जीव को तीन भवबंधनों में बँधा हुआ माना जाता है। हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी और कमर में रस्सी से बँधे हुए चोर-तस्कर इधर से उधर ले जाए जाते है। घोड़े के पैरों में पिछाड़ी, गले में रस्सी और मुँह में लगाम लगी रहती हैं भवबंधन भी वासना, तृष्णा और अहंता के तीन ही है। इन्हीं के कारण निरंतर खिन्न-उद्विग्न रहना पड़ता है। इन तीन के अतिरिक्त मानव जीवन में अशाँति छाई रहने का और कोई कारण नहीं है। इन्हीं को काम, क्रोध, लोभ कहा गया है। इन्हीं तीनों के सम्मिश्रण में अनेकों प्रकार के मनोविकार उठते है और इन्हीं की प्रेरणा से अनेकानेक पापकर्म बन पड़ते है। इन तीनों बंधनों को खोला-काटा जा सके तो समझना चाहिए, बंधनमुक्ति का सौभाग्य बन गया। साधना विज्ञान में इन तीन बंधनों के खुलने पर तीन दिव्य शक्तियों के दर्शन एवं अनुग्रह का लाभ मिलने की बात कही गई है।
साधना विज्ञान के तत्वदर्शी वैज्ञानिकों ने तीन ग्रंथियों का विस्तृत विवेचन एवं निरूपण किया है। उन्हें खोलने के साधन एवं विधि-विधान बताए हैं। उनके नाम है ब्रह्म ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि, रुद्र ग्रंथि। रुद्र ग्रंथि का स्थान नाभि स्थान माना गया है, इसे अग्निचक्र भी कहते हैं। माता के शरीर से बालक के शरीर में जो रसरक्त प्रवेश करता है। उसका थान यह नाभि स्थान ही है। प्रसव के उपराँत नाल काटने पर ही माता और तान के शरीरों का संबंध विच्छेद होता है इस नाभिचक्र द्वारा ही विश्वब्रह्माँड का वह अग्नि प्राप्त होती रहती है जिसके कारण शरीर को तापमान मिलता ओर जीवन बना रहता है। स्थूल शरीर को प्रभावित करने वाली प्राण क्षमता का केंद्र यही है। शरीर शास्त्र के अनुसार नहीं, अध्यात्म शास्त्र के सूक्ष्म वान के अनुरूप प्राण धारण का केंद्र यही है। कुँडलिनी शक्ति इसी नाभिचक्र के पीछे अधोभाग में अवस्थित है मूलाधार चक्र का मुखद्वारा नाभि स्थान में है और अधोभाग में मल-मूत्र छिद्रों के मध्य केन्द्र है। इस केंद्र के जागरण-अनावरण का जो विज्ञान-विधान है यह त्रिपदा गायत्री के प्रथम चरण का क्षेत्र समझा जा सकता है।
दूसरी ग्रंथि है-विष्णु ग्रंथि। यह मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरंध्र में है। आज्ञाचक्र, द्वितीय नेत्र इसी को कहते है। पिट्यूटरी और पीनियल हारमोन ग्रंथियों का शक्तिचक्र यहीं बनता है। मस्तिष्क के खोखले को विष्णुलोक भी कहा गया है। इसमें भरे हुए भूरे पदार्थ को क्षीरसागर की उपमा दी गई है। सहस्रार चक्र को हजार फन वाला शेष सर्प कहा गया है। जिस पर विष्णु भगवान सोए हुए है। ब्रह्मरंध्र की तुलना पृथ्वी के ध्रुवप्रदेश से की गई हैं अनंत अंतरिक्ष में अंतर्ग्रही प्रचंड शक्तियों की वर्षा निरंतर होती रहती है। ध्रुवों में रहने वाला चुँबकत्व इस अंतर्ग्रही शक्ति वर्षा में अपने लिए आवश्यक संपदाएँ खींचता रहता है। पृथ्वी के वैभव की जड़ें इसी ध्रुव प्रदेश