गायत्री की दो भुजाएँ, योग और तप

December 2003

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मनुष्य संपत्तियों से नहीं, विभूतियों से ही सुखी और समुन्नत हो सकता है। गुण, कर्म, स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाए बिना, कर्तृत्व को आदर्शवादी बनाए बिना आत्मिक उत्कर्ष को प्राप्त कर सकना तो दूर रहा, प्रचुर संपत्ति प्राप्त कर लेने पर भी चैन से नहीं रहा जा सकता। व्यक्ति की अंतःचेतना यदि निकृष्ट स्तर की बनी रहे तो कुबेर जैसा धनी और इंद्र जैसा समर्थ होते हुए भी उसे निरंतर असंतोष एवं विक्षोभ की आग में ही जलते रहना होगा। अस्तु, मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी संपदा, सबसे बड़ी सफलता आत्मिक उत्कर्ष ही है। इस सफलता को प्राप्त कर कोई व्यक्ति बड़ा आदमी भले ही न बन पाए, पर महान तो निश्चित रूप से बन ही जाता है।

यह महानता परलोक के लिए ही उपयोगी नहीं है, इस लोक में भी उपार्जनकर्त्ता को देवोपम स्तर पर ले जाकर रख देती है। भले ही उसके पास भौतिक साधन स्वल्प हों, पर उसके स्थान पर जो आत्मिक कमाई उसके पास संगृहीत रहती है वह क्षणभंगुर संपत्तियों की तुलना में हजारों-लाखों गुना हर्षोल्लास, गौरव-वर्चस्व प्रदान करती है। ऐसा व्यक्ति जहाँ भी रहता है, वहीं स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न करता है। उसके भीतर की सुगंध चंदन वृक्ष की तरह दूर-दूर तक फैलती है और समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को भी सुगंधयुक्त कर देती है। मनुष्य में देवत्व का उदय कोई कल्पना नहीं है। स्वयं प्रकाशित और समीपवर्ती क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला व्यक्ति सच्चे अर्थों में देव है। उसे किसी देवलोक में जाने की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि जहाँ कहीं भी उसका रहना होता है, वहाँ सहज सी देव-वातावरण बनकर खड़ा होता है। अध्यात्म किसी को स्वर्ग में भेजता नहीं, वरन् साधक को कहीं भी स्वर्ग का सृजन कर लेने की सामर्थ्य प्रदान करता है। अस्तु, हमें अध्यात्म की गरिमा समझनी चाहिए और उसकी उपलब्धि के लिए धन, बल, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि संग्रह करने में भी अधिक ध्यान देना चाहिए। शरीरगत वासनाएं और मनोगत तृष्णाएं अपनी तृप्ति माँगती हैं और उसके लिए हमारा समय, श्रम एवं मनोयोग हथिया लेती हैं। आत्मा की भूख और पुकार की ओर निताँत उपेक्षा बढ़ती जाती है, उसके क्षुधार्त्त रहने से कितनी क्षति उठानी पड़ती है, उसे हम वासना, तृष्णा के गुलाम नर-कीटक देख-समझ ही नहीं पाते। हमारी दृष्टि और दिशा बदली जानी चाहिए।

मनुष्य की दृष्टि और दिशा जिस आधार पर बदलती है, उसी का नाम अध्यात्म है। यों सुख, शाँति, सफलता और समुन्नति के लिए मनुष्य बाहरी प्रयासों में ही उलझा रहता है। वे आवश्यक भी हैं, पर सब कुछ वही नहीं हैं। अध्यात्म मनुष्य का इस वस्तुस्थिति से साक्षात्कार कराता है कि सुख-समुन्नति का केंद्र जो अपने भीतर है, उस केंद्र पर पहुँचकर-आत्मिक उत्कर्ष का मार्ग अपनाकर मनुष्य महानता, देवत्व और ईश्वरीय सामर्थ्य से संबंध-सूत्र जोड़ लेता है, जगा लेता है।

समूचा अध्यात्म देखा जाए तो गायत्री का ही विस्तार है। अध्यात्म दर्शन के आद्यग्रंथ वेद ही कहे जाते हैं और वेदों का मूल गायत्री मंत्र है। गायत्री में वे समस्त तत्त्व निहित हैं, जिन्हें अपनाकर कोई व्यक्ति महान बन सकता है और देवताओं की स्थिति में पहुँच सकता है।

