शिष्य संजीवनी-3 - गुरुचेतना के प्रकाश में स्वयं को परखें

September 2003

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शिष्य संजीवनी का सेवन (मनन-चिन्तन) जिन्होंने भी किया है- वे इसके औषधीय गुणों को अनुभव करने लगे हैं। अपने व्यक्तित्व में उन्हें नए परिवर्तन का अहसास हो रहा है। कुछ ऐसा लग रहा है- जैसे अन्तःकरण में कहीं शिष्यत्व की मुरझाई-कुम्हलायी बेल फिर से हरी होने लगी है। निष्क्रिय पड़े भक्ति एवं समर्पण के तत्त्वों को सक्रियता का नया उछाह मिल गया है। आन्तरिक जीवन में भावान्तर की अनुभूति उन सबको है- जो इस अमृत औषधि को ले रहे हैं। इन सभी की अनुभूतियों में निखरा हुआ शिष्यत्व बड़ा ही स्पष्ट है। हालाँकि इन अनुभूतियों में उनकी जिज्ञासाएँ भी घुली-मिली हैं। इन जिज्ञासाओं का सार एक ही है कि शिष्य संजीवनी की सेवन विधि क्या है?

इस सार्थक प्रश्न के समाधान में शिष्यत्व की साधना करने वाले अपने स्वजनों से यही कहना है- कि प्रथम बार शिष्य संजीवनी की कथा को उसी भाँति पढ़ें, जैसे इस पत्रिका के अन्य लेखों को पढ़ते हैं। दूसरी बार इसमें बताए गए सूत्र पर गहरा चिन्तन करें और उसे अपने जीवन में आत्मसात करने के लिए संकल्पित हों। इसके बीच-बीच में शिष्य संजीवनी के प्रकाश में अपने को परखते रहें कि हम अपनी शिष्यत्व साधना में कहाँ तक खरे उतर रहे हैं। दृढ़ निष्ठ एवं श्रद्धा सिक्त समर्पण ही इस महासाधना का सम्बल है।

जिन्होंने अपने अन्तर्जीवन में यह पूँजी जुटा ली है- उनके लिए शिष्य संजीवनी का दूसरा सूत्र है- “जीवन की तृष्णा और सुख प्राप्ति की चाहत को दूर करो। किन्तु जो महत्त्वाकाँक्षी हैं उन्हीं की भाँति कठोर श्रम करो। जिन्हें जीवन की तृष्णा है, उन्हीं की भाँति सभी के जीवन का सम्मान करो। जो सुख के लिए जीवन यापन करते हैं, उन्हीं की भाँति सुखी रहो। अपने हृदय के भीतर पनपने वाले पाप के अंकुर को ढूंढ़कर, उसे बाहर निकाल फेंको। यह अंकुर श्रद्धालु शिष्य के हृदय में भी यदा-कदा उसी तरह पनपने लगता है जैसे की वासना भरे मानव हृदय में। केवल महावीर साधन ही उसे नष्ट कर डालने में सफल होते हैं। जो दुर्बल हैं, वे तो उसके बढ़ने-पनपने के साथ भी नष्ट हो जाते हैं।”

यह अनुभव सभी महान् शिष्यों का है। शिष्य के जीवन में तृष्णा और सुख की लालसा की कोई जगह नहीं है। मजे की बात है कि तृष्णा और सुख की लालसा किसी को भी सुखी नहीं कर पाती, हालाँकि प्रायः सभी इसमें फँसे-उलझे रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए जीवन आज में नहीं है, आने वाले कल में है। भविष्य में जीवन को खोजने वाले अपने वर्तमान से हमेशा असन्तुष्ट, असंतृप्त बने रहते हैं। इस सच्चाई का एक पहलू और भी है, जो तृष्णा और सुख की लालसा से अपने आप को जितना भरता जाता है- वह उतना ही अपने अहंकार को तुष्ट और पुष्ट करता रहता है। जबकि अहंकार का शिष्यत्व की साधना से कोई मेल नहीं है।

शिष्यत्व तो समर्पण की साधना है- जिसका एक ही अर्थ है- अहंकार का अपने सद्गुरु के चरणों में विसर्जन। हालाँकि इस समर्पण-विसर्जन के साथ भी कई तरह के भ्रम जनमानस में व्याप्त हैं। कई लोगों का सोचना है कि जब हमने समर्पण कर दिया- तब हम फिर कुछ काम क्योँ करें? जब तृष्णा नहीं सुख की लालसा नहीं तब फिर मेहनत किसलिए? ये सवाल दरअसल भ्रमित मन की उपज है। जो जानकार हैं, समझदार हैं वे जानते हैं कि समर्पण और श्रद्धा का मतलब-निकम्मापन या निठल्ले बैठे रहना नहीं है। बल्कि इसका अर्थ है- सत्य के लिए, अपने गुरुदेव के लिए स्वयं को सम्पूर्ण रूप से झोंक देना। इस सम्बन्ध में रमण महर्षि कहा करते थे- यह कैसी उलटबाँसी है कि मिट्टी की खोज में आदमी सब कुछ लगा देता है- पर अमृत की खोज में कुछ भी नहीं लगाना चाहता। जबकि शिष्य तो वही है- जो गुरु के एक इशारे पर जीवन पर्यन्त अटूट और अथक श्रम करता रहे।

