गुरुगीता-14-गुरुकृपा ने बनाया महासिद्ध

September 2003

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गुरुगीता के महामन्त्रों में अध्यात्मविद्या के गूढ़तम रहस्य संजोये हैं। योग, तन्त्र एवं वेदान्त आदि सभी तरह की साधनाओं का सार इनमें है। महाकठिन साधनाएँ इन महामंत्रों के आश्रय में अति सुगम हो जाती हैं। ऐसा होते हुए भी सभी लोग इस सत्य को समझ नहीं पाते हैं। जिनके पास गुरुभक्ति से मिली दिव्य दृष्टि है, उन्हीं की अन्तश्चेतना में यह तत्त्व उजागर होता है। गुरुदेव भगवान् के प्रति श्रद्धा अति गहन हो तो फिर साधक को इस बात की प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है कि विश्व-ब्रह्मांड में यदि कहीं कुछ भी है तो वह अपने गुरुदेव में है। इन्हीं के आश्रय में सभी तरह की साधनाएँ सिद्धिदायी होती हैं।

गुरु श्रद्धा की तत्त्व कथा की पिछली कड़ी में परम पूज्य गुरुदेव के इसी अन्तःसत्य की अनुभूति कराने की चेष्टा की गयी थी। इसमें यह ज्ञान कराया गया था कि गुरुदेव साकार होते हुए भी निराकार हैं। वे परात्पर प्रभु त्रिगुणमय कलेवर को धारण करके भी सर्वथा गुणातीत हैं। अपने वास्तविक रूप में निर्गुण व निराकार गुरुदेव की महिमा अनन्त हैं। वे ही सदाशिव सर्वव्यापी विष्णु एवं सृष्टिकर्त्ता ब्रह्म हैं। ऐसे दयामय गुरुदेव को प्रणाम करने से जीवों को संसार से मुक्ति मिलती है। इस सत्य को विरले विवेकवान ही समझ पाते हैं। विवेक न होने पर यह सच्चाई प्रकट होते हुए भी समझ में नहीं आती। परम कृपालु सद्गुरु के चरण जिस दिशा में विराजते हैं, उधर भक्तिपूर्वक प्रणाम करने से शिष्य का सर्वविध कल्याण होता है।

गुरुदेव भगवान् के महिमामय स्वरूप के अन्य रहस्यमय आयामों को प्रकट करते हुए भगवान् सदाशिव आदिमाता जगदम्बा से कहते हैं-

तस्यै दिशे सततमञ्जलिरेष आर्ये प्रक्षिप्यते मुखरितो मधुपैर्बुधैश्च। जागर्ति यत्र भगवान् गुरुचक्रवर्ती विश्वोदयप्रलयनाटकनित्यसाक्षी॥ 51॥

श्रीनाथादिगुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवं सिद्धौघं बटुकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम्। विरान् द्वयष्ट-चतुष्क-षष्टि-नवकं-वीरावलीपञ्चकं श्रीमन्मालिनिमंत्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम्॥ 52॥

गुरुतत्त्व के रहस्य को प्रकट करने वाले इन महामंत्रों में अनेक तरह की साधनाओं के रहस्यों का गूढ़ संकेतों में वर्णन है। भगवान् भोलेनाथ की वाणी शिष्यों के समक्ष इस रहस्य को प्रकट करती है, कि गुरुदेव भगवान् में साधना, साध्य एवं सिद्धि के सारे मर्म समाए हैं। गुरुदेव सृष्टि में चल रहे उत्पत्ति एवं प्रलय रूप नाटक के नित्य साक्षी हैं। वे ही सम्पूर्ण सृष्टि के चक्रवर्ती स्वामी हैं। ऐसे गुरुदेव भगवान् जिस दिशा में भी विराज रहे हों, उसी दिशा में विद्वान् शिष्य को मन्त्रोच्चार पूर्वक सुगन्धित पुष्पों की अञ्जलि समर्पित करनी चाहिए॥ 51॥

श्री गुरुदेव ही परमगुरु एवं परात्पर गुरु हैं। उनमें तीनों नाथ गुरु आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ एवं गोरक्षनाथ समाये हैं। उन्हीं में भगवान् गणपति का वास है। उन परम प्रभु में तंत्र साधना के तीनों रहस्य मयपीठ-कामरूप, पूर्णागिरि एवं जालंधर पीठ स्थित हैं। मन्मथ आदि अष्ट भैरव, सभी महासिद्धों के समूह, तंत्र साधना में सर्वोच्च कहा जाने वाला विरंचि चक्र उन्हीं में है। स्कन्दादि बटुकत्रय, योन्याम्बादि दूतीमण्डल, अग्निमण्डल, सूर्यमण्डल, सोममण्डल आदि मण्डल, प्रकाश व विमर्श के युगल पद के रहस्य उन्हीं में हैं। दशवीर, चौसठ योगिनियाँ, नवमुद्राएँ, पंचवीर तथा अ से क्ष तक सभी मातृकाएँ एवं मालिनीयंत्र गुरुदेव के चेतनामण्डल में ही स्थित हैं। सभी तत्त्वों से युक्त गुरु मण्डल को मेरा बारम्बार प्रणाम है।