में है। वहाँ से उसे आवश्यक पोषण निखिल ब्रह्माँड की संपदा में उपलब्ध होता रहता हैं। ठीक इसी प्रकार मानवी काया एक स्वतंत्र पृथ्वी है। उसे अपनी अति महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर इसी ब्रह्मरंध्र के माध्यम द्वारा उपलब्ध होता रहता हैं। यह ध्रुवप्रदेश अवरुद्ध रहने से, मूर्च्छित स्थिति में पड़े रहने से सूक्ष्मजगत के अभीष्ट अनुदान मिल नहीं पाते और पिछड़ेपन की आत्मिक दरिद्रता छाई रहती है। विष्णुग्रंथि के जाग्रत होने पर ही वह द्वार खुलता है। दूरदर्शन, दूर-श्रवण, भविष्य-ज्ञान, विचार-संचालन, प्राण-प्रहार आदि अनेक योग और तंत्र में वर्णित शक्तियों का निवास इसी क्षेत्र में हैं। सिद्धियों की चौंसठ योगनियाँ यहीं समाधिसि बनकर लेटी हुई है। उन्हें यदि जगाया जा सके तो मनुष्य सहज ही सिद्ध पुरुष बन सकता है, उनकी अविज्ञात क्षमता विकसित होकर देवतुल्य समर्थता का लाभ दे सकती है।
यह भ्रम ही तो है जो मनुष्य को पथभ्रष्ट करता और उसके अनुपम सौभाग्य को व्यर्थ की बरबादी में नष्ट करता हैं इस विपत्ति से छुटकारा मिल सकने के साधनात्मक उपाय को विष्णुग्रंथि को खोलना कहते है। यह द्वार खुल जाने पर अनंत आकाश में बिखरी पड़ी बहुमूल्य ज्ञानसंपदा को बटोर लेना भी सहज संभव हो सकता है। सामान्य शिक्षा से जितना जिस क्षेत्र का ज्ञान संपादन किया जाता है, उसकी तुलना में कहीं ऊँचा और कहीं अधिक सुविस्तृत, परिष्कृत ज्ञान जाग्रत मनःसंस्थान से अनायास ही उपलब्ध किया जा सकता है। विष्णुग्रंथि के जागरण से मिलने वाली सफलता के अनुपात से इस प्रकार के अनेकों दिव्यज्ञान साधना प्रयोगों द्वारा सहज ही उपलब्ध होने लगते है। त्रिपदा गायत्री का दूसरा चरण विष्णुग्रंथि खुलने से संबंधित है।
त्रिपदा का तीसरा चरण ब्रह्मग्रंथि से संबंधित है। इसका स्थान हृदयचक्र माना गया हैं। इसे ब्रह्मचक्र भी कहते है। भावश्रद्धा, संवेदना एवं आकाँक्षाओं का क्षेत्र यही है। शरीरशास्त्र के अनुसार भी रक्त का संचार एवं संशोधन करने वाला केंद्र यही है। इस धड़कन को ही पेंडुलम की खट-खट की तरह शरीर रूपी घड़ी का चलना माना जाता है। अध्यात्मशास्त्र की मान्यता इससे आगे की है। उसके अनुसार हृदय की गुहा में प्रकाश ज्योति की तरह यहाँ आत्मा का निवास है। परमात्मा भावरूप में ही अपना परिचय मनुष्य को देते है। श्रद्धा और भक्ति के शिकंजे में ही परमात्मा को जकड़ा जाता है। यह सारा मर्मस्थल यहीं है। किसी तथ्य का हृदयंगम होना, किसी प्रियजन का हृदय में बस जाना जैसी उक्तियों से यह प्रतीत होता है। कि आत्मा का स्थान-निरूपण इसी क्षेत्र में किया गया है। उर्दू का प्रसिद्ध शेर है-“दिल के आइने में है तस्वीर यार की, जब जरा गरदन उठाई देख ली।”
