अनिर्वचनीय है गौ माता की महिमा

September 2003

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गौ-माता भारतीय संस्कृति की दिव्यता एवं दैवत्व का परम पवित्र प्रतीक है। गौ-माता मानव जाति को अनन्य अनुदान देती है। यह माता के समान उपकार करने वाली, दीर्घायु और आरोग्य प्रदान करने वाली है। यह कई प्रकार से मानव मात्र की सेवा करती है और उसे सुख, समृद्धि व शान्ति से ओतप्रोत करती है। इसके उपकार, अनुदान एवं वरदान से मानव कभी उऋण नहीं हो सकता। यही कारण है कि गाय को माता और दैवतुल्य मानकर ‘मातेव रक्षति’ के दिव्य भाव से उसकी प्रार्थना की गयी है। गाय की महत्ता और महिमा अपार है। वह कृषि उद्योग का आधार है तथा समृद्धि की जननी है। इसी कारण सभी धर्मों और सम्प्रदायों में इसका गुणगान किया गया है।

गीता गायक भगवान् श्रीकृष्ण ने गाय को कामधेनु कहा है। कामधेनु अर्थात् हमारी समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली। हमारे दैहिक स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक गुणों की सर्वोत्तम संरक्षिका होने के कारण वेदों में गाय को अमृत नाभि या पीयूष नाभि कहा गया है। गौ-माता की देह में सभी देवता निवास करते हैं। शास्त्रोक्त कथन है कि धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी सर्वप्रथम गाय के रूप में प्रकट हुई और उन्हीं के गोबर से विल्व वृक्ष की उत्पत्ति हुई। वेदों में गाय का गुणानुवाद भाव भरी ऋचाओं और मंत्रों में किया गया है। ऋग्वेद की ऋचा कहती है -

‘गौ में माता ऋषभः पिता में दिवम

शर्म्म जगती में प्रतिष्ठ।’

अर्थात् गाय मेरी माता है और, बैल मेरे पिता हैं, ये दोनों मुझे स्वर्ग और सुख प्रदान करें। गौओं में मेरी प्रतिष्ठ हो।

शुक्ल यजुर्वेद में गाय की महिमा इस तरह से की गई है-

अन्धस्थान्धो वो भक्षीय महस्थ महो वो महीयो। वो भक्षीय रायस्योपस्थ राजत्पोथं वो भक्षीय ॥

अर्थात् हे गौओं! आप अन्न प्रदान करने वाली हैं आपकी कृपा से हम अन्न को प्राप्त करें। आप पूजनीय हैं। आपकी सेवा से हममें सात्त्विक एवं उच्च भाव पैदा हों। आप बल व सामर्थ्य प्रदात्री हैं, हमें भी आप बलवान एवं सामर्थ्यवान् करें। आप धन-सम्पदा को बढ़ाने वाली हैं, अतः हमारे पास भी सम्पदा में अभिवृद्धि हो।

अथर्ववेद में गौओं को ओज, तेज प्रदान करने वाली कहा गया है -

सूर्य गायो भेद कृशं चिद्क्षीरं चि कृणुथा सुप्रतीकम्। अहं गृहं कृणुथा भद्रवाचो वृहदो वय उच्यते समासु॥

गौओं के दूध से निर्बल मनुष्य सबल और स्वस्थ बनता है और निस्तेज व कान्तिहीन मानव तेजस्वी होता है। गौओं से घर की शोभा बढ़ती है। गौओं का शब्द अत्यन्त मधुर है

शास्त्रों में गाय को वेदों की जननी के रूप में उल्लेख किया गया है-

गोभ्यो यज्ञाः प्रवर्त्तन्ते गोम्यो देवाः समुत्थिताः। गोभ्यो वेदाः समुदगोर्णाः सषड्गंपदक्रमाः ॥

गौओं के द्वारा यज्ञ चलते हैं, गौओं से ही देवता हुए हैं। छः अंगों सहित वेदों की उत्पत्ति गौओं से ही हुई है।

श्रृंगमूलं गवा नित्यं ब्रह्मविष्णु समाश्रितो। श्रृंगाग्रे सर्वतीर्थानी स्थावराणि चराणि च॥

गौओं के सींग के मूल में ब्रह्म और विष्णु निवास करते हैं। सींग के अग्रभाग में सब तीर्थ और स्थावर जंगम रहते हैं।

शिरोमध्ये महादेवः सर्वभूतमयः स्थितः। गवामर्गेषु निष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश ॥

गौओं के सिर के बीच में सारे संसार के साथ शिवजी निवास करते हैं। गौओं के अंगों में चौदहों भुवन रहते हैं।

