गायत्री साधना के दिव्य लाभ

September 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गायत्री मंत्र में समस्त संसार को धारण, पोषण और अभिवर्द्धन करने वाले परमात्मा से सद्बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। श्रद्धा-विश्वासपूर्वक की गई यह उपासना साधक की अंतश्चेतना में, उसके मन, अंतःकरण, मस्तिष्क, विचारों और भावनाओं में सन्मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा भरती है। साधक जब इस महामंत्र के अर्थ पर विचार करता है तो वह समझ जाता है कि संसार की सर्वोपरि समृद्धि और जीवन की सबसे बड़ी सफलता सद्बुद्धि को प्राप्त करना है।

यह मान्यता स्थिर हो जाने पर साधक की इच्छाशक्ति इसी तत्व को प्राप्त करने के लिए लालायित होती हैं। इस आकाँक्षा अंतरंग क्षेत्र में एक प्रकार का चुंबकत्व उत्पन्न होता है। उसके आकर्षण से निखिल आकाश के ईथर तत्व में विद्यमान सत् तत्व, सत् विचार, भावनाएं और प्रेरणाएं उस स्थान पर एकत्रित होने लगती हैं विचारों की चुंबकीय शक्ति का विज्ञान सर्वविदित हैं एक जाति के विचार अपने सजातीय विचारों को आकाश से खींचते है, फलस्वरूप संसार के मृत और जीवित सत्पुरुषों के फैलाए हुए अविनाशी संकल्प, जो शून्य में सदैव भ्रमण करते रहते है, गायत्री साधक के पास दैवी वरदान की तरह अनायास ही आकर जमा होते रहते है और संचित पूँजी की भाँति उनका एक बड़ा भंडार जमा हो जाता है।

शरीर में सत् तत्व की अभिवृद्धि होने से शरीरचर्या की गतिविधि में काफी हेर-फेर हो जाता है। इंद्रियों के भोगों में भटकने की गति मंद हो जाती है। चटोरपन, तरह-तरह के स्वादों के पदार्थ खाने के लिए मन ललचाते रहना, बार-बार खाने की इच्छा होना, अधिक मात्रा में खा जाना, भक्षाभक्ष का विचार न रहना, सात्विक पदार्थों में अरुचि और चटपटे, मीठे, गरिष्ठ पदार्थों में रुचि, जैसी बुरी आदत धीरे-धीरे कम होने लगती है। हलके, सुपाच्य, सरस, सात्विक भोजनों से उसे तृप्ति मिलती है और राजसी, तामसी खाद्यों से घृणा हो जाती है। इसी प्रकार कामेंद्रियों की उत्तेजना सतोगुणी विचारों के कारण संयमित हो जाती है। कुमार्ग में, व्यभिचारी, वासना में मन कम दौड़ता है, ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। फलस्वरूप वीर्य-रक्षा का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। कामेंद्रिय और स्वादेंद्रिय दो ही इंद्रियाँ प्रधान है। इनका संयम होना स्वास्थ्य-रक्षा और शरीर-वृद्धि का प्रधान हेतु है। इनके साथ-साथ परिश्रम, स्नान, निद्रा, सोना, जागना, सफाई, सादगी और अन्य दिनचर्याएं भी सतोगुणी हो जाती हैं, जिनके कारण आरोग्य और दीर्घजीवन की जड़ें मजबूत होती है।

मानसिक क्षेत्र में सद्गुणों की वृद्धि के कारण दोष-दुर्गुण कम होने लगते हैं तथा सद्गुण बढ़ने लगते हैं इस मानसिक कायाकल्प का परिणाम यह होता है कि दैनिक जीवन में प्रायः नित्य ही आते रहने वाले अनेक दुःखों का सहज ही समाधान हो जाता है। इंद्रिय यम और दिनचर्या के कारण शारीरिक रोगों का भी निवारण हो जाता है। विवेक जाग्रत होते ही अज्ञानजन्य चिंता, शोक, भय, आशंका, मोह, ममता, हानि आदि दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। ईश्वर-विश्वास के कारण मति स्थिर रहती है और भावी जीवन के बारे में निश्चितता बनी रहती है। धर्म-प्रवृत्ति के कारण पाप, अन्याय, अनाचार नहीं बन पड़ते। फलस्वरूप राजदंड, समाजदंड, आत्मदंड और ईश्वरदंड की चोटों से पीड़ित नहीं होना पड़ता है। सेवा, नम्रता, उदारता, दान, ईमानदारी, लोकहित आदि गुणों के कारण दूसरों को लाभ पहुँचता है, हानि की आशंका नहीं रहती। इससे प्रायः सभी लोग उनके कृतज्ञ, प्रशंसक, सहायक, भृत्य एवं रक्षक होते है। पारस्परिक सद्भावनाओं के परिवर्तन से आत्मा की तृप्ति करने वाले प्रेम और संतोष नामक रस दिन-दिन अधिक मात्रा में उपलब्ध होकर जीवन को आनंदमय बनाते चलते है। इस प्रकार शारीरिक और मानसिक क्षेत्रों में सत्-तत्व की वृद्धि होने से दोनों ओर आनंद का स्रोत उमड़ता है और गायत्री का साधक उसमें निमग्न रहकर आत्मसंतोष का, परमानंद का रसास्वादन करता है।

