परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - आध्यात्म साधना का मर्म-2

September 2003

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(गताँक से आगे)

विगत अंक (अगस्त 23) में आपने परमपूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से जाना कि क्रियायोग एवं भावयोग का अपना महत्त्व है। भजन तो सभी करते हैं, पर वास्तविकता को न समझ पाने के कारण व्यर्थ की मृगमरीचिका में उलझकर रह जाते हैं। अध्यात्म का मर्म बताते हुए गुरुवर कहते हैं कि जब तक भावना नहीं होगी, किसी कर्मकाँड में प्राण नहीं होगा। भावनाएँ कैसे परिष्कृत हों, इसी तथ्य को इस अंक में पढ़ें।

साथियो! अध्यात्म के बारे में यदि आप भावनाओं को परिष्कृत करने की बात समझ जाएँ तो मैं समझ लूँगा कि पचास फीसदी मंजिल आपने पूरी कर ली और आपको अध्यात्मिकता का लाभ उठाने का मौका मिल गया। अगर आपको यह भारी मालूम पड़ता है, कठिन मालूम पड़ता है तो आप अपने पैर इसमें न डालिए। इसमें बड़ा झगड़ा है। साहब! हमें क्या पता था कि इसमें बड़ा झगड़ा है। हमने तो समझा था कि हनुमान चालीसा पढ़ने से हनुमान जी खुश हो जाते हैं, पर अब तो वे खुश नहीं होंगे। हाँ बेटे ? पाँच पैसे का तूने हनुमान चालीसा खरीद लिया और तीन घंटे जप कर लिया, अब जो गलती हो गई सो हो गई, अब अपने पैर पीछे ले जा। सारी जिंदगी भर हनुमान चालीसा पढ़ने से तेरा कोई फायदा नहीं हो सकता। अगर हनुमान जी से फायदा उठाना चाहता है तो कर्मकाँडों के साथ-साथ भावनाओं का समन्वय कर। जिस दिन यह बात तेरी समझ में आ जाएगी, बस समझना चाहिए कि रास्ता खुल गया। तेरे लिए द्वार खुल गया है।

गीता और रामायण का शिक्षण

मित्रो! तब तो आप समझ गए होंगे कि वास्तविकता क्या है ? गीता रामायण जिसका हम यहाँ से प्रचार करते हैं, उसका हम यहाँ पर विद्यालय बनाने वाले हैं। गीता और रामायण को हम नियमित रूप से पढ़ाएँगे और हमारा विश्वास है कि रामचरित और कृष्णचरित के माध्यम से हम व्यक्ति और समाज दोनों की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ होंगे। व्यक्ति को कैसा होना चाहिए ? व्यक्ति जीवन का परिष्कार कैसे होना चाहिए। यह हम रामायण के द्वारा लोगों को सिखा देंगे, यह हमें पूरा विश्वास है। रामायण में वे सारी-की-सारी चीजें विद्यमान हैं, जो व्यक्ति और परिवार दोनों को ठीक और समन्वित बना सकती हैं। इसलिए हम रामायण का उपयोग करेंगे,। भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और कृष्ण पूर्ण पुरुष हैं। सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने के लिए मनुष्य की नीतियाँ क्या होनी चाहिए ? समाज के साथ में अपनी डीलिंग करने के लिए, लोकव्यवहार के लिए, समाज की कुरीतियों का समाधान करने के लिए जो शिक्षाएँ हमें कृष्णचरित से मिलती हैं, रामचंद्र जी से नहीं मिलतीं। वे एकाँगी हैं। पिताजी ने वनवास दे दिया । अरे साहब ! पिताजी ने निकाल दिया तो चलो जंगल में। पिताजी गलती करते हैं तो करते हैं, हमको तो गलती नहीं करनी चाहिए। हम तो पिताजी की आज्ञा मानकर जाएँगे। उनका जीवन एकाँगी है ? किनका ? राम का। ठीक है कि प्रजा के हित का ध्यान रखना चाहिए, प्रजा का कहना मानना चाहिए, लेकिन सीताजी के साथ क्यों अन्याय करना चाहिए ? यह एकाँगी जीवन है। एकाँगी जीवन में राम ने मर्यादाओं का पालन किया।

