अब फिर बज उठे रणभेरी

December 2003

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कोशल नरेश प्रसेनजित को अपने इस महाबलवान हाथी पर गर्व था। महायुद्धों में उसका पराक्रम देखते ही बनता था। शत्रुओं के झुण्ड के झुण्ड को वह देखते ही देखते साँकलों में बाँध लेता। शत्रुओं को बाँधने की कला में प्रवीण होने के कारण ही महाराज ने उसका नाम बद्धरेक रखा था। उसके बल और पराक्रम की कहानियाँ दूर-दूर तक फैली थीं। कोशल निवासी उसे अपने देश का रत्न मानते थे। अन्य साम्राज्यों के सेनानी भी यह स्वीकारते थे कि युद्ध में ऐसा कुशल हाथी पहले कभी देखा नहीं गया।

अन्य महादेशों के सम्राट उस हाथी को किसी भी कीमत पर खरीदना चाहते थे। वे सब उसे पाने के लिए कुछ भी कीमत चुकाने के लिए तैयार थे। सभी की नजरें उस पर लगी रहती थीं। सचमुच ही वह अपूर्व था। युद्ध में कभी किसी ने उसे भागते नहीं देखा। कितना ही भयानक संघर्ष हो, कितने ही तीर उस पर बरस रहे हों और भाले फेंके जा रहे हों। वह चट्टान की तरह अडिग खड़ा रहता था। उसकी चिंघाड़ कुछ ऐसी थी कि दुश्मनों के दिल बैठ जाते थे। शत्रु सेना में भगदड़ मच जाती थी। उसने अपने मालिक कोशल नरेश की बड़ी सेवा की थी। अनेक युद्धों में उन्हें जिताया था।

लेकिन इन दिनों काल के प्रवाह ने उसे वृद्ध बना दिया था। हालाँकि अभी भी कोशल निवासी उसे बड़े ही सम्मान से देखते थे। बुढ़ापे की दुर्बलता का असर उस महाबलवान हाथी पर स्पष्ट झलकता था। एक दिन जब वह तालाब में नहाने के लिए उतरा, तो पता नहीं कैसे वह तालाब की कीचड़ में फँस गया। कभी किसी समय जो बड़े से बड़े दलदल को एक ही आवेग में चीरता हुआ पार कर लेता था, आज तालाब की कीचड़ से नहीं उबर पा रहा था। उस बद्धरेक हाथी ने अनेकों प्रयास कर डाले, लेकिन उस कीचड़ से वह स्वयं को निकालने में समर्थ न हो सका। महाराज प्रसेनजित के सेवकों ने भी बहुत चेष्टा की, लेकिन कोई खास परिणाम न निकला। सब कुछ असफल हो गया।

अपने परमप्रिय एवं सुप्रसिद्ध हाथी की ऐसी दुर्दशा देख कर सभी लोग दुःखी हो गए। तालाब पर भारी भीड़ इकट्ठी हो गयी। वह हाथी सारे कोशल देश का चहेता था। देश भर में उसे प्यार करने वाले थे। बाल-वृद्ध-वनिताएँ सभी का वह प्यारा था। उसकी आँखों एवं व्यवहार से सदा ही बुद्धिमानी झलकती थी। आज उसकी यह दुर्दशा सभी को असहनीय लग रही थी। महाराज प्रसेनजित ने उसे कीचड़ से निकालने के लिए अनेक महावत भेजे। पर वे भी हार गए। किसी को कोई उपाय नहीं समझ आ रहा था।

ऐसी विकट स्थिति में महाराज प्रसेनजित स्वयं उस तालाब पर जा पहुँचे। उन्हें भी अनेक युद्धों में विजय दिलाने वाले हाथी का यह दुःख सहन नहीं हो रहा था। अपने महाराज को आया हुआ देख राजधानी के प्रायः सारे लोग उस तालाब पर इकट्ठे हो गए। सभी दुःखी थे, परेशान थे, किन्तु किसी को कोई भी उपाय नहीं सूझ रहा था।

ऐसे में स्वयं महाराज प्रसेनजित को ही अपने पुराने महावत की याद आयी। यही महावत बद्धरेक की देखभाल किया करता था। अब वह भी वृद्ध होकर राज्य की सेवा से निवृत्त हो गया था। इन दिनों वह प्रायः हर समय भगवान् तथागत के उपदेशों में डूबा रहता था। उस महावत के लिए भी राजा के मन में भारी सम्मान था। आज अपने परम प्रिय बद्धरेक हो फँसा हुआ देख राजा ने सोचा, शायद ऐसे में वह बूढ़ा महावत ही कुछ कर सके।

