सत्य की साधना

September 2003

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मनुष्य हर तरफ से शास्त्र और शब्दों से घिरा है। लेकिन संसार के सारे शास्त्र एवं शब्द मिलकर भी साधना के बिना अर्थहीन हैं। शास्त्रों और शब्दों से सत्य के बारे में तो जाना जा सकता है, पर इसे पाया नहीं जा सकता। सत्य की अनुभूति का मार्ग तो केवल साधना है। शब्द से सत्ता नहीं आती है। इसका द्वार तो शून्य है। शब्द से निःशब्द में छलाँग लगाने का साहस ही साधना है।

विचारों से हमेशा दूसरों को जाना जाता है। इससे ‘स्व’ का ज्ञान नहीं होता। क्योंकि ‘स्व’ सभी विचारों से परे और पूर्व है। ‘स्व’ के सत्य को अनुभव करके ही हम परम सत्ता-परमात्मा से जुड़ते हैं। इस परम भाव दशा की अनुभूति विचारों की उलझन और उधेड़-बुन में नहीं निर्विचार में होती है। जहाँ विचारों की सत्ता नहीं है, जहाँ शास्त्र और शब्द की पहुँच नहीं है, वहीं अपने सत्य स्वरूप का बोध होता है, ब्रह्मचेतना की अनुभूति होती है।

इस परम भावदशा के पहले सामान्य जीवन क्रम में चेतना के दो रूप प्रकट होते हैं 1. बाह्य मूर्छित - अन्तः मूर्छित, 2. बाह्य जाग्रत् - अन्तः मूर्छित। इनमें से पहला रूप मूर्छा-अचेतना का है। यह जड़ता का है। यह विचार से पहले की स्थिति है। दूसरा रूप अर्धमूर्छा का है, अर्ध चेतना का है। यह जड़ और चेतन के बीच की स्थिति है। यहीं विचार तरंगित होते हैं। चेतना की इस स्थिति में जो साधना करने का साहस करते हैं, उनके लिए साधना के सत्य के रूप में चेतना का तीसरा रूप प्रकट होता है। यह तीसरा रूप अमूर्छा - पूर्ण चेतना का है। यह पूर्ण चैतन्य है, विचारों से परे है।

सत्य की इस अनुभूति के लिए मात्र विचारों का अभाव भर काफी नहीं है। क्योंकि विचारों का अभाव तो नशे और इन्द्रिय भोगों की चरम दशा में भी हो जाता है। लेकिन यहाँ जड़ता के सिवा कुछ भी नहीं है। यह स्थिति मूर्छा की है, जो केवल पलायन है, उपलब्धि नहीं। सत्य को पाने के लिए तो साधना करनी होती है। सत्य की साधना से ही साधना का सत्य प्रकट होता है। यह स्थिति ही समाधि है।


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