केकड़े को यह समझ आई (kahani)

September 2003

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एक नदी तट पर बिच्छु और केकड़ा पास-पास रहते थे। एक दिन बिच्छु बोला, “मित्र तुम्हें पानी में तैरते देखता हूँ, तो आनंद भी आता है और ईर्ष्या भी। आनंद इस बात का कि तैरते समय तुम्हें कितनी प्रसन्नता होती होगी। ईर्ष्या इस बात से कि मैं वैसा भाग्यशाली न बन पाया, जिसे कि तुम्हारी तरह तैरता और आनंद लेता।”

केकड़ा उसका प्रयोजन समझ गया, बोला, “पीठ पर सैर करा देने में तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किंतु दोस्त तुम स्वभाव न छोड़ोगे और डंक मार कर मेरे लिए प्राण संकट खड़ा करोगे।”

बिच्छु ने कहा, “मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ, जो उपकारकर्ता को डंक मारूं। आपके मरने पर मैं भी तो डूबूँगा।” केकड़े को विश्वास हो गया। उसने बिच्छू को पीठ पर बिठाकर तैरना आरंभ किया। बिच्छू को मस्ती आई तो शपथ की याद ही नहीं रही और डंक उसकी पीठ में चुभो दिया।

केकड़ा तिलमिलाया। बेचैनी में पानी में डूबा और बिच्छु भी जल में डुबकी लेने लगा। मरते समय केकड़े को यह समझ आई कि दुष्ट से बचे रहने में ही खैर है।


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