गावः स्वर्गस्य सोपानं गावः स्वर्गेऽपि पूजिताः। गावः कामदुहो देव्यो नान्यात्किचात्परं स्मृतम् ॥

गौएं स्वर्ग की सीढ़ी हैं, स्वर्ग में भी गौओं की पूजा होती है। गौएँ इच्छित फल देने वाली हैं। गौ से बढ़कर उत्तम और कोई वस्तु नहीं है।

गौ की महत्ता केवल हिन्दू धर्म में ही प्रतिपादित नहीं है बल्कि इस्लाम और ईसाई धर्मावलम्बी भी गाय को पवित्र दृष्टि से देखते हैं। मुहम्मद साहब ने गाय को जानवरों का सरदार कहा है और आदेश दिया है कि उसकी बुजुर्गी व इहतराम किया जाए। मुस्लिम प्रचारक ने गौ-हत्या न करने के लिए समय-समय पर फतवा जारी किया है। जब भारत का शासन सूत्र तैमूरवंशी बादशाहों के हाथ आया तो उसका प्रथम शासक बाबर हुआ। बाबर ने जीवन के अन्तिम समय में अपने लड़के हुमायूँ को पत्र लिखकर स्पष्ट किया था कि सबसे पहले गाय की कुर्बानी देना बन्द कर देना, क्योंकि ऐसा किए बिना तुम हिन्दुओं के हृदय पर राज नहीं कर सकते। इसी कारण हुमायूँ ने गौ-वध बन्द कराया था। वह गौ-माँस को नापसन्द करते थे। हुमायूँ तथा बहादुरशाह आदि ने जनता के हित और देश की आर्थिक उन्नति को लक्ष्य में रखकर गौ-हत्या पर पाबन्दी लगायी तथा गौ-वध के विरुद्ध कानून बनाया था।

अकबर ने शाही फरमान निकाला था कि यदि कोई व्यक्ति गौ-हत्या करेगा तो वह सुल्तानी गजट के अंतर्गत एक दण्डनीय अपराध माना जाएगा। उन्होंने इस फरमान का उल्लंघन करने वालों की हाथ व पाँवों की अंगुलियाँ कटवाने की आज्ञा दी थी। हकीम अजमल खाँ के अनुसार कुरान और अरब की प्रथा दोनों ही गौ-हत्या का समर्थन नहीं करती हैं। नवाब साहब मुर्शिदाबाद, नवाब राधनपुर, नवाब मंगरौल, नवाज दरजाना आदि गौ वध के विरोधी थे तथा गौ को आदर व सम्मान देते थे।

गो धन के महत्त्व को मुहम्मद बिन तुगलक और गजनवी भी अच्छी तरह से जानते, समझते थे। इसी कारण खिलजी तथा तुगलक वंशों के बादशाहों ने समय-समय पर गाय की रक्षा के नियम बनाये। ‘आइना-ए-अकबरी-आइना’ में गौ के प्रति अनन्य श्रद्धाभाव का उल्लेख मिलता है। इसके पृष्ठ 63 में कुछ इस प्रकार का वर्णन मिलता है- ‘सुन्दर वसुँधरा भारत में गाय माँगलिक समझी जाती है। उसकी भक्तिभाव से पूजा होती है, और इसी से खेती होती है। इसके द्वारा उत्पन्न अन्न, दूध, मक्खन आदि पौष्टिक एवं उपयोगी होते हैं। गौ माँस निषिद्ध है और उसे छूना पाप है।’

पाश्चात्य विद्वान् एवं मनीषी भी गाय को पवित्र एवं आदर भाव से देखते थे। सर विलियम बैडरवर्न ने गौ माता के प्रति अपनी भावाभिव्यक्ति कुछ इस तरह से दी है- ‘मैं इसकी कल्पना कर सकता हूँ कि किसी राष्ट्र के बिना भी गौ हो सकती है, किन्तु मैं स्वप्न में भी यह अनुमान नहीं कर सकता कि कोई राष्ट्र बिना गौ के भी रह सकता है।’ अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक वाल्टर ए. डामर के अनुसार गौ के सौम्य रूप में देवत्व भरा है। वह महानता और भव्यता से ओतप्रोत है। गाय में शत-प्रतिशत मातृत्व है और मनुष्य जाति से उसका सम्बन्ध माता के समान है। ‘फिजीकल कल्चर’ पत्रिका के अमेरिकी सम्पादक ने माना है कि कोई जाति बिना गौ पालन के समृद्धिशाली नहीं हो सकती।