गुरुगीता में बताया गया यह सत्य किसी भी तरह से बुद्धिगम्य नहीं है। बुद्धिपरायण, तर्कशील लोग इसे समझ नहीं सकते। किन्तु? क्यों? और कैसे? के प्रश्न कुहासे से इसे अनुभव नहीं किया जा सकता। इसे वही जान सकते हैं, समझ सकते हैं और आत्मसात कर सकते हैं- जो साधना की डगर पर काफी दूर तक चल चुके हैं। ऐसे साधना परायण जनों के लिए ही यह गुरुदेव की महिमा नित्य अनुभव की वस्तु बन जाती है। महान् अघोर संत बाबा कीनाराम के साधना अनुभव से इस बात को बहुत ही स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। सिद्धों के, सन्तों के बीच बाबा कीनाराम का नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है। बाबा कीनाराम का ज्यादातर समय काशी में बीता। वह अघोर तंत्र के महान् सिद्ध थे। उनके चमत्कारों, अति प्राकृतिक रहस्यों के बारे में ढेरों किंवदंतियाँ कही-सुनी जाती हैं।

बाबा कीनाराम उत्तरप्रदेश-राज्य के गाजीपुर के रहने वाले थे। उनमें जन्म-जन्मान्तर के साधना संस्कार थे। विवेकसार ग्रन्थ में उनकी जीवनकथा विस्तार से वर्णित है। इसमें लिखा है कि जब वह जूनागढ़ के परम सिद्धपीठ गिरनार गए तो उन्हें स्वयं भगवान् दत्तात्रेय ने दर्शन दिए। और उन्होंने कीनाराम को एक कुबड़ी देते हुए कहा- जहाँ यह कुबड़ी तुमसे कोई ले ले, वहीं तुम स्थायी रूप से रहना तथा उन्हीं को अपना अघोर गुरु बनाना। इसी के साथ भगवान् दत्तात्रेय ने उन्हें गुरुगीता में वर्णित उपरोक्त महामंत्रों के रहस्य को समझाते हुए उनको गुरु महिमा के बारे में बताया।

कीनाराम जब काशी पहुँचे तो वहाँ हरिश्चन्द्र घाट पर बाबा कालूराम से उनकी भेंट हुई। पहली भेंट में कालूराम ने उनकी तरह-तरह से अनेकों परीक्षाएँ लीं। बड़ी कठिन और रहस्यमयी परीक्षाओं के बाद वह उन्हें अपना शिष्य बनाने के लिए तैयार हो गए। शिष्य बनने के बाद तंत्र साधना का एक परम दुर्लभ एवं अति रहस्यमय अनुष्ठान किया जाना था। इस अनुष्ठान के लिए कई तरह की सामग्री आवश्यक थी। जिन्हें साधना का थोड़ा सा भी ज्ञान है- वे जानते हैं कि तंत्र साधना में उपयोग की जाने वाली सामग्री कितनी दुर्लभ हुआ करती है। प्रश्न था- कहाँ से और कैसे लायी जाय। तंत्र अनुष्ठान की इस शृंखला में अनेक देवों, योगिनियों को संतुष्ट करना था। एक साथ यह सब कैसे हो?

इन प्रश्नों ने बाबा कीनाराम को आकुल कर दिया। शिष्य की चिन्ता से शिष्य वत्सल बाबा कालूराम द्रवित हो उठे। उन्होंने कहा- चिन्ता किस बात की रे! मैं हूँ न, तू मेरी ओर देख, मुझ में देख! उनके इस तरह कहने पर बाबा कीनाराम ने अपने गुरु की ओर देखा। आश्चर्य! परमाश्चर्य!! तंत्र साधना की सभी अधिष्ठात्री देव शक्तियाँ महासिद्ध कालूराम में विद्यमान थीं। सभी तंत्रपीठ उनमें समाहित थे। सद्गुरु चेतना में तंत्र साधना के समस्त तत्त्व दिखाई दे रहे थे। शिष्यवत्सल बाबा कालूराम की यह अद्भुत कृपा देखकर कीनाराम भक्ति विह्वल हो गए। और ‘गुरुकृपा ही केवलम्’ कहते हुए उनके चरणों में गिर पड़े। अपने सद्गुरु के पूजन से ही उन्हें तंत्र की समस्त शक्तियाँ, सारी सिद्धियाँ मिल गयीं। गुरु कृपा ने उन्हें अघोरतंत्र का महासिद्ध बना दिया। सद्गुरु पूजन में सबका यजन है। सभी शिष्य साधक इस साधना रहस्य को भलीप्रकार जान लें। अगले अंक में सद्गुरु चेतना के नए आध्यात्मिक रहस्य प्रकट होंगे।


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