पूर्णपुरुष श्रीकृष्ण

कृष्ण? कृष्ण को हम पूर्ण पुरुष कहते हैं। पूर्ण पुरुष क्यों ? क्योंकि उनके जीवन में इन सारी बातों का समन्वय है। जहाँ उन्होंने त्याग की जरूरत समझी है, सेवा की जरूरत समझी है, दान देने की जरूरत समझी है, सबको दान देते चले गए हैं। उन्होंने निस्पृह योगी की तरह जीवन जिया और जहाँ उन्होंने जरूरत समझी है, वहाँ चालाक के साथ चालाकी, बेईमान के साथ बेईमानी और झूठ के साथ झूठ की भूमिका निभाई है। भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण व्यक्ति हैं, पूर्ण पुरुष हैं। मित्रो! दोनों ग्रंथों के माध्यम से अब हम समाज को नए रूप से उठाने के लिए तैयार हो गए हैं, प्रतिबद्ध हो गए हैं। हम लोगों को रामचरित पढ़ाएँगे, जो उन्होंने अब तक पढ़ा ही नहीं। अब हम ‘हरे रामा, हरे कृष्णा ‘ का आँदोलन नए ढंग से चलाएँगे। हम लोगों को यह बताएँगे कि ताली बजाने से, खंजरी बजाने से, करताल बजाने से और उदक-फुदक मचाने से राम का नहीं हो सकता। ‘हरे रामा हरे कृष्णा के पीछे जो एक प्रेरणा है, जो एक दिशा है, जो भावना है, जो चेतना है, जो आग उसके पीछे जल रही है, उससे हमें गरम होना पड़ेगा। इसलिए हम रामचरित और कृष्णचरित के माध्यम से अब खड़े हुए हैं। रामचरित और कृष्णचरित के बारे में जिन पुस्तकों का हमने चयन किया है, उसके बारे में मैं एक बार चुपचाप विचार करने लगा कि अरे भाई ये किसकी किताबें हैं, गीता लड़ाई-झगड़े की किताब है ? धत् तेरे की! वहाँ एक ओर “द्यौ शाँति ......की किताबें पढ़ने चले हो और अब दूसरी ओर लड़ाई-झगड़े की किताब लेकर चल दिए लोगों को पढ़ाने। अरे रामचंद्र के जीवन में सब लड़ाई-झगड़ा भरा पड़ा है । विश्वामित्र उनको अपने यहाँ ले गए और उन्होंने ताड़का को मारा, सुबाहु को मारा, मारीचि को मारा, खरदूषण को मारा, मेघनाद को मारा, कुँभकर्ण को मारा और रावण को मारा। मारकाट-मारकाट सब तरफ मारकाट मची हुई है। धत् तेरे की! ये कौन-सी किताब ले आये गुरुजी? आप तो पहले शाँति की किताब ले आए थे, पर अब तो आप अशाँति की किताब लाए हैं। शाँतिकुँज में अशाँति की किताब! बेटे, तो मैं क्या कर सकता हूँ! हमारे ऋषियों ने यही बताया था कि रामचंद्र जी का जीवन ऐसे पढ़ना चाहिए।

गीता का मर्म

मित्रों! जब श्रीकृष्ण भगवान की किताब पढ़ो तो यह पाया कि भई! यह क्या चक्कर है? ये सब क्या गड़बड़ हो गया है? अर्जुन बेचारा तो कह रहा था कि हम तो चाय की कैन्टीन चलाएँगे और गुजारा करेंगे और चना-चिरवा बेचेंगे और पच्चीस रुपये रोज कमाएँगे। बहुत से आदमी होटल चलाते हैं। हम भी अपने बच्चों का पाजन कर लेंगे। आप हमें लड़ाई-झगड़े में क्यों फँसाते हैं? इस पर श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को खूब गालियाँ सुनाईं और कहा, ‘तू क्जीव है, नपुँसक है, तू ऐसा है, तू वैसा है, हजार गालियाँ सुनाईं और हजार खुशामदें भी कीं। कहा मरने के बाद चारों ओर तेरा सुयश गूँजेगा। उन्होंने कहा- “हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥”

कैसी-कैसी चालाकियाँ, कैसी-कैसी बातें कीं तू जीता तो राजा बन जाएगा और मारा गया तो मोक्ष मिलेगा। कैसी-कैसी बातें बताईं और जब नहीं माना, तो कहने लगे कि तू कायर है, नपुँसक है, उल्लू है, बेवकूफ है। चल-लड़ाई कर, मर। जब अर्जुन का विवेक जगा, तब उसने कहा, “करिष्ये वचनं तव” जैसा आप कहेंगे, वैसा हम मानेंगे और करेंगे।