गाय के प्रति सम्मान का यह भाव अकारण नहीं है। गो सेवा द्वारा ही प्राचीन भारत खुशहाल और समृद्धिशाली रहा। और यह तथ्य आज भी उतना ही समीचीन व सामयिक है। भारतीय कृषि और गोपालन का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। एक के द्वारा दूसरे का पोषण होता है। हमारे देश की आर्थिक संरचना गोपालन पर निर्भर है, क्योंकि यहाँ की 80 प्रतिशत जनता की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि व्यवसाय है। और उसका प्रमुख आधार बैल है, जो गाय से प्राप्त होता है। हमारी अर्थनीति का प्राण व आधार गौ धन है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है, बल्कि इसका समुचित सुनियोजन करके ही विकास व प्रगति के पथ पर बढ़ा जा सकता है।

आरोग्य एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए तो गोपालन अनिवार्य एवं अपरिहार्य है। इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. जी.ई. बिगेंड ने गोबर पर अनेक शोध कार्य किया है। उनके अनुसार ताजे गोबर से तपेदिक और मलेरिया के कीटाणु मर जाते हैं। गाय के गोबर की इस आश्चर्यजनक शक्ति के कारण ही इटली के अधिकाँश सेनेटोरियमों में गोबर का ही उपयोग किया जाता है। गाय के श्वास से निकलने वाली वायु और गाय के रंभाने से बहुत से रोगों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। जहाँ पर गाय बंधी होती है वहाँ रोग नहीं पनपते क्योंकि उस क्षेत्र में कीटाणु जीवित नहीं रह सकते हैं। गाय का गोबर रेडियोएक्टिव जैसे अति विषैले तत्त्वों को निष्क्रिय कर देता है।

आर्ष साहित्य में गौ के गोबर में लक्ष्मी का और मूत्र में गंगा का वास बताया गया है। इस उक्ति के पीछे प्रबल तथ्य है- यह श्रद्धा या संयोगवश नहीं कहा गया है। प्रयोग में पाया गया है कि गाय के गोबर व गोमूत्र में कार्बोनिक एसिड तथा मैंगनीज होता है, जिसके कारण उनमें कीटाणुनाशक गुण होता है। इसमें स्वर्णसार आँरम आक्साइड होता है। अतः यह भी जीवाणु एवं विषनाशक है। सोडियम और आयरन की उपस्थिति के कारण यह अम्लतानाशक और रक्तशोधक भी है। गोमूत्र व गोबर इन विशिष्टताओं की वजह से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ये अनेक रोगों का शमन व स्वास्थ्य का संवर्धन करते हैं। इसके अलावा इनसे अनेक प्रकार के ऐसे उत्पाद बनाए जा सकते हैं, जो कुटीर उद्योग व ग्रामोद्योग का सुदृढ़ आधार बन सकते हैं। गोबर गैस संयंत्र से जनरेटर चलाकर बिजली पैदा की जा सकती है। इस प्रकार गोवंश की सेवा करना कृषि, उद्योग, ऊर्जा, पर्यावरण आदि के लिए अत्यन्त लाभदायक है।

मनुष्येत्तर जीवों में गाय का भावनात्मक स्तर सर्वाधिक होता है। उसके स्वभाव में करुणा, ममता, शालीनता, संतोष जैसी सत्प्रवृत्तियों का बाहुल्य रहता है। उसमें उत्साह, स्फूर्ति, बलिष्ठता और सहनशीलता अन्य पशुओं की अपेक्षा अधिक होती है। ये सब गुण गाय के दूध में भी रहते हैं। उसे प्रयोग करने वाले की मनःस्थिति एवं प्रवृत्ति भी उसी ढाँचे में ढलती है। तत्त्वदर्शियों ने गाय को अनेक आत्मिक गुणों से सम्पन्न पाया है। उनके अनुसार उसका सान्निध्य, सेवा, उपक्रम एवं गोरस का सेवन बौद्धिक एवं भावनात्मक विकास में सहायक होता है। दुग्ध पान करने वाले के अन्दर भी सात्त्विकता में अभिवृद्धि होती है। गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र एवं गोबर से बने पंचगव्य के सेवन से देह ही नहीं मन एवं बुद्धि के विकार व विकृति भी दूर होते हैं और आयु, बल, तेज आदि की वृद्धि होती है।

गाय चैतन्य, प्रेम, करुणा, त्याग, सन्तोष और सहिष्णुता आदि दिव्य गुणों से परिपूर्ण है। गाय के रोम-रोम में सात्त्विकता का विकिरण होता है। श्रद्धापूर्वक उसकी सेवा करने से अंतःकरण में परमात्मा के स्मरण का स्फुरण होता है। अतः हमें इस लाभ से लाभान्वित होने के लिए गोपालन एवं गोसेवा करनी चाहिए, जिससे हम आर्थिक लाभ, शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शान्ति एवं आत्मिक उपलब्धि प्राप्त कर सकें।


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