सुखदा मणि (kahani)

September 2003

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प्राचीनकाल में एक संत थे। धर्मश्रद्धा के कारण सदा प्रसन्न रहते थे,चेहरे पे उल्लास टपकता रहता था।

चोरों ने समझा उनके पास कोई बड़ी दौलत है, अन्यथा हर घड़ी इतने प्रसन्न रहने का और क्या कारण हो सकता है?

अवसर पाकर चोरों ने उनका अपहरण कर लिया, जंगल में ले गए और बोले, “हमने सुना है कि आपके पास सुखदा मणि है, इसी से इतने प्रसन्न रहते हैं, उसे हमारे हवाले कीजिए, अन्यथा जान की खैर नहीं।”

संत ने एक एक करके हर चोर को अलग अलग बुलाया और कहा, “चोरों के डर से मैंने उसे जमीन में गाड़ दिया है। यहाँ से कुछ ही दूर पर एक स्थान है। अपनी खोपड़ी के नीचे चंद्रमा की छाया में खोदना, मिल जाएगी।”

संत पेड़ के नीचे सो गए। चोर अलग अलग दिशा में चले और जहाँ तहाँ खोदते फिरे। जरा सा ही खोद पाते कि छाया बदल जाती और उन्हें जहाँ तहाँ खुदाई करनी पड़ती। रात भर में सैकड़ों छोटे बड़े गड्ढे बन गए पर कहीं मणि का पता न लगा।

चोर हताश होकर लौट आए और संत पर गलत बात कहने का आरोप लगाकर झगड़ने लगे।

संत हंसे, बोले-“मूर्खों! मेरे कथन का अर्थ समझो। खोपड़ी तले सुखदा मणि छिपी है, अर्थात् धार्मिक विचारों के कारण मनुष्य प्रसन्न रह सकता है। तुम भी अपना दृष्टिकोण बदलो और प्रसन्न रहना सीखो।”

चोरों को यथार्थता का बोध हुआ तो वे अपनी आदतें सुधारकर प्रसन्न रहने की कला सीख गए। यही थी वह सुखदा मणि।


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