अरे बाबा! ये किसकी किताब है? बेटे ये लड़ाई की किताब है, झगड़े की किताब है, मार-काट की किताब है, हत्याखोरी की किताब है, खून बहाने की किताब है। तो महाराज जी। आप शाँतिकुँज में खून-खराबे की किताब काहे को लिए फिरते हैं? बेटे, इस बात की जरूरत थी। फिर मैं इस बात पर विचार करने लगा कि क्या गीता की किताब मुझे पढ़नी चाहिए थी और लोगों को पढ़ानी या बतानी चाहिए थी?

हम तो क्षत्रिय हैं

क्या बात बतानी चाहिए थी? आप कौन हैं? हम तो साहब! यदुवंशी राजपूत हैं। तो आप में कोई ब्राह्मण भी है क्या? नहीं साहब! ब्राह्मण तो नहीं है। अच्छा तो कोई बनिया होगा, कोई पोरवाल होगा, अग्रवाल होगा, खंडेलवाल होगा आप में से कोई? नहीं साहब! हम कोई खंडेलवाल नहीं, हममें से कोई अग्रवाल नहीं। तो आप में से कोई पंडित जी हो सकते हैं, कोई गौड़, कान्यकुब्ज, सनाढ्य, सारस्वत तो होंगे ही। नहीं महाराज जी। हम यह भी नहीं हैं। हम तो क्षत्रिय हैं। राम और कृष्ण दोनों के दोनों, जिनका चरित्र हम आपको पढ़ाने वाले हैं, जिनकी शिक्षाएँ हम आपको देने वाले हैं और जिनके हम अनुयायी बनाने वाले हैं और आपको जिनका अनुचर बनाने वाले हैं, वे कौन हो सकते हैं? वे बहादुर हो सकते हैं। क्षत्रिय से मतलब हमारा जाति-बिरादरी से नहीं हैं। जाति-बिरादरी का मैं कायल नहीं हूँ। आप हमारे चौके में रोटी खाते हैं। मैंने कब पूछा आपसे कि आप बनिया हैं कि शूद्र हैं कि राजपूत कौन हैं आप? आप इन्सान हैं और भगवान के भक्त हैं और गायत्री के उपासक हैं। इतना परिचय मेरे लिए काफी हैं।

मित्रों! गायत्री तपोभूमि में जब मैंने हजार कुँडीय यज्ञ किया था तो एक बार पंडों से झगड़ा हो गया। पंडों ने कहा कि इनके चेलों को भड़काना चाहिए और कहना चाहिए कि ये तो ब्राह्मण नहीं हैं। तो कौन हैं? बढ़ई हैं। बढ़ई कौन होता है? वो जो लकड़ी का धंधा करता है। ये वही हैं और अब बामन बन गए हैं। लोगों ने मुझसे पूछा-क्यों साहब! आप तो बढ़ई हैं? नहीं बेटा, तुझसे समझने में गलती हुई है। तो कौन हैं आप? आपकी बिरादरी क्या हैं?

हम तो धोबी और भंगी हैं

कोई मुझसे जब मेरी अच्छी बिरादरी जानना चाहता है तो हम कहते है कि धोबी हैं और जब खराब बिरादरी जानना चाहता है तो कहते हैं कि हम भंगी हैं। तो गुरुजी! आप धोबी और भंगी कैसे हैं? बेटे, धोबी ऐसे हैं कि मैं कपड़े धोना चाहता हूँ और भंगी ऐसे हैं कि टट्टियाँ साफ करना चाहता हूँ। मेरा मकसद एक है- मैं झाडू लेकर अवतरित हुआ हूँ, बुहारी लेकर अवतरित हुआ हूँ। मन मस्तिष्क के भीतर वाले और बाहर वाले हिस्से की सफाई के अतिरिक्त मेरे अवतरण का और कोई मकसद नहीं हैं। मैंने अपने आपकी सफाई एवं औरों की सफाई कराने के लिए कसम खाई है। अपना कपड़ा धोने के लिए तथा दूसरों के कपड़े धोने के लिए मैंने कसम खाई है। इसलिए मुझे धोबी होना चाहिए। अच्छा तो आप ब्राह्मण हैं? बेटे, मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ब्राह्मण होने के नाम पर यदि तू मेरी पूजा करता हो तो मत कर। अगर तूने यह समझकर गुरु दीक्षा ली हैं कि मैं पंडित हूँ, ब्राह्मण हूँ, तो बेटे मैं इंकार करता हूँ और अपनी गुरुदीक्षा वापस लेता हूँ और तूने जो सवा रुपया गुरुदक्षिणा दी थी, वह भी तू वापस ले जा। इसलिए जन्म के आधार पर मैं बहस नहीं करता। मैं यह बात कर्म के आधार पर कहता हूँ। मनुष्य जाति के आधार पर नहीं, अपने कर्म के आधार पर ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि बनता है। यही सनातन सत्य है।

