एक व्यक्ति की नाक कट गई। उसने उपहास से बचने और साथ रहने के लिए औरों को भी वैसा ही बना लेने का कुचक्र रचा। लोगों से कहना शुरू किया, नाक की आड़ में भगवान छिपे थे, उसके कट जाने पर उनके प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। बात पर विश्वास करके कई अन्यों ने भी नाक कटवा ली। दर्शन तो किसी को न हुए, पर उपहास से बचने के लिए वे भी झूठ-मूठ वैसा ही कहने लगे। धीरे-धीरे एक बड़ा नकटा संप्रदाय बन गया।
बात राजा तक पहुँची। वह भी नाक कटाने को तैयार हो गया। बूढ़े मंत्री ने रोका और कहा, “पहले मैं कटा लेता हूँ। यदि बात सच हो तब बाद में आप कटाना।” वैसा ही हुआ। मंत्री को भी संप्रदाय वालों ने वही पट्टी पढ़ाई तो उसने इनकार कर दिया। राजा ने वस्तुस्थिति जानी तो उन बहकाने वालों को पकड़कर कठोर दंड दिया।
इन दिनों अंधों के पीछे चलने वाले अंधों की कमी नहीं, जो एक-एक करके जाल में फंसते और गर्त में गिरते जाते है।
साबरमती आश्रम की बात है। एक दिन रात को एक चोर आ गया। चोर नासमझ था, नहीं तो आश्रम में चुराने के लिए भला क्या था!
संयोग से कोई आश्रमवासी जग गया उसने धीरे से कुछ और लोगों को जगा दिया। सबने मिलकर चोर को पकड़ लिया और कोठरी में बंद कर दिया।
व्यवस्थापक ने प्रातः यह खबर बापू को दी और चोर को उनके सामने पेश किया। बापू ने निगाह उठाकर उसकी ओर देखा। वह नौजवान सिर झुकाए आतंकित खड़ा था कि बापू उससे नाराज हैं और हो सकता है कि उसे पुलिस को सौंप दें।
बापू ने जो किया, उसकी तो वह स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था। बापू ने उससे पूछा, “क्यों तुमने नाश्ता किया?”
कोई उत्तर न मिलने पर उन्होंने व्यवस्थापक की ओर प्रश्नभरी मुद्रा में देखा। व्यवस्थापक ने कहा, “बापू! यह तो चोर है, नाश्ते का सवाल ही कहाँ उठता है।”
बापू का चेहरा गंभीर हो आया। दुःख भरे स्वर में बोले, “क्यों क्या यह इंसान नहीं है? इसे ले जाओ और नाश्ता कराओ।”
व्यवस्थापक, जिसे चोर मानकर लाए थे, वह अब एक क्षण में इन्सान बन गया था। उसकी आँखों में प्रायश्चित के आँसू बह रहे थे।
करुणा ने बुद्ध को बुद्ध बनाया, प्रेम ने महावीर को महावीर बनाया, किंतु करुणा और प्रेम ने गाँधी को बापू बना दिया।