भी जलता रहे।

(८) जप पूरा होने पर कपूर या घृत की बत्ती जलाकर आरती करे। आरती के उपरान्त भगवती को मिष्ठान्न का भोग लगाएँ और उसे प्रसाद की तरह समीपवर्ती लोगों में बाँट दें।

(९) पात्र के जल को सूर्य के सम्मुख अघ्र्य रूप से चढ़ा दें।

(१०) यह सब कृत्य लगभग दो घण्टे में पूरा हो जाता है। पन्द्रह दिन बाद इतना समय निकाल लेना कुछ कठिन बात नहीं है। जो अधिक कार्यव्यस्त व्यक्ति हैं, वे दो घण्टे तडक़े उठकर सुर्योदय तक अपना कार्य समाप्त कर सकते हैं। सन्ध्या को यदि समय मिल सके, तो थोड़ा- बहुत उस समय भी साधारण रीति से कर लेना चाहिये। सन्ध्या पूजन आदि की आवश्यकता नहीं। प्रात: और सायं का एक समय पूर्वनिश्चित होना चाहिए, जिस पर यजमान और ब्रह्म साथ- साथ साधना कर सकें।

(११) यदि किसी बार बीमारी, सूतक, आकस्मिक कार्य आदि के कारण साधना न हो सके, तो दूसरी बार दूना करके क्षतिपूर्ति कर लेनी चाहिये या यजमान का कार्य ब्रह्म एवं ब्रह्म का कार्य यजमान पूरा कर दे।

(१२) अमावस्या, पूर्णमासी के अतिरिक्त भी गायत्री जप चालू रखना चाहिये। अधिक न बन पड़े तो स्नान के उपरान्त या स्नान करते समय कम से कम ४ मन्त्र मन ही मन अवश्य जप लेना चाहिये।

(१३) उद्यापन पूरा होने पर उसी पूर्णमासी को गायत्री पूजन, हवन, जप तथा ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये। ब्राह्मणों को गायत्री सम्बन्धी छोटी या बड़ी पुस्तकें तथा और जो बन पड़े दक्षिणा में देना चाहिये। गायत्री पूजन के लिए अपनी सामर्थ्यानुसार सोना, चाँदी या ताँबे की गायत्री प्रतिमा बनवानी चाहिये। प्रतिमा, वस्त्र, पात्र तथा दक्षिणा देकर ब्रह्म की विदाई करनी चाहिये।

यह ‘गायत्री उद्यापन’ स्वास्थ्य, धन, सन्तान तथा सुख- शान्ति की रक्षा करने वाला है। आपत्तियों का निवारण करता है, शत्रुता तथा द्वेष को मिटाता है, सद्बुद्धि तथा विवेकशीलता उत्पन्न करता है एवं मानसिक शक्तियों को बढ़ाता है। किसी अभिलाषा को पूर्ण करने के लिये, गायत्री की कृपा प्राप्त करने के लिये यह एक उत्तम तप है, जिससे भगवती प्रसन्न होकर साधक का मनोरथ पूरा करती हैं। यदि कोई सफलता मिले, अभीष्ट कामना की पूर्ति हो, प्रसन्नता का अवसर आए, तो उसकी खुशी में भगवती के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के रूप में उद्यापन करते रहना चाहिये। गीता में भगवान् ने कहा है—

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
— अ० ३/११
‘‘इस यज्ञ द्वारा तुम देवताओं की आराधना करो, वे देवता तुम्हारी रक्षा करेंगे। इस प्रकार आपस में आदान- प्रदान करने से परम कल्याण की प्राप्ति होगी।’’
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