विचारहीनता का आसन्न संकट

September 2003

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हर युग का अपना मौलिक एवं विशिष्ट विचार होता है। हर युग को अपना विचार पैदा करना होता है, हर युग को अपनी दृष्टि विकसित करनी होती है। आज का युग चरम याँत्रिकी युग है। इसी कारण आज के विचार यंत्रवत हैं और दृष्टि भी भौतिक उपलब्धियों से इतराती-इठलाती संकीर्ण व संकुचित हो गयी है। आज हमारे पास विचार तो है लेकिन भौतिक जगत् में अधिकाधिक सुख-भोग, ऐश्वर्य प्राप्त करने की ललक-लिप्सा लिए हुए है, जीवन लक्ष्य के प्रति नहीं है। दृष्टि तो है पर बाह्य जगत् की चकाचौंध को समेटने की, निहारने की है, आन्तरिक जीवन को विचारने-जानने के लिए नहीं है। आज के इस वैज्ञानिक एवं याँत्रिकी युग ने हमें भौतिक जगत् की तमाम बड़ी उपलब्धियाँ तो दी हैं, परन्तु जीवन के प्रति सोच व विचार को छीन लिया है। अतः वर्तमान युग में विचार हीनता का संकट खड़ा हो गया है। मनुष्य में सोचने, विचारने व समझने की शक्ति का घनघोर पतन हो गया है।

आज वैज्ञानिक युग में विज्ञान ने जानकारी व सूचना के लिए चमत्कारिक स्रोत उपलब्ध करा दिए है। नित नये आविष्कार हो रहे हैं, जिसकी कल्पना मात्र से हैरत होने लगती है। इसी वजह से भौगोलिक रूप से वर्तमान विश्व एक घर एवं आँगन में सिमटकर रह गया है। मन को लुभाने व रंजन करने हेतु मनोरंजन के अपार साधन हस्तगत हुए हैं। हम घर में बैठकर ही नहीं बल्कि अपनी कार चलाते हुए भी इन्टरनेट के माध्यम से विश्व के किसी भी कोने एवं किसी भी चीज की जानकारी पलभर में प्राप्त कर लेते हैं। आज का नन्हा बालक जितना जानता है, पुराने जमाने का एक आदमी उसकी कल्पना तक नहीं कर सकता था।

एक दृष्टि में यह एक बड़ी उपलब्धि है। इसका श्रेय विज्ञान को दिया जाता है और दिया जाना भी चाहिए। क्योंकि विज्ञान ने बिना प्रयास के अनायास हमारे लिए ढेर सारी जानकारी मुहैया करा दी है। हमें इसे पाने हेतु कोई विशेष मेहनत एवं श्रम नहीं करना पड़ता है। किसी विशेष रिसर्च पेपर को पढ़ने के लिए ढेर सारी रिसर्च जर्नल्स को उलटना, पलटना एवं तलाशना नहीं पड़ता, इण्टरनेट के किसी विशेष साइट में जाकर इसे तुरन्त देखा, पाया व पढ़ा जा सकता है। इसके विश्लेषण हेतु बुद्धि लगाने की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस संदर्भ में अनेक शोध वैज्ञानिकों के मत भी आसानी से मिल जाते हैं। और हम सोचते हैं कि हमने अपना बहुमूल्य समय एवं श्रम को बचाया और यह कुछ हद तक सही भी है, परन्तु हम एक बड़ी बात भूल जाते हैं कि अनायास प्राप्त हुई इस जानकारी से एक बहुत बड़ा नुकसान भी हुआ है। हमारी सोचने-समझने की शक्ति क्रमशः क्षीण होती जा रही है। हमारे विचार निष्क्रिय एवं निस्तेज होते जा रहे हैं। क्योंकि हम स्वयं नहीं सोचते, चिन्तन नहीं करते, संचार माध्यम से केवल तैयार विचारों का आयात करते हैं।