हृदय चक्र ब्रह्मग्रंथि हैं। वहाँ से भावनाओं का, आकाँक्षा-अभिरुचि का परिवर्तन होता है। जीवन की दिशाधारा बदलती है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अंबपाली, विल्वमंगल, अजामिल आदि का प्रत्यावर्तन-हृदय परिवर्तन ही उन्हें कुछ-से कुछ बना देने में समर्थ हुआ। जीवन का समग्र शासनसूत्र यहीं से संचालित होता है। आकाँक्षाएँ विचारों का निर्देश देती है ओर मनःसंस्थान को अपनी मरजी पर चलाती है। मन के अनुसार शरीर चलता है। शरीर कर्म करता हैं कर्म के अनुरूप परिणाम और परिस्थितियां सामने आती है। परिस्थितियों में सुधार करना हो तो कर्म ठीक करने होंगे। शरीर पर नियंत्रण का और मस्तिष्क का अधिपति हृदय है। प्रियतम को हृदयेश्वर और हृदयेश्वरी कहा जाता है। मानवी सत्ता पर स्वामित्व हृदय का ही है।
तेज प्रवाह में बहती हुई नदी के मध्य जो भँवर पड़ते है, उनकी शक्ति सामान्य प्रवाह की तुलना में सैकड़ों गुनी अधिक होती है। सुदृढ़ नावों, जहाजों और मल्लाहों को भँवर में फंसकर डूबते देखा गया है। हवा गरम होने पर चक्रवात उठते है। उनकी तूफानी शक्ति देखते ही बनती है। मजबूत छत, छप्पर, पेड़ और मकानों को वे उठाकर कहीं से कहीं पटक देते है। रेत को आसमान में छोड़ते है और आँधी-तूफान के बवंडर उठकर अपने प्रभावक्षेत्र को बुरी तरह अस्त-व्यस्त कर देते हैं ऐसे ही कुछ चक्रवात केंद्र भंवर चक्र अपने शरीर में भी है। उनकी गणना षटचक्रों ओर नवचक्रों के रूप में की जाती हैं। छोटे चक्र और भी है। जिनकी गणना 18 तक की गई है। इन सब में तीन ग्रंथियां प्रधान है। रुद्रग्रंथि, विष्णुग्रन्थि और ब्रह्मग्रंथि तीनों ही शरीर को परस्पर जोड़े हुए है ओर सूक्ष्म जगत के साथ आदान-प्रदान का सिलसिला भी बनाए हुए हैं। स्थूल शरीर नाभिचक्र के नियंत्रण में है। सूक्ष्मशरीर पर आज्ञाचक्र का, कारण शरीर पर हृदय चक्र का आधिपत्य हैं ताले खोलने को चाबी डालने के छिद्र यही तीन है। योगाभ्यास इन्हीं की साधना को रुद्र, विष्णु और ब्रह्मा की साधना माना गया है। इसी समूचे सत्ता क्षेत्र को त्रिपदा गायत्री की परिधि कहा गया है।
गुणों की दृष्टि से त्रिपदा को निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा कहा गया है। निष्ठा का अर्थ है-तत्परता-दृढ़ता। प्रज्ञा कहते है-विवेकशीलता-दूरदर्शिता को, श्रद्धा कहते है आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को। कर्म के रूप में निष्ठा गुण के रूप में प्रज्ञा और स्वभाव के रूप में श्रद्धा। श्रद्धा की गरिमा सर्वोपरि हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के परिष्कार का परिचय इन्हीं तीनों के आधार पर मिलता है। गुण, कर्म, स्वभाव ही किसी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के परिचायक होते है।
त्रिपदा का एक पक्ष सृजनात्मक है दूसरा ध्वंसात्मक। एक आध्यात्मिक है दूसरा भौतिक। अध्यात्म के सृजन पक्ष को गायत्री कहते है और भौतिक विज्ञान पक्ष को सावित्री। अवाँछनीयताओं के निराकरण का उत्तरदायित्व भी सावित्री का हैं पौराणिक गाथा के अनुसार इन्हें ब्रह्मा जी की दो पत्नियाँ माना जाता है। सृजन पक्ष के रूप में त्रिपदा की चर्चा अधिक हुई है। श्रुति ने असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय-मृत्योर्माऽमृतं गमय के रूप में त्रिपदा के तीन चरणों की अभ्यर्थना की गई है और तृप्ति, तुष्टि एवं शाँति का वरदान माँगा है।