अध्यात्म एक प्रकार का समर

मित्रो! कर्म के आधार पर प्रत्येक अध्यात्मवादी को क्षत्रिय होना चाहिए, क्योंकि, “सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्“ अर्थात् इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही लड़ते हैं। बेटे, अध्यात्म एक प्रकार की लड़ाई हैं। स्वामी नित्यानंद जी की बंगला की किताब है ‘साधना समर’। ‘साधना समर’ को हमने पढ़ा, बड़े गजब की किताब है। मेरे ख्याल से हिंदी में इसका अनुवाद शायद नहीं हुआ है। उन्होंने इसमें दुर्गा का, चंडी का और गीता का मुकाबला किया है। दुर्गा सप्तशती में सात सौ श्लोक हैं और गीता में भी सात सौ श्लोक हैं। दुर्गा सप्तशती में अठारह अध्याय हैं, गीता के भी अठारह अध्याय हैं। उन्होंने ज्यों-का-त्यों सारे-के सारे दुर्गा पाठ को गीता से मिला दिया है और कहा है कि साधना वास्तव में समर है। समर मतलब लड़ाई, महाभारत। यह महाभारत हैं, यह लंकाकाँड है। इसमें क्या करना पड़ता है? अपने आप से लड़ाई करनी पड़ती है, अपने आपकी पिटाई करनी पड़ती है, अपने आप की धुलाई करनी पड़ती है और अपने आपकी सफाई करनी पड़ती है। अपने आप से सख्ती से पेश आना पड़ता है।

हम बाहर वालों के साथ जितनी भी नरमी कर सकते हैं, वह करें। दूसरों की सहायता कर सकते हैं। उन्हें क्षमा कर सकते हैं, दान दे सकते हैं, उदार हो सकते हैं, दूसरों को सुखी बनाने के लिए जितना भी, जो कुछ भी कर सकते हों, करें। लेकिन आने साथ, अपने साथ हमको हर तरह से कड़क रहना चाहिए। अपनी शारीरिक वृत्तियों और मानसिक वृत्तियों के विरुद्ध हम जल्लाद के तरीके से, कसाई के तरीके से इस तरह से खड़े हो जाएँ कि हम तुमको पीटकर रहेंगे, तुमको मसल कर रहेंगे, तुमको कुचलकर रहेंगे। अपनी इंद्रियों के प्रति हमारी बगावत इस तरह की होनी चाहिए और अपनी मनः स्थिति के विरुद्ध बगावत इस स्तर की होनी चाहिए। हम अपनी मानसिक कमजोरियों को समझें, न केवल समझें, न केवल क्षमा माँगें, वरन् उनको उखाड़ फेंकें। गुरुजी, क्षमा कर दीजिए। बेटे, क्षमा का यहाँ कोई लाभ नहीं, अंग्रेजों के जमाने में जब काँग्रेस का आँदोलन शुरू हुआ था, तब यह प्रचलन था कि माफी मांगिए, फिर छुट्टी पाइए। जब अँग्रेजों ने देखा कि ये तो माफी माँग कर छुट्टी ले जाते हैं फिर दुबारा आ जाते हैं। उन्होंने कहा ऐसा ठीक नहीं है, जमानत लाइए पाँच हजार रुपये की। जो जमानत लाएगा, उसी को हम छोड़ेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ेंगे। माफी ऐसे नहीं मिल सकती। फिर पाँच-पाँच हजार की जमानतें शुरू हुईं। जिनको जरूरी काम थे, उन्हें इस तरह की जमानत पर छोड़ देते थे। फिर पाँच हजार की इन्क्वायरी शुरू हुई। उन्हीं सी.आई.डी. ने रिपोर्ट दी कि साहब, ये जमानत पर चले जाते हैं और पाँच हजार से ज्यादा का आपका नुकसान कर देते हैं। फिर उन्होंने जमानतें भी बंद कर दीं।