गायत्री के एकमुखी चित्र में दो भुजाएँ चित्रित हैं। ये दोनों भुजाएँ अध्यात्म के दो पक्षों को इंगित करती हैं। अध्यात्म के इन दो पहलुओं को उसकी दो भुजाएँ भी कह सकते हैं और वे दो भुजाएँ हैं- एक योग, दूसरी तप। योग का अर्थ है- अपनी कामनाएँ, लिप्साएँ, तृष्णाएँ, वासनाएँ सब कुछ को ईश्वर रूपी समष्टि में, उत्कृष्ट आदर्शवादिता में जोड़ देना, व्यक्तिवाद को समूहवाद में बदल देना। तृष्णा के अनगढ़ लोहे को संयम, अपरिग्रह की आग में पकाकर बहुमूल्य लौहभस्म बना देना। मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए, उन्हें समाप्त अथवा परिष्कृत करने के लिए अध्यात्म का सहारा लिया जाता है। तृष्णाएँ असीम हैं। एक व्यक्ति की कामनाएँ समस्त देवता मिलकर भी पूरी नहीं कर सकते। संसार में जितनी सामग्री है वह एक व्यक्ति की इच्छाएँ पूरी कर सकने में भी स्वल्प है। आत्मकल्याण की आवश्यकता अनुभव करने वाले का पहला कदम न्यूनतम निर्वाह के साधन मिलने पर संतुष्ट रहना और अपनी बची हुई शक्तियों को सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन में लगाना है। अध्यात्म का प्रतिफल मनोकामनाओं की पूर्ति नहीं, वरन् उस अनावश्यक जंजाल की मनःक्षेत्र से जड़ें कट जाना है। ऐसे ही लोग आप्तकाम कहलाते हैं। उन्हीं को अपनी दिव्यता विकसित करने का, अंतरात्मा को निर्मल बनाने का अवसर मिलता है। ऐसे लोगों को ही अपने भीतर ईश्वर की झाँकी होती है। वे ही अपना और दूसरों का कल्याण कर सकने में समर्थ बनते हैं।

उपर्युक्त पंक्तियों में अध्यात्म की एक धारा योग का उल्लेख हुआ। नाला अपने आप को गंगा में मिलाकर गंगा बनता है। भक्त अपनी समस्त आकाँक्षाएँ ईश्वर के आदेशों में घुलाकार भगवान बनता है। वह ईश्वर को अपनी इच्छानुसार नहीं नचाना चाहता, वरन् उसकी इच्छानुसार नाचना चाहता है। अध्यात्म की दूसरी धारा है ‘तप’। तप का अर्थ है- तपना, कष्ट सहना। कुछ लोग धूप में खड़ा होना, ठंड में नहाना, नंगे बदन, नंगे पाँव रहना, मौन रहना, अन्न-जल ग्रहण न करना आदि शारीरिक कष्ट सहन करने को तप समझते हैं और सोचते हैं, इन बातों से दया-द्रवित होकर ईश्वर हमारे प्रति कृपालु हो जाएंगे। ऐसा सोचना ईश्वर जैसी महान और नियामक सत्ता के संबंध में ओछा दृष्टिकोण अपनाना है। शारीरिक कष्ट सहने वालों से शरीर को हठपूर्वक जलाने वालों से ईश्वर को क्यों और क्या सहानुभूति हो सकती है? तप के नाम पर इन दिनों इसी प्रकार की अंध मान्यताओं का बोलबाला है।

तप का वास्तविक अर्थ है- संसार में संव्याप्त पीड़ा और पतन की निवृत्ति के लिए अपनी सुख-संपदा का बड़े-से-बड़े भाग दे डालना। दूसरों के कष्ट अपने कंधों पर ओढ़ लेना, अपने सुख दूसरों पर बिखेर देना। स्वभावतः दुख बंटाने वाले और सुख बाँटने वाले लोग भौतिक दृष्टि से गरीबों जैसे स्तर पर निर्वाह करते हैं। अमीरी का उपभोग तो केवल वे पाषाणहृदय कर सकते हैं, जिन्हें दूसरों के कष्टों से कोई सहानुभूति नहीं। जब समस्त मानव जाति के लोग हमारे कुटुँबी हैं तो हमारा निर्वाह स्वभावतः अपने भाइयों के स्तर पर होना चाहिए। गरीबी में रहने से न किसी का स्वास्थ्य खराब होता है और न अन्य दिशा में हानि होती है। ऋषि जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

यही सच्चा अध्यात्म है- गायत्री का तत्त्वदर्शन है। जिनके मन में इस तरह की उमंगें उठती अनुभव हों और जो इस दिशा में कदम उठाने के लिए यत्नशील हों, उन्हें ही सच्चा अध्यात्मवादी, गायत्री का सच्चा उपासक कहा जा सकता है।

आदर्शों की चर्चा से नहीं, उन्हें जीवन में उतारने से काम चलता है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि अगणित व्यक्तिगत दोष-दुर्गुणों को अलग-थलग करके, एक-एक करके नहीं हटाया जा सकता है। रानी मधुमक्खी जहाँ रहती है, वहाँ पूरा शहद का छत्ता जमा रहता है और अन्य मक्खियों का पूरा झुँड वहाँ जमा रहता है। समस्त दोष-दुर्गुण, लोभ और मोह के इर्द-गिर्द जमा रहते हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता की रानी मक्खी जब तक उड़ेगी नहीं, तब तक दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का छत्ता ज्यों-का-त्यों बना रहेगा। विचार किया जाना चाहिए कि पेट और प्रजनन के लिए, वासना और तृष्णा के लिए, सर्वतोभावेन समर्पित हमारा जीवन क्या परमेश्वर के लिए, आदर्शों के लिए नियोजित किया जा सकता है? स्मरण रखा जाना चाहिए कि जितना स्वार्थ पर अंकुश लगाया जा सकेगा, उतना ही परमार्थ बन पड़ेगा। जितना अपने गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार किया जा सकेगा, उतना ही स्व विकसित होगा। आध्यात्मिक आस्थाएँ बढ़ाई जा सकें तो अपने पास इतना वैभव दृष्टिगोचर होगा, जितना कि देवताओं के पास होने की कल्पना की जाती है।


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