गायत्री महाविज्ञान

वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति

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वेद कहते हैं- ज्ञान को। ज्ञान के चार भेद हैं- ऋक्, यजुः, साम और अथर्व। कल्याण, प्रभु- प्राप्ति, ईश्वरीय दर्शन, दिव्यत्व, आत्म- शान्ति, ब्रह्म- निर्वाण, धर्म- भावना, कर्तव्य पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार, उदारता, सेवा आदि ऋक् के अन्तर्गत आते हैं। पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस, वीरता, रक्षा, आक्रमण, नेतृत्व, यश, विजय, पद, प्रतिष्ठा, यह सब ‘यजु:’ के अन्तर्गत हैं। क्रीड़ा, विनोद, मनोरञ्जन, संगीत, कला, साहित्य, स्पर्श इन्द्रियों के स्थूल भोग तथा उन भोगों का चिन्तन, प्रिय कल्पना, खेल, गतिशीलता, रुचि, तृप्ति आदि को ‘साम’ के अन्तर्गत लिया जाता है। धन, वैभव, वस्तुओं का संग्रह, शास्त्र, औषधि, अन्न, वस्तु, धातु, गृह, वाहन आदि सुख- साधनों की सामग्रियाँ ‘अथर्व’ की परिधि में आती हैं।

किसी भी जीवित प्राणधारी को लीजिए, उसकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गम्भीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिए, प्रतीत होगा कि इन्हीं चार क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही है। (१) ऋक्- कल्याण (२) यजुः- पौरुष (३) साम- क्रीड़ा (४) अथर्व- अर्थः इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान- धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक् को धर्म, यजुः: को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्माजी के चार मुख हैं। ब्रह्मा को चतुर्मुख इसलिए कहा गया है कि वे एक मुख होते हुए चार प्रकार की ज्ञान- धारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है- ‘ज्ञान’। इस प्रकार वह एक है, परन्तु एक होते हुए भी वह प्राणियों के अन्तःकरण में चार प्रकार का दिखाई देता है। इसलिए एक वेद को सुविधा के लिए चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान् विष्णु की चार भुजाएँ भी यही हैं। इन चार विभागों को स्वेच्छापूर्वक विभक्त करने के लिए चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गयी। बालक क्रीड़ावस्था में, तरुण अर्थावस्था में, वानप्रस्थ पौरुषावस्था में और संन्यासी कल्याणावस्था में रहता है। ब्राह्मण ऋक् है, क्षत्रिय यजु: है, वैश्य अथर्व है और साम शूद्र है। इस प्रकार यह चतुर्विध विभागीकरण हुआ।

यह चारों प्रकार के ज्ञान उस चैतन्य शक्ति के ही स्फुरण हैं, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न किया था और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चारों वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है। इस प्रकार जल तत्त्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोजन- ऑक्सीजन) तथा पतले पानी के चार रूपों में देखा जाता है। जिस प्रकार अग्रि तत्त्व को ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है, उसी प्रकार एक ‘ज्ञान- गायत्री’ के चार वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है तो चार वेद इसके पुत्र हैं।
यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की। इस एक मन्त्र के एक- एक अक्षर में सूक्ष्म तत्त्व समाहित हैं, जिनके पल्लवित होने पर चार वेदों की शाखा- प्रशाखाएँ उद्भूत हो गयीं। एक वट बीज के गर्भ में महान वट वृक्ष छिपा होता है। जब वह अंकुर रूप में उगता है, वृक्ष के रूप में बड़ा होता है, तो उसमें असंख्य शाखाएँ, टहनियाँ, पत्ते, फूल, फल लद जाते हैं। इन सबका इतना बड़ा विस्तार होता है, जो उस मूल वट बीज की अपेक्षा करोड़ों- अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महाविस्तार के रूप में अवस्थित होते हैं।

व्याकरण शास्त्र का उद्गम शंकर जी के वे चौदह सूत्र हैं, जो उनके डमरू से निकले थे। एक बार महादेव जी ने आनन्द- मग्न होकर अपना प्रिय वाद्य डमरू बजाया। उस डमरू में से चौदह ध्वनियाँ निकलीं। इन (अइउण्, ऋलृक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण्  आदि) चौहद सूत्रों को लेकर पाणिनि ने महाव्याकरण शास्त्र रच डाला। उस रचना के पश्चात् उसकी व्याख्याएँ होते- होते आज इतना बड़ा व्याकरण शास्त्र प्रस्तुत है, जिसका एक भारी संग्रहालय बन सकता है। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों से इसी प्रकार वैदिक साहित्य के अंग- प्रत्यंगों का प्रादुर्भाव हुआ है। गायत्री सूत्र है, तो वैदिक ऋचाएँ उनकी विस्तृत व्याख्या हैं। 

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