अपने साथ कड़ाई करिए

मित्रों! भगवान ने भी ऐसा किया है कि माफी देने का रोड-रास्ता बंद कर दिया है किसी को माफी दीजिए गुरुजी! माफी कहाँ है यहाँ, दंड भोग। इसलिए क्या करना पड़ेगा? अपने साथ में कड़ाई करने की जिस दिन आप कसम खाते हैं, जिस दिन आप प्रतिज्ञा करते हैं कि हम अपनी कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। अपनी शारीरिक कमजोरियोँ के तई और अपनी मानसिक कमजोरियों के तई कड़क बनेंगे। बेटे, दोनों क्षेत्रों में इतनी कमजोरियों भरी पड़ी है कि इन्होंने हमारा भविष्य चौपट कर डाला, व्यक्तित्व का सत्यानाश कर दिया। आध्यात्म यहाँ से शुरू होता है। यहाँ से भी भगवान को मानने वाली बात शुरू होती है, भगवान का दर्शन शुरू होता हैं अंगार के ऊपर चढ़ी हुई परत को जिस तरह हम साफ कर देते है और वह चमकने लगता है, उसी तरह हमारी आत्मा पर मलीनताओं की जो परत चढ़ी हुई हैं। मलीनताओं की इन परतों को हम धोते हुए चले जाएँ तो भीतर बैठे हुए भगवान का, आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।

मंत्र नहीं, मर्म से जानें

क्यों साहब लक्स साबुन से हम कपड़ा धोएं कि हमाम से धोएँ या सर्फ से धोएँ। बेटे, मेरा दिमाग मत खा। तू चाहे तो सर्फ से धो सकता है, लक्स से-सम्राट से धो सकता है, हमाम से धो सकता है, नमक से, रीठा से धो सकता है। महाराज जी! क्या गायत्री मंत्र से मेरा उद्धार हो जाएगा? चंडी के मंत्र के उद्धार हो जाएगा या हनुमान जी के मंत्र से उद्धार होगा? बेटे, इसमें बस इतना फर्क है जितना कि सर्फ और सनलाइट में फर्क होता है और कोई खास बात नहीं है। हनुमान जी के मंत्र से भी साफ हो सकता है। तू हिंदू है या मुसलमान है तो भी साफ हो सकता है। बस तू ठीक तरीके से इस्तेमाल कर! गुरुजी! गायत्री मंत्र से मुक्ति मिल जाती है या ‘राम रामाय नमः’ से? बेटे अब मैं इससे कहीं आगे चला गया हूँ। अब मैं यह बहस नहीं करता कि गायत्री मंत्र का जप करेंगे तो आपकी मुक्ति होगी और हनुमान जी का जप करेंगे, तो मुक्ति नहीं होगी। बेटे, सब भगवान के नाम हैं साबुन में केवल लेबल का फर्क है, असल में उनका उद्देश्य एक है।

मित्रों! साधना का उद्देश्य एक है कि हमारी भीतर वाली मनः स्थिति की सफाई होनी चाहिए, जो हमारी शरीर की विकृतियों और मानसिक विकृतियों के लिए जिम्मेदार है। हमारी मानसिक और शारीरिक विकृतियाँ ही है, जिन्होंने हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी की हैं। अगर हम इस दीवार को नहीं हटा सकते, तो हमारे पड़ोस में बैठा हुआ भगवान हमें साक्षात्कार नहीं दे सकता। बेटे, भगवान ओर हम में दीवार का फर्क है, जिससे भगवान हमसे कितनी दरी पर है? गुरुजी! भगवान तो लाखों-करोड़ों कि.मी. दूर रहता है? नहीं बेटे, करोड़ों कि.मी. दूर नहीं रहता। वह हमारे हृदय की धड़कन में रहता है, लपडप के रूप में हमारी साँसों में प्रवेश करता है। हमारी नसों में गंगा-जमुना की तरह से उसी का जीवन प्रवाहित होता है। हमारा प्राण भगवान है और हमारे रोम-रोम में समाया हुआ है। तो दूर कैसे हुआ? दूर ऐसे हो गया कि हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी हो गई। उस दीवार को गिराने के लिए जिस छैनी-हथौड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है, उसका नाम है पूजा और पाठ।

(शेष अगले अंक में)


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