निपट गया तो अच्छा ही हुआ (kahani)

September 2003

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बात सन् 1935 की है। राजेन्द्र बाबू काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। उन्हें किसी काम से प्रयाग से निकलने वाले अंग्रेजी लीडर के संपादक श्री चिंतामणि से मिलना था।

चपरासी को कार्ड दिया। वह संपादक की मेज पर रखकर लौट आया और प्रतीक्षा करने के लिए कहा।

राजेंद्र बाबू के कपड़े वर्षा से भीग गए थे। समय खाली देखकर वे उधर बैठे मजदूरों की अंगीठी के पास खिसक गए और हाथ सेंकने तथा कपड़े सुखाने लगे।

थोड़ी देर में कार्ड पर नजर गई तो संपादक जी हड़बड़ा गए और उनके स्वागत के लिए स्वयं ही दौड़े, पर राजेंद्र बाबू कहीं नजर न आए।

ढूंढ़-खोज हुई तो वे अंगीठी पर तापते और कपड़े सुखाते पाए गए। चिंतामणिजी ने देर होने और कार्ड पर ध्यान न जाने के लिए माफी माँगी। हंसते हुए राजेंद्र बाबू ने कहा, “इससे क्या हुआ। कपड़े सुखाना भी एक काम था। इस बीच निपट गया तो अच्छा ही हुआ।”


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