आत्मा ईश्वर का अंश होने से उन सब शक्तियों को बीज रूप से अंदर छिपाए रहता है जो ईश्वर में होती है। वे शक्तियाँ सुप्तावस्था में रहती हैं और मानसिक तापों के, विषय-विकारों के, दोष-दुर्गुणों के ढेर में दबी हुई अज्ञान रूप से पड़ी रहती है। लोग समझते है कि हम दीन-हीन तुच्छ और अशक्त हैं, पर जो साधक मनोविकारों का परदा हटाकर निर्मल आत्मज्योति के दर्शन करने में समर्थ होते है, वे जानते है कि सर्वशक्तिमान ईश्वरीय ज्योति उनकी आत्मा में मौजूद है और वे परमात्मा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अग्नि के ऊपर से राख हटा दी जाए तो फिर दहकता अंगार प्रकट हो जाता है। वह अंगार छोटा होते हुए भी भयंकर अग्निकाँडों की संभावना से युक्त होता है। यह परदा फटते ही तुच्छ मनुष्य महान आत्मा (महात्मा) बन जाता है। चूँकि आत्मा में अनेकों ज्ञात, विज्ञात साधारण, अद्भुत, आश्चर्यजनक शक्ति के भंडार छिपे पड़े हैं, वे खुले जाते हैं और वह सिद्ध योगी के रूप में दिखाई पड़ता है। सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता, किसी देव-दानव की कृपा की जरूरत नहीं पड़ती है। गायत्री की सतोगुणी साधना का सूर्य तामसिक अंधकार के परदे को हटा देता है और आत्मा का सहज ईश्वरीय रूप प्रकट हो जाता है। आत्मा का यह निर्मल रूप सभी ऋद्धि-सिद्धियों से परिपूर्ण होता है।

गायत्री द्वारा हुई सतोगुणों की वृद्धि अनेक प्रकार की आध्यात्मिक साँसारिक समृद्धियों की जननी है, शरीर और मन की शुद्धि साँसारिक जीवन को अनेक दृष्टियों से सुख-शाँतिमय बनाती हैं आत्मा में विवेक और आत्मबल की मात्रा बढ़ जाने से अनेक ऐसी कठिनाइयाँ जो दूसरों को पर्वत के समाज भारी मालूम पड़ती है, उस आत्मवान् व्यक्ति के लिए तिनके के समान हल्की बन जाती है। उसका कोई काम रुका नहीं रहता या तो उसकी इच्छा के अनुसार परिस्थिति बदल जाती है या परिस्थिति के अनुसार अपनी इच्छाओं को बदल लेता हैं। क्लेश का कारण इच्छा और परिस्थिति के बीच प्रतिकूलता का होना ही तो है। विवेकवान इन दोनों में से किसी को अपनाकर उस संघर्ष को टाल देता हैं और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। उसके लिए इस पृथ्वी पर भी स्वर्गीय आनंद की सुरसरि बहने लगती है।

वास्तव में सुख और आनंद का आधार किसी बाहरी साधन-सामग्री पर नहीं, किंतु मनुष्य की मनःस्थिति पर निर्भर रहता हैं मन की साधना से जो मनुष्य एक समय राजसी भोजनों और ‘रेशमी’ गद्दे-तकियों से भी संतुष्ट नहीं होता, वह किसी संत के उपदेश से त्याग और संन्यासी व्रत ग्रहण कर लेने पर जंगल की भूमि को ही सबसे उत्तम शय्या, वन के कंद-मूल-फलों को ही सर्वोत्तम आहार समझने लगता हैं। यह सब अंतर मनोभाव और विचारों के बदल जाने से ही उत्पन्न होता है।

गायत्री सद्बुद्धि की, ऋतंभरा-प्रज्ञा की अधिष्ठात्री देवी है ओर उससे साधक सद्बुद्धि की याचना करता है। इस सद्बुद्धि के द्वारा सभी प्रकार के दुःखों का कारण मूल से दूर किया जा सकता है। सद्बुद्धि के प्रकाश में वे सभी उपाय सुझाई देने लगते है, जिनको काम में लाने पर दुःखों के कारण दूर हो जाते है। यों संसार में कई प्रकार के दुःख हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी समस्याएं और कठिनाइयाँ हैं सबकी अलग-अलग उलझनें है। इस दृष्टि से तो सबके दुःखों का कारण भी अलग-अलग होना चाहिए, परंतु ऐसा है नहीं। गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि जीवन और जगत में विद्यमान समस्त दुःखों के कारण तीन हैं-(1) अज्ञान (2) अशक्ति और (3) अभाव। जो इन तीन कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा।

अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा-उल्टा सोचता है और उल्टे काम करता है, तदनुसार उलझनों में अधिक फंसता जाता है और दुःखी बनाता है। स्वार्थ, मोह, लोभ, अहंकार, अनुदारता और काम की भावनाएं मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती है और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है। फलस्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते है। पापों का निश्चित परिणाम दुःख हैं दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने और दूसरे की साँसारिक गतिविधि में मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता। फलस्वरूप असंभव आशाएं, तृष्णाएं, कल्पनाएं किया करता है। इस उल्टे दृष्टिकोण के कारण साधारण-सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती है। जिसके कारण वह रोता-चिल्लाता रहता है। आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार-चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि मैं जो चाहता हूँ, वह सदा होता रहे, प्रतिकूल बात सामने आए ही नहीं। इस असंभव आशा के विपरीत घटनाएं जब भी घटित होती है तभी वह रोता-चिल्लाता हैं। तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती है, समीपस्थ सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, यह भी दुःख का हेतु है। इस प्रकार अनेकों दुःख मनुष्य के अज्ञान के कारण प्राप्त होते है।

अशक्ति का अर्थ है-निर्बलता। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलताओं के कारण, मनुष्य अपने स्वाभाविक जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कंधों पर उठाने में समर्थ नहीं होता, फलस्वरूप उसे वंचित रहना पड़ता है। स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेरे रखा हो, तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरुणी, मधुर गीत वाद्य, सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं। धन-दौलत का कोई कहने लायक सुख उसे नहीं मिल सकता। बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य, काव्य, दर्शन, मनन, चिंतन का रस प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग, प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानंद दुर्लभ हैं इतना ही नहीं, निर्बलों को मिटा डालने के लिए प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धांत काम करता है। कमजोर को सताने और मिटाने के लिए अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं। निर्दोष, भले और सीधे-सादे तत्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते है। सरदी, जो बलवानोँ की बलवृद्धि करती है, रसिकों को रस देती, वह कमजोरों को निमोनिया, गठिया आदि का कारण बन जाती है। जो तत्व निर्बलों के लिए प्राणघातक है, वे ही बलवानों को सहायक सिद्ध होते हैं। बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत्माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्यपशु भी नहीं बड़े-बड़े सम्राट तक राजचिन्ह में धारण करते हैं। अशक्त हमेशा दुःख पाते हैं उनके लिए भले तत्व भी आशाप्रद सिद्ध नहीं होते है।

अभावजन्य दुःख है-पदार्थों का अभाव। अन्न, वस्त्र, जल, मकान, पशु, भूमि, सहायक, मित्र, धन औषधि, पुस्तक, शस्त्र, शिक्षक आदि के अभाव में विविध प्रकार की पीड़ाएं , कठिनाइयाँ भुगतनी पड़ती है, उचित आवश्यकताओं को कुचल कर मन मारकर बैठना पड़ता है और जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है। योग्य और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव में अपने को लुँज-पुँज अनुभव करते हैं और दुःख उठाते है।

गायत्री कामधेनु है, जो उसकी पूजा, उपासना और आराधना करता है, वह प्रतिक्षण माता का अमृतोपम दुग्धपान करने का आनंद लेता है और समस्त अज्ञानों, अशक्तियों और अभावों के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से छुटकारा पाकर मनोवाँछित फल प्राप्त करता है। योग्य गुरु के पथ प्रदर्शन में की गई गायत्री साधना अभीष्ट लाभ पहुँचाती है। इन साधनाओं में फलता प्राप्त करने के लिए भले ही थोड़ा-बहुत अधिक समय व श्रम लगाना पड़े पर अन्य कष्टपूर्ण साधनाओं की अपेक्षा उन साधनाओं में जल्दी ही सफलता मिलती है। योगीजनों का कष्टसाध्य लंबा मार्ग गायत्री द्वारा बहुत सरल हो जाता है और घर में रहते हुए गृहस्थ व्यक्ति भी वनवासी तपस्वियों जैसी सफलता प्राप्त कर लेता है।

कष्टप्रद भवबंधनों, माया-मोह की शृंखला से छुटकारा पाकर परमलक्ष्य को प्राप्त करना इस मार्ग से जितना सरल है उतना और किसी मार्ग से संभव नहीं। गायत्री साधना द्वारा मानसिक परिष्कार, व्यक्तित्व के विकास, दुःखों के निवारण और आत्मिक विकास के दिव्य लाभों के अतिरिक्त कई सिद्धियाँ, विशेष शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। इन शक्तियों को क्रमशः अर्जित करते हुए व्यक्ति अनुपम और अद्वितीय, असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी बन जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles