वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति ने समूची दुनिया का परिदृश्य ही बदल दिया है। आज सब के लिए सब कुछ है। अगर नहीं है तो सिर्फ नन्हें-मुन्नों के पढ़ने के लिए कुछ नहीं है। आज जब भी कोई बच्चा स्कूली किताबों के अतिरिक्त कुछ और पढ़ना चाहता है, तो उसके सामने यह प्रश्नचिह्न उपस्थित हो जाता है कि वह क्या पढ़े? अभिभावक भी उसकी समस्या का समाधान दे पाने में असफल हैं। बाल साहित्य की इतनी घोर उपेक्षा पहले कभी नहीं हुई।
पहले प्रतिष्ठित लेखकों की लेखनी भी इस दिशा में गतिशील थी। सच तो यह है जब तक कोई लेखक बाल साहित्य न लिखे उसे लेखक ही नहीं माना जाता था। परन्तु आज हालत यह है कि बाल साहित्य लिखना द्वितीय श्रेणी का लेखन माना जाता है। सम्भवतः उनकी दृष्टि में बच्चों के लिए साहित्य का कोई महत्त्व ही नहीं है। उनकी यह सोच कुछ हद तक सत्य भी है, क्योंकि टीवी एवं कम्प्यूटर से आक्राँत, स्कूली किताबों के बोझ तले दबे बच्चे आखिर कब और क्या पढ़ें? साथ ही बच्चों के सोच में भी बदलाव आया है, परन्तु इसमें बच्चों का दोष नहीं है। दोष है उन अभिभावकों का जो बच्चों की नैसर्गिक इच्छाओं को दबाकर उनके माध्यम से अपनी इच्छा पूरी करते हैं। दोष है उन साहित्यकारों का जो बच्चों की सोच, उनकी रुचियाँ, उनके बौद्धिक स्तर के अनुरूप साहित्य नहीं लिख पा रहे हैं।
इसका दुष्परिणाम भी सामने है। सकारात्मक बाल साहित्य के अभाव में बच्चों में आदर्शों एवं मूल्यों के प्रति कोई लगाव नहीं है। वे अपनी ही संस्कृति को हीनता की दृष्टि से देखते हैं। साहित्य नहीं पढ़ने से संवेगात्मक मूल्यों में जो शून्यता आयी है, उस शून्य को साहित्य ही भर सकता है। एक जमाना था जब मुँशी प्रेमचन्द जैसे प्रतिष्ठित लेखकों की कलम से बाल-मन को झाँकती, टटोलती ढेरों रचनाएँ निकलती थीं। ऐसे-ऐसे चरित्र गढ़े जाते थे, जो बाल-मन के साथ बड़ों को भी छू लेते थे, क्योंकि वे चरित्र यथार्थ के करीब हुआ करते थे। बच्चे स्वयं को उन चरित्रों में महसूस करते थे। फलस्वरूप उनमें संवेदनाओं की निर्मल निर्झरिणी बचपन से ही प्रवाहित होने लगती थी।
हममें से जिसने भी अपने बचपन में मुँशी प्रेमचन्द की कहानी ‘ईदगाह’ पढ़ी है, वह ईदगाह के अमर पात्र हमीद को शायद जीवन भर नहीं भूल पाएगा। मेले के समस्त बाल सुलभ आकर्षणों के बीच भूखे-प्यासे नन्हें हमीद का अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदने के लिए सारे पैसे खर्च कर देना आज भी हमारी संवेदना में, हमारी भावनाओं में एक उफान ला देता है।
वास्तव में बच्चों के मन की बात कोई जानना ही नहीं चाहता। घर में अभिभावक, स्कूल में शिक्षक सभी जगह उन पर अपने मन की थोपी जाती है। आज भी बच्चे संवेदनशील व जागरुक हैं। पर मूल्य बिखर रहे हैं और यहीं पर अच्छे बाल साहित्य की आवश्यकता होती है। बच्चों की दुनिया में, उनके आसपास के परिवेश में जो परिवर्तन हो रहा है, उसे समझना होगा। बच्चे क्या सोचते हैं, किस रूप में सोचते हैं इसकी जानकारी भी होनी चाहिए।
बच्चों के लिए ऐसा लिखा जाना चाहिए जिसे बच्चे खुद से जोड़ सकें। किसी भी प्रकार से वह उन्हें जबरदस्ती थोपा हुआ न लगे। उनके परिवेश और उनके इर्द-गिर्द की रचना ही उन्हें समझ में आएगी। बच्चों को यह लगना चाहिए कि उनकी रचना उन्हीं की दुनिया से ली गयी है। बच्चों के लिए कई तरह के सकारात्मक साहित्य लिखे जा सकते हैं। पर ‘यह अच्छा है, इसी को पढ़ो’ यह कहना ठीक नहीं। उनकी रुचि के अनुरूप चुनाव की स्वतंत्रता उन्हें ही होनी चाहिए। परी कथा जैसी पारम्परिक रचनाएँ बाल-मन को निश्चित ही आकर्षित करती हैं। अतः इस तरह की कहानियों को आज के परिवेश में कुछ ऐसे लिखा जाना चाहिए कि वे परियों पर निर्भर रहने के बजाय परी कथाओं से प्रेरणा ग्रहण करें।
कल्पनाशील दुनिया के अतिरिक्त एक यथार्थ की दुनिया भी है और वह है सामाजिक व समसामयिक संघर्ष की दुनिया। यह संघर्ष खासकर बच्चों का जो संघर्ष है उससे उनके मन में हजारों प्रश्न पैदा होते हैं। इन प्रश्नों को उजागर करना और उनका रचनात्मक समाधान बाल साहित्य का अनिवार्य अंग होना चाहिए। वास्तव में बच्चों के अनगिनत प्रश्नों का जवाब कितने रोचक एवं रचनात्मक तरीके से बच्चों को दिया जा सकता है। यह साहित्यकारों के लिए एक चुनौती है। बच्चों के लिए लेखन को द्वितीय श्रेणी का मानने वालों को इस सत्य को समझना होगा कि बच्चों के लिए लिखे बिना हर साहित्यकार अधूरा है। मनुष्य की प्रकृति के विकास में जो चीजें शामिल होती हैं, उनकी जानकारी बच्चों का साहित्य लिखकर ही प्राप्त हो सकता है। मानव मस्तिष्क और उसकी संवेदनाओं को समझने का सबसे अच्छा साधन बच्चों का साहित्य ही है।