विज्ञान के वरदानों से हमारे शरीर को सुख अवश्य मिला है, परन्तु मन को मनन करने का मौका नहीं मिला। मनन ही मन का सर्वोपरी गुण है। आग की उष्णता एवं बर्फ की ठण्डकता के समान मन की मननशीलता एवं विचारशीलता ही उसकी नैसर्गिक विशेषता है। परन्तु विज्ञान ने इस नैसर्गिकता का हनन करके विष कुँभ पैदा किया है, जिसे न तो पीया ही जा रहा है और न छोड़ा। हम गहरे द्वन्द्व में उलझ गए हैं। सही एवं गलत के बीच निर्णय करने की भेद दृष्टि समाप्त हो गयी है। और इस उचित-अनुचित के निर्णयात्मक विचारों के अभाव में हम अनजाने-अनायास ही ऐसे विचारों के शिकार हो जाते हैं, जिन्हें हम पसन्द तक नहीं करते। और इसी कारण हमारी कभी की नापसन्द आज सबसे बड़ी पसन्द बन गई है, और नासमझी सबसे बड़ी समझ। जहर को समझने वालों को समझाया जा सकता है, उसे उससे दूर रहने की हिदायत दी जा सकती है, परन्तु जो विष को अमृत समझकर आनन्दपूर्वक पी रहा हो उसे नहीं समझाया जा सकता है। आज हम लोग ठीक इसी विचारहीनता की अवस्था में जी रहे हैं।

विज्ञान ने हमारे सोचने विचारने की शक्ति का हरण कर लिया है। हम विचारहीन हो गए हैं। अतः किसी से भी प्रभावित हो जाते हैं, आकर्षित हो जाते हैं। हमने हमारी समृद्ध सनातन संस्कृति को भुला दिया है, जो हमें सोचने, विचारने तथा चिन्तन की कला सिखाती है। यह हमें श्रेय और प्रेय में अन्तर बताती है, उचित और अनुचित में फर्क दिखाती है तथा उपयुक्त, उत्कृष्ट व श्रेष्ठ को चुनाव करने की क्षमता देती है। लेकिन आज हमें हमारी जीवनदायिनी संस्कृति की अपेक्षा भोग-उपभोग की संस्कृति अच्छी लग रही है। यही हमारे जीवन का चरम-परम लक्ष्य बन गया है कि जीवन को अधिकतम रूप में भोग लिया जाय। और उपभोक्तावादी संस्कृति का भी यही मूल मंत्र है। इसके अनुसार मनुष्य को सोचने, समझने एवं जानने का मौका ही न दिया जाए। विज्ञान प्रदत्त संचार माध्यमों ने इस प्रक्रिया को और आसान व सहज बना दिया है।

आज हम इन साधनों के गुलाम बन गए हैं। दूरदर्शन के कई लुभावने चैनल, इण्टरनेट के मनभावन साइट हमारी जीवनचर्या के महत्त्वपूर्ण अंग बन गए हैं। इन चैनलों और साइटों में सीरियल की कहानी एवं विषय की जानकारी के अलावा अनेक उत्पादों का विज्ञापन भरा पड़ा रहता है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि कहानी तो केवल बहाना है, मुख्य उद्देश्य है अपने-अपने उत्पादों को प्रचार-प्रसार करना तथा उसे बेचना। विचारहीन मन इन उत्पादों के पीछे भागने लगता है। मन की सारी उधेड़-बुन एवं कल्पनाएँ इसे प्राप्त करने में लगी रहती हैं। हम इसी पर विचार करते हैं और यही हमारे विचारों का केन्द्र-बिन्दु बन गया है, जिसमें उथलेपन के अलावा कुछ भी सार-गर्भित नहीं है। यह हमारी अभिरुचि एवं पसन्द बन गयी है।

