देवसंस्कृति एवं पर्यटन

September 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्राकृतिक सौंदर्य एवं साँस्कृतिक समृद्धि अपने भारत देश का परिचय है। यही राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव की पहचान है। ‘सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा’ कहकर यजुर्वेद के ऋषि ने इसे परिभाषित किया है। इस वेदमंत्र का मर्म यही है कि वह विश्ववारा- सबके वरण करने योग्य, सबसे प्रथम संस्कृति है। संस्कृति की पहली किरणें भारत भूखण्ड में उतरीं। संस्कृति के प्रभातकालीन सूर्योदय का श्रेय इसी देश को मिला। हालाँकि इसकी किरणें समूची धरा को प्रकाशवान बनाने के लिए निःसृत होती रहीं। भारतीय विद्याओं के महामनीषी डॉ. भीखनलाल आत्रेय ने अपने ग्रन्थ ‘भारतीय संस्कृति’ में इस निष्कर्ष को बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से प्रतिपादित किया है कि ज्ञात संसार की सभी संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन है और सभी संस्कृतियों की माता है।

इस ऐतिहासिक सच से अनेकों विद्वान सहमत हैं कि प्राचीन काल में ईसा से पूर्व ही धर्म, कला, नीति, सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में भारत की ख्याति समूची दुनिया में फैल चुकी थी। संस्कृति-मनुष्य को सुसंस्कृत एवं मानवीय चेतना को परिष्कृत बनाने का विज्ञान है। इस सम्बन्ध में जितने व्यापक एवं बहुआयामी प्रयोग भारत में किए गए, उतने कहीं और नहीं। अपना देश एवं अपने यहाँ की संस्कृति विविध प्रकार के अनुभवों में रची-बसी है। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि इस साँस्कृतिक भव्यता को तैयार करने में भारत देश के भूगोल और जलवायु का काफी बड़ा हाथ है। भारत भूमि प्राकृतिक विविधताओं की स्थली है। यहाँ एक ओर जहाँ विश्व की सबसे ऊँची पर्वत शृंखला हिमालय है, वहीं दूसरी ओर समुद्र तट से भी नीचे दिखती उर्वर घाटियाँ, उपजाऊ भूमि के विशाल मैदान, घने जंगल, जलहीन मरुस्थल, असीम जलराशि को अपने में समेटे महासागर, लहराती नदियाँ और दलदली जमीन के टुकड़े भी हैं।

उत्तरी भारत में यह विविधता कुछ ज्यादा ही नजर आती है, जहाँ हिमालय की ऊँचाई नापती पावन नदी गंगा अपने साथ नीचे लाई उर्वर खाद उत्तरप्रदेश और बिहार के धान एवं गेहूँ के घने खेतों में जा बिखेरती है। बीहड़ जंगल और झिलमिलाती झीलों की रक्षा में तैनात पूर्व घाटियों के दुर्गम पर्वत, सर्पीले रास्तों से नीचे उतर कारोमण्डल तट रेखा पर ताड़ के पेड़ों से सटे बेहद खूबसूरत समुद्र तटों से जा मिलते हैं। पश्चिम में गोवा और दक्षिण में केरल की भव्य तटरेखा ने समुद्री यात्रियों को हमेशा से ही आकर्षित किया है। गुजरात का समुद्र तट तो कई शताब्दियों तक व्यापारियों का आवाजाही का मूकदर्शक रहा है। किलों, महलों और घाटियों में साँस्कृतिक समृद्धि को समेटे राजस्थान का परिवेश हैरत में डाल देता है। जब जैसलमेर जैसी गुलाबी बाजू पत्थर की नगरी, थार मरुस्थल के बीच से मरीचिका सी उभरती नजर आती है।

भारत संस्कृतियों का ऐसा अनोखा सामञ्जस्य है, जो आज के दौर में भी विश्व के सामञ्जस्यपूर्ण जीवन के अनेकों समाधान सुझा सकता है। समस्याएँ राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय, भारतीय संस्कृति में इनके समाधान के अंकुर खोजे जा सकते हैं। यह मत उन सभी का है, जो यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य एवं साँस्कृतिक समृद्धि से आकर्षित होकर आए। ख्वारिज्म में जन्मे अलबरूनी का नाम इस क्रम में शीर्ष पर अंकित किया जाता है। ग्यारहवीं सदी में आने वाले भारतीय संस्कृति को जितना गहराई से इसने परखा, उतनी गहराई कम ही लोगों में देखने को मिलती है। अपनी इस परख और समझ के आधार पर उसने 114 से अधिक पुस्तकें लिखीं। इन सभी पुस्तकों में ‘किताब-उल हिन्द’ विशेष उल्लेखनीय है। इस पुस्तक में उसने भारत की संस्कृति एवं यहाँ की परम्पराओं का सूक्ष्मता से उल्लेख किया है।

