गंगा किनारे एक साधु तप करते थे। उन्हें पानी पर चलने की सिद्धि मिल गई थी। पर रहने वाला मल्लाह उनका भक्त हो गया।
एक बार नदी में भयंकर बाढ़ आई। मल्लाह ने अपनी झोंपड़ी सहित अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया, पर बाबाजी की कुटिया बहने लगी और साथ ही वे भी गोते खाने लगे। मल्लाह ने कूदकर उन्हें किसी प्रकार किनारे तक पहुँचाया।
चित्त शाँत होने पर मल्लाह ने साधु से पूछा, “आपको तो जल पर चलने की सिद्धि थी, फिर यह दुर्दशा कैसे हुई?” साधु ने गंभीर स्वर से कहा, “सिद्धियां प्रदर्शन मात्र थीं। इतने प्रचंड प्रवाह को पार करने के लिए तो तैरने की सिद्धि चाहिए। तुम मुझसे बड़े सिद्ध हो।”
सिद्धियों की प्रवंचना नहीं, धर्म-धारणा से ही मनुष्य का कल्याण संभव है।