मनःस्थिति के अनुरूप ही चुनाव (kahani)

September 2003

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एक सिद्ध पुरुष नदी में स्नान कर रहे थे। एक चुहिया पानी में बहती आई। उन्होंने उसे निकाल लिया। कुटिया में ले आए आए और वह वहीं पलकर बड़ी होने लगी।

चुहिया सिद्ध पुरुष की करामातें देखती रहती सो उसके मन में भी कुछ वरदान पाने की इच्छा हुई। एक दिन अवसर पाकर बोली, “मैं बड़ी हो गई, किसी वर से मेरा विवाह करा दीजिए।”

संत ने उसे खिड़की में से झाँकते सूरज को दिखाया और कहा, “इससे करा दें।” चुहिया ने कहा, “यह तो आग का गोला है। मुझे तो ठंडे स्वभाव का चाहिए।” संत ने बादल की बात कही, “यह ठंडा भी है, सूरज से बड़ा भी। वह आता है तो सूरज को अंचल में छिपा लेता है।” चुहिया को यह प्रस्ताव भी रुचा नहीं। वह इससे बड़ा दूल्हा चाहती थी। संत ने पवन को बादल से बड़ा बताया, जो देखते-देखते उसे उड़ा ले जाता है। उससे बड़ा पर्वत बताया, जो हवा को रोककर खड़ा हो जाता है। जब चुहिया ने इन दोनों को भी अस्वीकार कर दिया तो सिद्ध-पुरुष ने पूरे जोश-खरोश के साथ पहाड़ में बिल बनाने का प्रयास करते चूहे को दिखाया। चुहिया ने उसे पसंद कर लिया, कहा-“चूहा पर्वत से भी श्रेष्ठ है, वह बिल बनाकर पर्वतों की जड़ खोखली करने और उन्हें इधर से उधर लुढ़का देने में समर्थ रहता है।” एक मोटा चूहा बुलाकर संत ने चुहिया की शादी रचा दी। उपस्थित दर्शकों को संबोधित करते हुए संत ने कहा, “मनुष्य को भी इसी तरह अच्छे-से-अच्छे अवसर दिए जाते हैं, पर वह अपनी मनःस्थिति के अनुरूप ही चुनाव करता है।”


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