अलबरूनी का कहना है कि संस्कृति एवं पर्यटन दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। संस्कृति जहाँ ज्ञान-विज्ञान की प्रक्रियाओं व परम्पराओं को जन्म देती है, वहीं पर्यटन इन्हें देश व्यापी और विश्व व्यापी बनाता है। उसके अनुसार भारतवासी पर्यटन की महिमा से चिर अतीत से परिचित थे। तभी यहाँ तीर्थयात्रा, प्रव्रज्या एवं धर्मचक्र प्रवर्तन जैसी अनोखी परम्पराएँ विकसित हो सकीं। अलबरूनी की एक बात और महत्त्वपूर्ण है, जो उसने ‘किताब उलहिन्द’ में कही है। इसके अनुसार भारतीय संस्कृति में इस सत्य को पहली बार अनुभव किया गया कि ज्ञान सच्चे अर्थों में अन्तर्राष्ट्रीय होता है। विचारों तथा प्रमुख आविष्कारों का लाभ चाहे वे किसी भी क्षेत्र में किए हों, सभी राष्ट्रों को पहुँचने चाहिए।

भारतीय संस्कृति से आकर्षित होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों में इब्नबतूता का नाम भी उल्लेखनीय है। इब्नबतूता का वास्तविक नाम ‘अबू अब्दुल्ला महमूद’ था। इब्नबतूता उसके कुल का नाम था, हालाँकि वह इसी नाम से मशहूर हुआ। इब्नबतूता ने अपने यात्रा वृत्तांत में भारतीय संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण पक्षों को उजागर किया है। भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों में ह्वेनसांग, इत्सिंग और फाह्यन का नाम भी विशिष्ट क्रम में रखा जाता है। इनमें से फाह्यन ने अपनी सम्पूर्ण युवावस्था भारत के साँस्कृतिक एवं प्राकृतिक सौंदर्य के अध्ययन व अवलोकन में लगा दी। बाद में उसने अपने यात्रा वृत्तांत को 40 पर्वों में प्रकाशित किया।

भारतीय संस्कृति एवं पर्यटन का यह प्राचीन क्रम आज भी चिर नवीन है। आज के दौर में भी न केवल भारत को बल्कि समूची विश्व-सभ्यता को इसकी आवश्यकता है। हाँ जरूरत बस इतनी है कि भारतीय संस्कृति का युगानुरूप प्रस्तुतीकरण हो। वर्तमान समय के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्नों के अनुरूप इसमें नए शोध-अनुसंधान किए जाएँ। इसके अध्ययन-अध्यापन की नयी परम्परा सुविकसित हो। साथ ही भारत के साँस्कृतिक ज्ञान के विस्तार एवं प्राकृतिक सौंदर्य के निखार के लिए नया पर्यटन प्रबन्धन विकसित किया जाय। इस क्रम में आध्यात्मिक पर्यटन को सर्वथा नया रूप देने की जरूरत है। जिससे कि प्राचीन ऋषियों की शिक्षण व संस्कार परम्परा फिर से अपना ओजस् अर्जित कर सके।

नालन्दा-तक्षशिला एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय की प्राचीन परम्परा में शान्तिकुञ्ज द्वारा नव स्थापित देव संस्कृति विश्वविद्यालय ने इसे पूरा करने का ऋषि संकल्प लिया है। इस क्रम में यहाँ सत्र 2003-2004 में ‘भारतीय संस्कृति एवं पर्यटन प्रबन्धन’ का सर्वथा नवीन पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया है। इस पोस्ट ग्रेजुएट (एम.ए.) पाठ्यक्रम की अनेकों विशेषताएँ हैं। इसमें एक ओर जहाँ भारतीय संस्कृति के प्राचीन गौरव का समग्र बोध है, वहीं वर्तमान युग में इसके अनगिनत प्रयोगों का आयोजन है। पर्यटन प्रबन्धन के अंतर्गत तीर्थ परम्परा को नवप्राण देने के साथ भारत के प्राकृतिक गौरव को विश्व पटल पर लाने का सार्थक आयोजन किया जाएगा। वे छात्र-छात्राएँ सौभाग्यशाली होंगे, जिनकी इस पाठ्यक्रम में भागीदारी बनेगी। क्योंकि यही भविष्य में भारत भूमि के संस्कृति दूत की सार्थक भूमिका निभा सकेंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118