झोली का प्रासाद लेने आते (kahani)

September 2003

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वीरपुर (गुजरात) में एक किसान थे जलाराम। वे कृषि कार्य करते। जो अनाज पैदा होता, उसे दीन-दुखियों के लिए तथा संत-महात्माओं के निमित्त लगाते। वे खेत पर रहते, उनकी पत्नी भोजन बनाती रहती। घर पर सदावर्त लगा रहता। बाल-बच्चों का झंझट उनके सिर पर था नहीं।

उनकी दयालुता और श्रद्धा की परीक्षा लेने एक दिन भगवान साधु वेश में आए। उन्होंने कहा उनका बिस्तर अगले तीर्थ तक पहुँचना है। कोई प्रबंध करो। जलाराम मजूर देने की स्थिति में नहीं थे। उनकी पत्नी उस बिस्तर को सिर पर रखकर चल दी। जलाराम आधे दिन खेत का काम करते, आधे दिन भोजन पकाते-खिलाते।

संत के रूप में आए भगवान की परीक्षा पूरी हो गई। वे कुछ ही दूर आगे चलकर गायब हो गए। उस महिला को अन्नपूर्णा झोली दे गए। घर लौटकर उसने उस झोली को एक कोठरी में टाँग दिया। उस कोठरी में से अन्न कभी कम नहीं पड़ा और अभी भी हजारों लोग उस अन्नपूर्णा झोली का प्रासाद लेने आते है।


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