पर इन सबके लिए जरूरी है लेखक का बाल मनोविज्ञान से परिचित होना। बच्चों की रुचियों एवं समस्याओं को बहुत करीब से महसूस करना। माता-पिता, गुरु, समाज, राष्ट्र इन सबके प्रति जो कर्त्तव्य की बात है, वह बदले जरूर हैं पर बिगड़े नहीं हैं। विकसित होते नये आदर्शों के अनुरूप साहित्य सृजन करना होगा। नागरिक व्यवहार, कानून, संविधान, संस्कृति, राष्ट्रीयता, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावनाओं को जिस प्रकार पहले की जातक कथाओं में उभारा जाता था, उसका महत्त्व आज भी है। आवश्यकता सिर्फ समय के अनुरूप उनमें परिवर्तन की है।
कॉमिक्स बच्चों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। यह अलग बात है कि साहित्य की इस विधा का दुरुपयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ है। हर गली-मुहल्ले में बिकने वाली 95 प्रतिशत कॉमिक्स का स्तर निम्न ही होता है। कुछ और उपलब्ध न हो पाने के कारण बच्चा जो भी हाथ में आता है उसे ही पढ़ लेता है। कोर्स की किताबों से ऊबा हुआ मन परिवर्तन की चाह में कुछ भी अनाप-शनाप पढ़कर अपनी ऊब मिटाना चाहता है।
विदेशों में ‘कॉमिक्स कोड अथॉरिटी’ होती है। जिसकी मंजूरी के बिना कॉमिक्स छप नहीं सकते। परन्तु हमारे यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। शिक्षा मंत्रालय का भी कोई नियंत्रण नहीं है। ऐसी स्थिति में जैसे भी कॉमिक्स हों सब निकल रहे हैं। जबकि इस लोकप्रिय विधा का उपयोग बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ उनकी कठिन से कठिन समस्याओं के समाधान हेतु भी रोचक तरीके किया जा सकता है।
बाल साहित्य में बच्चों की स्वयं की उपस्थिति भी होनी चाहिए। उन्हें अपनी पूरी शख्सियत एवं रचनात्मक ऊर्जा के साथ आना चाहिए। बच्चों को यह महसूस होना चाहिए कि जो वह पढ़ रहा है वह उनके साथ घट रहा है। इस दिशा में ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ बहुत अच्छा काम कर रहा है। मलयालम में तो एक ऐसी संस्था है जो सैकड़ों की संख्या में बच्चों की पुस्तकें छापती है, प्रदर्शनियाँ लगाती है और बच्चों से सम्बन्धित अन्य कई गतिविधियाँ चलाती है। वास्तव में हर प्रदेश में बाल साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएँ होनी चाहिए। जो राज्य सरकार से समर्थित हो। रूस, हंगरी, चैकोस्लोवाकिया एवं पूर्व यूरोप के देशों में बच्चों के लिए जिस स्तर का साहित्य लिखा जाता है वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। उन्होंने; बच्चों के विकास के लिए समग्र रूप से ध्यान दिया है। हमारे देश में भी इस प्रकार के जागरुक प्रयास की आवश्यकता है।
यह सत्य है कि पहले के बच्चों एवं आज के बच्चों के विचारों में, रहन-सहन में, चिन्तन में जमीन-आसमान का अन्तर आया है। संयुक्त परिवारों के बिखरने से जहाँ उनका पारिवारिक दायरा सिमटा है, वही माता-पिता के द्वारा ‘कम्पीटिशन’ की दौड़ में उन्हें बलात् धकेल दिये जाने से दुनिया के बारे में नन्हीं सी उम्र में ही उन्हें ढेरों जानकारियाँ हो जाती हैं। इन सबके बाद भी क्या बालसुलभ भावनाओं को बदला जा सकता है? बच्चे कल के हों या आज के, उनका नैसर्गिक भोलापन कैसे बदल सकता है? उनकी सरलता, उनकी सहृदयता को सकारात्मक बाल साहित्य का सृजन एक नयी दिशा दे सकता है।
बच्चों के मानसिक विकास में, व्यक्तित्व के विकास में साहित्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कभी-कभी कुछ पढ़ते हुए कोई बात मन को इतना प्रभावित कर जाती है कि सम्पूर्ण जीवन क्रम ही बदल जाता है। बच्चों के विकास के लिए इतनी अनिवार्य आवश्यकता की इतनी उपेक्षा किसी भी तरह उचित नहीं। साहित्यकारों का यह नैतिक दायित्व है कि वे ऐसे बाल साहित्य का सृजन करें,जो बाल-मन के टूटते-बिखरते भावनाओं को संवारे, पोषण दे और सही दिशा में नियोजित करे।