महाराज की इस सोच के प्रेरक भगवान् तथागत के वचन ही थे। एक दिन धर्म प्रवचन करते समय भगवान् ने कहा था- बद्धरेक एवं इस महावत का जन्म-जन्म का साथ है। उन्होंने उस बूढ़े महावत को सम्बोधित करते हुए कहा था- तू इस बार ही इस हाथी के साथ नहीं है, पहले भी रहा है। यहाँ सब जीवन जुड़ा हुआ है। फिर इस जीवन तो पूरे समय हाथी के साथ ही रहा था। हाथी उसी के साथ बड़ा हुआ था, उसी के साथ जवान हुआ था और अब उसी के साथ बूढ़ा भी हो गया था। उस महावत ने हाथी को हर हाल में देखा था। शान्ति और युद्ध दोनों में उसकी समझदारी से वह परिचित था। एक तरह से वह हाथी की रग-रग से वाकिफ था। राजा ने इन परिस्थितियों में सोचा शायद वह बूढ़ा महावत ही कुछ कर सके।

महाराज प्रसेनजित की खबर पाते ही वह बूढ़ा महावत हाजिर हो गया। उसने अपने उस प्यारे हाथी को कीचड़ में फँसे देखा। इस दृश्य को देखकर उसके माथे पर बल पड़े, मस्तिष्क में कुछ विद्युत् की भाँति कौंध गया। और फिर वह मुस्कराया। अपनी इस मुस्कराहट के साथ ही उसने महाराज को निवेदन किया कि यहाँ पर संग्राम भेरी बजायी जाय। आज यहाँ युद्ध के सभी वाद्य बजने चाहिए। उस महावत की सलाह पर तुरन्त अमल किया गया। वहाँ तुरन्त संग्राम भेरी बजने लगी। युद्ध के नगाड़ों की आवाज सुनकर जैसे अचानक ही वह बूढ़ा हाथी जवान हो गया और कीचड़ से उठकर किनारे पर आ गया। वह तो जैसे भूल ही गया अपना बुढ़ापा और कमजोरी। उसका सोया हुआ योद्धा जाग उठा और वह चुनौती काम कर गयी। फिर उसे क्षण भर भी देर न लगी।

अब तक किए जा रहे सभी उपायों पर यह संग्राम भेरी भारी पड़ी। बजते हुए युद्ध घोष ने उसका सोया हुआ शौर्य जगा दिया। उसका शिथिल पड़ गया खून फिर से दौड़ने लगा। अपने पराक्रम के स्मरण मात्र से वह ऐसी मस्ती और सरलता-सहजता से बाहर आ गया कि जैसे वहाँ कोई कीचड़ न हो और न वह वहाँ कभी फँसा हो। किनारे पर आकर वह हर्षोन्माद में ऐसे चिंघाड़ा जैसा कि वर्षों से लोगों ने उसकी चिंघाड़ सुनी ही नहीं थी।

भगवान् के बहुत से भिक्षु भी उस बूढ़े महावत के साथ यह दृश्य देखने के लिए तालाब पर पहुँच गये थे। उन्होंने सारी घटना भगवान् को आकर सुनायी। तब भगवान् ने सभी उपस्थित भिक्षुओं से कहा- अरे तुम सब उस अपूर्व हाथी से कुछ सीखो। उसने तो कीचड़ से अपना उद्धार कर लिया, तुम कब तक इस कीचड़ में फँसे रहोगे? और तुम देखते नहीं मैं कब से संग्राम भेरी बजा रहा हूँ। भिक्षुओं! जागो और जगाओ अपने संकल्प को। वह हाथी भी कर सका। अति दुर्बल बूढ़ा हाथी भी कर सका। क्या तुम कुछ भी न करोगे? मनुष्य होकर-सबल होकर, बुद्धिमान होकर क्या तुम कुछ न कर सकोगे?

भगवान् तथागत की यह तेजस्वी वाणी श्रोताओं के मर्म को भेद रही थी- वह कह रहे थे- क्या तुम हाथी से भी गए बीते हो? चुनौती लो उस हाथी से; तुम भी आत्मवान् बनो। एक क्षण में क्रान्ति घट सकती है। बस केवल स्मरण आ जाए, भीतर जो सोया है, जग जाए। फिर न कोई दुर्बलता है, न कोई दीनता। भिक्षुओं, बस अपनी शक्ति पर श्रद्धा चाहिए। त्वरा चाहिए, भिक्षुओं, तेजी चाहिए। एक क्षण में काम हो जाता है। वर्षों का सवाल नहीं है। लेकिन सारी शक्ति एक क्षण में इकट्ठी लग जाए, समग्रता से, पूर्णरूपेण। और इसके बाद उन्होंने यह धम्मगाथा कही-

अप्पमादरत्व होथ स चित्तमनुरक्खथ। दुग्गा उद्धरथत्तानं पंके सत्तोव कुँजरो॥

अर्थात्- अप्रमाद में रत होओ, जागो और अपने चैतन्य की रक्षा करो। इस दुर्गमता से अपना उसी तरह उद्धार करो, जैसे कि उस हाथी ने कीचड़ से अपना उद्धार कर लिया।


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