सितंबर माह आते ही स्मरण आने लगती है भाद्रपद पूर्णिमा महालय को वह वेला, जिसमें हमारा हमारी मातृसत्ता से विछोह हुआ था। माँ यह एकाक्षर ही हमारा प्रारंभ से प्राण रहा है और हम उनकी कृपा-किरणों की वर्षा से सराबोर हैं, यह सभी जानते हैं। मातृत्व के माध्यम से स्नेहसिक्त अंतःकरण की जो झलक-झाँकी हमें हमारी शक्तिस्वरूपा माता भगवती देवी से मिली, वही हमारी आज की शक्ति को स्रोत बनी हुई है। माँ शारदा-ठाकुर रामकृष्णदेव की तरह वे भी हमारी आराध्य गुरुसत्ता के साथ हमारे बीच आई। पिछली बार की तरह मौन भूमिका नहीं थी उनकी। वे अपनत्व लुटाने आई व संगठन को शक्ति देने आई। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा आगे करने पर उन्होंने संगठन की बागडोर भी सँभाली व ऋषिसत्ताओं के सूक्ष्म मार्गदर्शन में अपनी जिम्मेदारी खूब निभाई।
विवाह के बाद के सात वर्श तो देखते-देखते अखंड दीपक की रक्षा, तीन बच्चों (पूर्व के) एवं एक बालक (मृत्युंजय) की देखभाल आदि तथा अपने आराध्य के बहुआयामी पक्ष को समझने में लग गए। फिर दो बच्चों के विवाह संपन्न किए। भले घरों में उन्हें विदा किया। गुरुसत्ता के निर्देश पर एक शक्ति का साकार रूपकन्या शैलबाला को जन्म दिया एवं इसी के साथ गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना, सत्ताईस वर्ष तक अनवरत आराध्य सत्ता द्वारा संपन्न कठोर-जप-अनुष्ठान में एवं उसकी महापूर्णाहुति में भागीदारी की। सच पूछा जाए तो यहीं से दिसंबर 1952, बसंत पर्व 1953 से माताजी की एक नई भूमिका आरंभ हुई, जिसमें उन्हें बढ़-चढ़कर कार्य करना था, एक विराट परिवार की माँ बनना था एवं जी भरकर स्नेह-अपनत्व लुटाना था। अपने पूर्वजन्मों के संस्कारों के कारण उनकी कोई व्यक्तित्व इच्छा थी नहीं, न कोई शौक, न किसी प्रकार की महत्वाकांक्षा। जो गुरुदेव कहें बस वही करना, सही अर्थों में अपनी आराध्य सत्ता की जीवनसंगिनी ही नहीं, सहगामिनी एवं प्रथम शिष्या होने का गौरव उन्हें अपने निष्काम समर्पण के नाते मिला। 1952 से चली यह यात्रा बयालीस वर्ष तक अनवरत चलती रही एवं 19 सितंबर 1994 में उनके महाप्रयाण तक समर्पण के एक अभूतपूर्व इतिहास की रचना गई।
जिस किसी ने भी मथुरा में या शाँतिकुँज हरिद्वार में उनका अपनत्व पाया है, उनके आँचल की छाँव में संरक्षण पाया है, वह उनके प्यार भरे दुलार को अपने जीवन की एक अनमोल धरोहर मानते हैं। आतिथ्य सत्कार में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता था। आने वाला भूखा रह ही नहीं सकता था। वह माँ अन्नपूर्णा कैसे सारी व्यवस्था करती थी, कोई नहीं जानता, किंतु अभावग्रस्त (ओढ़ी हुई गरीबी) परिस्थितियों में तत्कालीन अखण्ड ज्योति संस्थान आने वाला अतिथि-परिजन-पारिवारिक रिश्तेदार आदि कोई भी उनके इस आतिथ्य से, स्नेह भरे शब्दों के साथ भोजन के आग्रह एवं अपना जी खोलने से बचा नहीं। साँवला-सा-चेहरा, गोल-सी आकृति एवं सरल नाक-नक्श के साथ जो अंत गहराई वाला निश्छल प्रेम उनकी आँखों में रहता था, वह बुजुर्ग को भी बेटी बनकर उनसे कुछ पाने को, वात्सल्य के कण बटोरने की विवश कर देता। इसीलिए तो गुरुदेव कहते थे कि वह जन्म से ही माताजी के रूप में जन्मी हैं, माताजी ही रहेंगी और माताजी ही कहलाएँगी।