दूसरे सावित्री पक्ष की चर्चा कम ही हुई है, पर है वह भी महत्वपूर्ण पक्ष। खेत जोतने लेकर फसल पकने तक की प्रक्रिया लंबी और समयसाध्य है। काटने का काम तो दो-चार दिन में ही पूरा हो जाता है। शरीर के परिपोषण में ही अधिक समय लगता है। बीमार पड़ने पर सुई लगाने पर आपरेशन होने का काम तो यदा-कदा ही होता है। मित्रता निर्वाह में ही जीवन का अधिकाँश भाग बीतता है। शत्रु से लड़ने के अवसर तो थोड़े ही आते है। भौतिक उपार्जन और उपयोग के लिए तो काया अपने आप ही काम करती रहती है, संतुलन बनाने के लिए आध्यात्मिक प्रयत्नों पर ही जोर देना पड़ता है। ऐसे ही अनेक कारणों से त्रिपदा के गायत्री पक्ष का विवेचन और विधान शास्त्रकारों ने विस्तारपूर्वक बनाया है। यह दक्षिण मार्ग है, इसे देवयान भी कहते है। यह देवत्व का लक्ष्य प्राप्त कराती है।
त्रिपदा का वाममार्ग तंत्र हैं। उसे अपनाने से भौतिक पक्ष सुदृढ़ होता है। दैत्य शब्द वैभव, बड़प्पन, विस्तार बल का बोधक है। पुराणों में दैत्यों की भौतिक और देवताओं की आत्मिक शक्ति का वर्णन हैं दूरदर्शी ऋषि गायत्री की उपासना करते थे और भौतिक लाभों के लिए लालायित को वाममार्गी साधना करनी पड़ती थी। देवपक्ष के आचार्य वृहस्पति थे। दैत्य पक्ष का प्रशिक्षण शुक्राचार्य करते थे। तप-साधना दोनों को ही करनी पड़ती थी, ऋषि और देवताओं का सात्विक तप होता था, दैत्यों का तामसिक। कुँभकरण, मेघनाद, मारीच, हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, भस्मासुर, वृत्रासुर, सहस्रबाहु, महिषासुर आदि अनेक दुर्दांत दैत्यों के वैभव और पराक्रमों का वर्णन पुराणों में मिलता हैं। यह सावित्री पक्ष की उपासना का परिणाम है। एकाँकी दुष्टता को निरस्त करने के लिए आक्रमण अस्त्र के रूप में त्रिपदा के सावित्री पक्ष का प्रयोग होता है। इस प्रकार के प्रयोग-उपचार को ब्रह्मास्त्र कहते है।
रिवाल्वर आदि प्रचंड अस्त्रों के लाइसेंस हर की को नहीं मिलते। प्रामाणिक व्यक्तियों को ही उन्हें रखने की आज्ञा मिलती है। ठीक इसी प्रकार ताँत्रिक प्रयोगों की शिक्षा सर्वसुलभ नहीं की गई किन्तु है वह त्रिपदा का एक महत्वपूर्ण पक्ष। गायत्री का ज्ञान पक्ष ब्रह्मा विद्या कहलाता है और विज्ञान पक्ष ब्रह्मतेजस्। दोनों के समन्वय से ब्रह्मवर्चस शब्द बना है। इसमें आत्म-ज्ञान और आत्मबल दोनों का समन्वय कह सकते है। अथर्ववेद में गायत्री विद्या की सात सिद्धियाँ गिनाई गई है। सबसे अंतिम सोपान ब्रह्मवर्चस कहा गया है। उसकी उपलब्धि के लिए जो संतुलित यात्रा करनी पड़ती है, उसमें दक्षिण और वाममार्ग का ब्रह्मयोग और तंत्रयोग दोनों का समन्वय सम्मिलित है। इसी से उसे पूर्णयोग की संज्ञा दी गई है।