वस्तुतः मन विभिन्न प्रकार के विचारों को ग्रहण करता है, पर जिनमें उसकी अभिरुचि अधिक रहती है, चयन उन्हीं का करता है। जिन विचारों को वह चयन करता है, उन्हीं के अनुरूप चिन्तन की प्रक्रिया भी चलती है। चयन किए गए विचारों के अनुसार ही दृष्टिकोण का विकास होता है, जो विश्वास को जन्म देता है। वह पुष्ट और परिपक्व होकर पूर्व धारणा में परिवर्तित हो जाता है।

आज हमारी धारणा-अवधारणा अस्वस्थ, अशक्त एवं जर्जर हो गयी है। हमारे अन्दर चिन्तन नहीं दुश्चिंतन घर कर गया है, तथा स्वभाव भोगवादी एवं आरामतलब बन गया है। सद्चिंतन के अभाव में मस्तिष्क क्रियाहीन एवं पंगु बनकर रह गया है। विज्ञान के इस युग में हम यंत्रमानव में बदल गए हैं। कुछ विचारक-विद्वानों को विज्ञान से ऐसी ही उम्मीद और आशा थी। उन्होंने पहले ही मानव जाति को सचेत व सतर्क कर दिया था। इस संदर्भ में आल्डस हक्सले ने सन् 1932 में लिखे अपने उपन्यास ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ में एक ऐसी भविष्य कालीन दुनिया का चित्रण किया था, जिसमें मनुष्य भी वस्तुओं की भाँति कारखानों में गढ़े जाएँगे और उनकी विचार शक्ति को इच्छानुसार नियंत्रित-नियमित किया जा सकेगा। उससे भी पूर्व एच.जी. वेल्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘द टाइम मशीन’ में सचेत किया था कि यदि आदमी विज्ञान से सतर्क व सावधान न हुआ तो वह रोबोट के समान बन जाएगा। हक्सले और वेल्स की यह आशंका आज शत-प्रतिशत सही प्रतीत हो रही है।

वर्तमान याँत्रिकी युग में यंत्र मानव सा बना मानव एक ढर्रे पर चलने को मजबूर और विवश है। हम अपने आचार, आदत एवं स्वभाव से लाचार हैं। लगता है कि हमारा अन्त एवं अवसान इसी दुर्गति में होगा। दूर तक आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही है। हम विज्ञान प्रदत्त इस दुर्वह परिस्थिति के हाथों बिके हुए दास बन गए हैं। परन्तु गहराई से विचार किया जाए तो वास्तविकता ऐसी है नहीं। अभ्यास, अध्यवसाय एवं संकल्प द्वारा उस ढर्रे को तोड़ना हर किसी के लिए संभव है। विपन्न परिस्थिति की सोच के प्रतिकूल सोचा भी जा सकता है। प्रायः लोग जिस ढंग से सोचते एवं दृष्टिकोण अपनाते हैं, उससे भिन्न स्तर का चिन्तन करने के लिए भी अपने मन व विचार को अभ्यास कराया जा सकता है। मानसिक विकास के लिए एवं श्रेष्ठ विचार के लिए अभीष्ट दिशा में सोचने हेतु अपनी प्रकृति को तोड़ा-मरोड़ा भी जा सकता है। प्रयत्नपूर्वक नयी अभिरुचियाँ भी पैदा की जा सकती हैं।

‘त्येन तक्तेन भूँजिथा’ के औपनिषदिक सूत्रों को अपनाकर अर्थात् भोग को त्याग के साथ स्वीकारने की मनोवृत्ति में ही इसका समाधान है। यह अनुभव किया जाए कि मानव जीवन महान् उपलब्धि है, दैवी वरदान है, जिसका उपयोग केवल विचारहीन भोग भोगने में नहीं लगाना चाहिए बल्कि इसका सदुपयोग श्रेष्ठ कार्यों में होना चाहिए। मानव जीवन की गरिमापूर्ण सोच व विचार में ही हमारा वैचारिक एवं आत्मिक विकास संभव है, और तभी विचारहीनता के संकट से मुक्ति पायी जा सकती है।


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