सबसे बड़ी जिम्मेदारी मातृसत्ता को तब मिली जब उन्होंने विदाई सम्मेलन में भागीदारी की। जून माह 1971 का यह समय उनके लिए गहरी अंतर्वेदना से भरा था। अपनी 19 वर्षीय लाडली का विवाह 3 जून गायत्री जयंती को कर उन्हें एक विराट सम्मेलन में अपने आराध्य का साथ देना था, जो 17 से 20 जून की तारीखों में संपन्न होने जा रहा था। सारे परिजनों से अंतिम विदाई लेकर उन्हें 2 जून को मथुरा हमेशा के लिए छोड़ देना था। अपने 22 वर्षीय पुत्र पर एक महती जिम्मेदारी डाल उससे भी उनका विछोह होना था। परमपूज्य गुरुदेव तो अपनी अंतर्वेदना ‘अपनों से अपनी बात’ के रूप में अखण्ड ज्योति में लिखकर हल्के हो जाते थे, वे वहाँ किसके पास अपनी व्यथा-वेदना के बोल लेकर जातीं व सुनाती। उन्हें तो घर का सारा अंदर का काम भी देखना था, संगठन को भी मार्गदर्शन देना था एवं सबसे भारी पीड़ादायी कार्य अपने आराध्य से 3 जून को हरिद्वार में हमेशा के लिए विदाई देने का करना था। वे हिमालय जा रहे थे। तब तो यह निश्चित भी नहीं था कि वे कब लौटेंगे, आएंगे भी कि नहीं।
इन सबका दबाव उन पर पड़ा व शरीर-मन दोनों ही इससे प्रभावित हुए। एक सहारा मिला, जब लगभग बारह-पंद्रह वर्ष से भी कम आयु की कुँवारी कन्याएँ पूज्यवर के हिमालय रवाना होने के तुरंत बाद माताजी के पास आ गई। उन्हें छह वर्ष में मिलकर चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण अखण्ड दीपक की साक्षी में संपन्न करने थे। छोटी-छोटी अपने गायत्री परिवार के कार्यकर्त्ताओं की बच्चियाँ थीं। बहुत कुछ जीवन-व्यवहार व कठोर तप का अनुशासन माताजी को ही सिखाना पड़ा। प्रातः जल्दी उठकर सारा क्रम उन्हीं को सँभालना पड़ता था। एक प्रकार से वे अब बारह बच्चियों एवं उनकी देखभाल के लिए नियुक्त प्रायः-छह सात कार्यकर्त्ता, अकेले व सपरिवार सभी की माँ थीं, जिन्हें इस नवोदित शांतिकुंज तब इतना बड़ा नहीं था। मात्र सामने का भवन, दुमंजिला सड़क की तरफ तीन-तीन छोटी कोठरियां, एक गौ-शाला व लगभग आधा बीघा पीछे तक बगीचा। चारों और नीरव सुनसान। शाम का झुटपुटा होते ही पक्षियों की व नाना प्रकार की आवाजें आती। गजराज नियमित रूप से ठंडक के पाँच-छह माह में आते व गन्ने चूसकर खेतों में धमाल मचाया करते थे। किसान उन्हें भागने के लिए शोर करते। वह भी निद्रा में व्यवधान डालता। फिर ‘अखण्ड दीपक’ की देखभाल का जिम्मा भी सबसे बड़ा था। वह कार्य भी माता जी स्वयं ही करती थी। रात्रि में उसके लिए भी उठना पड़ता, आराध्य सत्ता की याद बराबर आती रहती थी। पहले के प्रवास में तो यह सुनिश्चित था कि अब थोड़े माह बचे हैं, फिर मथुरा वापस आ जाएंगे, किंतु अब तो यह भी स्पष्ट नहीं था कि कब आएंगे, वहीं से कोई संपर्क करेंगे या नहीं।