केवल शिष्य ही जीवन का सच्चा ज्ञाता होता है, इसलिए उसे जीवन की महान् सम्भावनाओं को उजागर करने में तत्पर रहना चाहिए। यह तभी सम्भव है कि जब उसके मन में अपने और सभी के जीवन का सम्मान हो।साथ ही वह सुख के लिए इधर-उधर भटके नहीं बल्कि अपने कर्त्तव्य पालन में सुख की अनुभूति करे। भगवान् बुद्ध का कथन है कि इस संसार में सुखी वही है, जिसने सुख की वासना छोड़ दी है। वास्तविक दुख तो वासनाओं का है। जो जितना ज्यादा वासनाओं, कामनाओं एवं लालसाओं से भरा है, वह उतना ही ज्यादा दुःखी है। वासनाओं और लालसाओं के छूटते ही अन्तश्चेतना में शान्ति और सुख की बाढ़ आ जाती है। सब तरफ से सुख ही सुख बरसता है। समूची प्रकृति हर पल मन-अन्तःकरण को सुख से भिगोती रहती है।

समर्पण, श्रमशीलता के साथ शिष्य को हर पल जागरुक भी रहना जरूरी है। उसे हमेशा सजग रहना पड़ता है कि कहीं कोई दुर्विचार, कोई बुरा भाव तो उसके अन्तःकरण में नहीं पनप रहा। कोई पाप तो उसकी अन्तर्चेतना में नहीं अंकुरित हो रहा। यद्यपि श्रद्धालु शिष्य में इसकी सम्भावना कम है, परन्तु वातावरण का कुप्रभाव कभी भी किसी पर भी हावी हो सकता है। इस समस्या का समाधान सूत्र एक ही है- अपने प्रति कठोरता, दूसरों के प्रति उदारता। औरों के प्रति हमेशा प्रेमपूर्ण व्यवहार करने वाले साधक को अपने प्रति हमेशा ही कठोर रहना पड़ता है। हमेशा ही अपने बारे में सावधानी बरतनी पड़ती है।

अंतरमन में वर्षों के, जन्मों के संस्कार हैं। इनमें भलाई भी मौजूद है और बुराई भी। प्रकृति ने परत-दर-परत इनकी बड़ी रहस्यमय व्यवस्था बना रखी है। ऊपरी तौर पर इसे जानना-पहचानना-समझना आसान नहीं है। बड़ी मुश्किल पड़ती है इस गुत्थी को सुलझाने में। जो बहुत ही ध्यान परायण है, जिनका अपने गुरु के प्रति समर्पण सच्चा और गहरा है, वही इनके जाल से बच पाते हैं। अन्यथा अचानक और औचक ही इसमें फँस कर अपना और अपनी साधना का सत्यानाश कर लेते हैं।

पौराणिक साहित्य में ऐसे कई कथानक हैं, जिन्हें पढ़ने से पता चलता है कि बहुत ही समर्थ साधक वर्षों की निरन्तर साधना के बावजूद एक दिन अचानक अपना और अपनी साधना का सत्यानाश करा बैठे। महर्षि वाल्मीकि रामायण के आदिकाण्ड में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की कथा कुछ ऐसी ही है। त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजने वाले विश्वामित्र को अपनी साधना में कई बार स्खलित होना पड़ा। ऐसा केवल इसलिए हुआ, क्योंकि उन्होंने अपने ऊपर सजग दृष्टि नहीं रखी। शिष्य का पहला और अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह अपने गुरुदेव के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखे।

गुरु चेतना के प्रकाश में हमेशा स्वयं को परखता रहे कि कहीं कोई लालसा, वासना तो नहीं पनप रही। कहीं कोई चाहत तो नहीं उमग रही। यदि ऐसा है तो वह अपनी मनःस्थिति को कठिन तप करके बदल डाले। उन परिस्थितियों से स्वयं को दूर कर ले। क्योंकि पाप का छोटा सा अंकुर, अग्नि की चिंगारी की तरह है- जिससे देखते-देखते समस्त तप साधना भस्म हो सकती है। इसलिए शिष्यों के लिए महान् साधकों का यही निर्देश है कि जीवन की तृष्णा एवं सुख की चाहत से सदा दूर रहें। इस सूत्र को अपनाने पर ही शिष्य संजीवनी का अगला सूत्र इसी कथा में अगली बार प्रकट होगा। जिसके द्वारा शिष्यत्व की साधना के नए वातायन खुलेंगे, नए आयाम विकसित होंगे।


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