राजा को दयालु कहलाने और दानवीर की प्रशंसा सुनने की ललक लगी। सो उसने एक दिन ऐसा निश्चय किया कि पक्षी पकड़ने वाले लोग दरबार में आएं और बंदी पक्षियों के मूल्य लेकर उन्हें स्वतंत्र कर दें। राजा की दयालुता का यश फैला। निश्चित दिन पर हजारों पिंजड़े खाली होते और राज्यकोष से उन्हें धन मिलता।
एक मुनि-मनीषी वहाँ पहुँचे। दृश्य देखा तो बहुत दुखी हुए। मुनि ने राजा को समझाया, “आपकी यश-कामना इन निरीह पक्षियों को बहुत महँगी पड़ती है। लालच की पूर्ति के लिए असंख्य नए शिकारी पैदा हो गए हैं और पकड़े जाने के कुचक्र में अगणित पक्षियों को त्रास मिलता है और प्राण जाते हैं। यदि दयालुता का प्रदर्शन नहीं, पालन अभीष्ट है तो आप पक्षी पकड़ने पर प्रतिबंध लगाएँ।”
राजा ने अपनी भूल समझी और दयालुता का प्रदर्शन छोड़कर वह नीति अपनाई, जिससे वस्तुतः दया-धर्म का पालन होता था।
माघ विद्वान भी थे, कवि भी, प्रतिभावान भी। अपनी अद्भुत काव्य-शक्ति के बल पर उन्होंने कमाया भी बहुत। इतने पर भी वे कभी संपन्न न बन सके। जो हाथ आया, वह अभावग्रस्तों, दुखी-दरिद्रों की सहायता के लिए बिखेर दिया।
एक बार उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष पड़ा। अपनी संपदा बेचकर वहाँ के दीन-दरिद्रों की अन्न पूर्ति के लिए लगा दिया। मात्र उनका नवरचित काव्य घर में शेष रह गया। सोचने लगे, इसके बदले कुछ पैसा मिल जाए जो उसे भी समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए लगा दिया जाए।
काव्य का मूल्य-महत्त्व कौन समझे? गुणपारखी कहाँ से मिलें? याद आया कि इन दिनों राजा भोज ही ऐसे हैं, उन्हीं के पास चला जाए, पर इतनी दूर जाने के लिए मार्ग-व्यय कहाँ से आए? दूसरा प्रश्न यह सामने था कि भोज उन्हें पहचान लेंगे तो उचित से अधिक मूल्य देने लगेंगे जो उन्हें स्वीकार न था। सोचा गया, पत्नी के साथ चला जाए। ग्रंथ को अपरिचित महिला द्वारा प्रस्तुत किए जाने पर उतना ही मिलेगा जो उचित है।
माघ और उनकी पत्नी पैदल ही चल पड़े। लंबी यात्रा तय करके राजदरबार में पहुँचे। एक अपरिचित महिला द्वारा-काव्य, बेचने या गिरवी रखने की दृष्टि से, प्रस्तुत किया गया। काव्य के कुछ पृष्ठ उलटते ही भोज दंग रह गए। उन्होंने मुक्त हस्त से उसका पुरस्कार दिया।
जो मिला, उसे लेकर माघ और उनकी पत्नी वापस लौटे। मार्ग में फिर वही दुर्भिक्षग्रस्त क्षेत्र मिला। वहीं से बाँटना आरंभ किया गया तो घर पहुँचते-पहुँचते सारी राशि समाप्त हो गई और ठीक वैसी ही अभावग्रस्त स्थिति में वापस लौटे, जैसी कि चलते समय थी। कहते हैं, अन्य क्षुधातों की तरह इस दंपत्ति का भी उसी दुर्भिक्ष के प्रकोप में देहावसान हो गया।