जनवरी 1972 की बात है। बंगलादेश मुक्ति युद्ध पराकाष्ठा पर पहुँचकर समाप्त हुआ ही था। एक विशिष्ट संधिवेला से गुजरा था राष्ट्र। उन दिनों माताजी को सूक्ष्म जगत से मिले आदेशानुसार विशिष्ट तप करना पड़ा। शरीर पर इन सबका प्रभाव पड़ा। दिल का बड़ा तीव्र स्तर का दौरा पड़ा। उन दिनों हरिद्वार के लिए दिल्ली से मात्र दो बसें चला करती थीं, एक वृंदावन जाती थीं। यहाँ न कोई चिकित्सक थे, न विशेष देखभाल वाला कोई तंत्र ही था बी.एच.ई. आरंभ ही हुआ था। मथुरा से चिकित्सकों को लेकर उनके पुत्र मृत्युंजय हरिद्वार आए। सारी चिकित्सा का निर्धारण हुआ। बेतार के तार की तरह माताजी का संदेशा हिमालय में बैठी गुरुसत्ता के पास पहुँचा। चिकित्सकों के जाते ही वे आ गए। उनके आते ही मातृसत्ता को ऐसा लगा मानों किसी ने पीड़ा निवारक औषधि दे दी हो। आँखों से छलक रहे आँसुओं सहित भावभरी अभिव्यक्ति के माध्यम से मौन वार्त्तालाप होता रहा। इसके अगले दिन की बात है।
बिना किसी पूर्व सूचना के इन पंक्तियों का लेखक-पत्रिका का संपादक अपना एमबीबीएस का इम्तिहान देकर इंदौर से हरिद्वार आया। साइकिल रिक्शा से स्टेशन से लगभग दो घंटे की दूरी तय कर जब वह शाँतिकुँज के मुख्य द्वार पर पहुँचा तो उसने माताजी के वेदना भरी कराह सुनी एवं वहीं पूज्यवर को टहलते पाया मानों किसी की प्रतीक्षा कर रहे हों। तुरंत हाथ पकड़कर विस्मित आगंतुक के ऊपर ले गए व बोले तुम डॉक्टर बन गए हो, अब इलाज करो। नए-नए चिकित्सक की, जिसने अभी इंटर्नशिप भी नहीं की हो, क्या स्थिति होती होगी, वैसी स्थिति थी। हाँ! इलाज तो क्या होना था। सब दवाएँ चल रही रही थीं, सेवा का अवसर मिल गया। लगभग पाँच दिन तक पूज्यवर गुरुदेव वंदनीया माताजी दोनों का सान्निध्य मिल गया। (इसके पश्चात रात्रि में पूज्यवर अचानक वापस हिमालय चले गये थे। बहुत कुछ समझने-जानने को मिला इक्कीस वर्ष के इस युवा को। सबसे बड़ा चमत्कार जो देखा गया, वह था पूज्यवर के जाने के तुरंत बाद इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम में सभी असामान्यताओं का मिट जाना। सामान्यतया मायोकार्डियल इन्फार्क्शन में यह समाप्त होने में छह माह से एक वर्ष लगता है। विज्ञान जगत के लिए यह एक चुनौती थी। माताजी को संजीवनी मिल गई या वह एक बहाना बना पूज्यवर के बुलावे का, कुछ समझ में नहीं आता। (1 सितंबर 23) आज भाद्रपद पूर्णिमा के पावन दिन महाप्रयाण दिवस पर उस मातृसत्ता का स्मरण और अधिक हो आता है व याद आता है, उनका तप, कष्ट झेलने की सामर्थ्य, ममत्व एवं वह विशाल हृदय, जिसमें सारा विराट गायत्री परिवार आज समाया हुआ है। सजल श्रद्धारूप उस सत्ता को भावभरा नमन पुष्पाँजलि।