आचार्य एवं शिष्य के गहन अंतर्संबंध

December 2003

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आचार्य एवं शिष्य के सम्बन्धों की सजल संवेदना देव संस्कृति का परिचय है। इस संवेदना की सघन भावानुभूतियों में ही देव संस्कृति को परिभाषित करने वाले अमिट अक्षर उभरते हैं। उद्गम बिन्दु से लेकर वर्तमान एवं भावी व्यापकता में प्रकट होते संस्कृति सिन्धु में इन्हीं संवेदनाओं की सजल-सरिताओं का मेल छलकता है। आचार्य शिष्य का मिलन ही प्रकारान्तर से संस्कृति सृजन है। वैदिक संहिताओं में मिलने वाले वामदेव-कहोल एवं अगस्त्य आदि महर्षियों के प्रसंग इसी सत्य को प्रमाणित करते हैं। उपनिषद् शब्द का तो भावार्थ ही आचार्य एवं शिष्य की समीपता है। इस समीपता से ही ज्ञान की सार्थकता प्रकट होती है। केनोपनिषद् में शिष्य की जिज्ञासाएँ, प्रश्नोपनिषद् में आचार्य पिप्पलाद एवं सुकेशा आदि शिष्यों के सम्बन्धों की प्रगाढ़ता, तैत्तीरियोपनिषद् में आचार्य वरुण एवं उनके शिष्य भृगु के सम्बन्धों की संवेदना इसी सत्य को मुखर हो प्रकट करती है।

आचार्य एवं शिष्य के सम्बन्ध, इनमें अनुभव होने वाला सजल-संवेदनाओं का स्पर्श और इसकी सघनता में होने वाला संस्कृति सृजन अपने आप में अनेक मनोवैज्ञानिक सत्यों को संजोये है। यदि अपने में गहरी मनोवैज्ञानिक समझ विकसित की जा सके तो ये सभी सत्य एक के बाद एक क्रमवार अपने आप को उजागर कर देते हैं। इस पवित्र सम्बन्ध के बारे में हम सभी इस बात से परिचित हैं कि इनका प्रारम्भ शिष्य के हृदय में पनपने वाली श्रद्धा एवं आचार्य के हृदय में उमगने वाली शिष्य वत्सलता से होता है। ज्यों-ज्यों ये सम्बन्ध प्रगाढ़ होते हैं, त्यों-त्यों इनमें प्रगाढ़ता आती है। शिष्य की श्रद्धा आचार्य द्वारा किए जाने वाले ज्ञानवर्षण के लिए चुम्बक का काम करती है। शास्त्रकारों ने इसकी महिमा का विविध रूपों में बखान किया है। श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के उन्तालिसवें श्लोक में कहा गया है ‘श्रद्धावाँल्लभतेज्ञानं’ श्रद्धावान ज्ञान का लाभ पाते हैं। महर्षि पतंजलि योग सूत्र के समाधिपाद के 20 वें सूत्र में कहते हैं- ‘श्रद्धावीर्य स्मृति समाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्।’ साधकों का योग श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक सिद्ध होता है।

अनुभवी योगियों ने इस सूत्र के जो भाष्य किए हैं, उनमें उन्होंने इस सत्य को स्वीकारा कि शिष्य एवं साधक की श्रद्धा क्रमिक रूप से उसमें वीर्य अर्थात् प्राणबल एवं तेज के रूप में, स्मृति- यानि कि विलक्षण स्मृति के रूप में, समाधि यानि कि चित्तवृत्तियों की चंचलता के शमन के रूप में एवं प्रज्ञा यानि निर्मल एवं पवित्र बोधशक्ति के रूप में प्रकट होती है। शिष्य की श्रद्धा की इस शक्ति की व्यापकता को स्वीकारते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने ‘भवानी शंकरौवन्दे, श्रद्धाविश्वास रूपिणौ’ कहा है। गोस्वामी जी के अनुसार शिष्य की श्रद्धा उसके हृदय में स्वयं जगन्माता माँ भवानी की भाँति सक्रिय होती है। प्रकारान्तर से श्रद्धा शिष्य के व्यक्तित्व की समस्त सृजन शक्तियों का स्रोत है। इसी रूप में यह आदिशक्ति है।

मनोवैज्ञानिक रूप से इस सत्य को परिभाषित एवं विवेचित करें तो यह कहेंगे कि श्रद्धा हमारी विधेयात्मक भावनाओं का शिखर बिन्दु है। मनोवैज्ञानिक जगत् में जितने भी आधुनिक शोध प्रयास किए गए हैं, उन सभी में इनके महत्त्व को स्वीकारा गया है। मनोवैज्ञानिक आई.एल. बेन्सन ने अपने शोधपत्र ‘साइको न्यूरो इम्यूनोलॉजी एण्ड अस्पेक्ट्स ऑफ पॉजिटिव इमोशन्स’ में इसकी पर्याप्त व्याख्या की है। उनके अनुसार हमारी भावनाएँ जितनी अधिक विधेयात्मक एवं प्रगाढ़ होती हैं, उतनी ही हमारी मानसिक प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है। बेन्सन ने इस क्रम में यह भी कहा है कि विधेयात्मक भावनाओं की सघनता व्यक्ति के बोध एवं संज्ञान (परसेप्शन एवं कॉगनीशन) को व्यापक एवं भ्रम मुक्त करती है।

आचार्य एवं शिष्य के सम्बन्धों में यदि विधेयात्मक भावनाओं की सघन व्यापकता है- तो इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी व्यापक होते हैं। शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में इन दिनों पर्याप्त शोध अनुसंधान हुए हैं। इनमें से कई स्थानों पर आचार्य एवं शिष्य के बीच पनपने वाली सम्बन्ध संवेदना को स्वीकार किया गया है। प्रख्यात् शिक्षा विद् इवान इलिच ने अपने शोध ‘लर्निंग मेमोरी एण्ड इमोशनल ग्रोथ’ में कहा है कि यदि आचार्य एवं शिष्य के बीच सजल संवेदनाएँ बनी रहे तो सीखने एवं स्मरण की प्रक्रिया में असाधारण तीव्रता आती है।

मनोवैज्ञानिक पी.जे. ब्राउन की एक विख्यात पुस्तक है- ‘रिकाँसट्रक्शन ऑफ ह्युमन पर्सनालिटी’। इस पुस्तक में उन्होंने मानवीय व्यक्तित्व के पुनर्गठन के कई अनछुए पहलू उजागर किए हैं। इन्हीं में से एक पहलू आचार्य एवं शिष्य के बीच सम्बन्ध सम्वेदना के बारे में भी है। ब्राउन का कहना है कि आचार्य केवल पाठ्य वस्तु की जानकारी भर नहीं देता, बल्कि उसके व्यक्तित्व के कई पहलू भी शिष्य में सम्प्रेषित होते हैं। उच्चकोटि के व्यक्तित्ववान आचार्यों के सान्निध्य में शिष्यों के व्यक्तित्व स्वयं ही नए सिरे से गढ़ते-बनते एवं ढलते हैं। आचार्य एवं शिष्य के सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के अनुरूप ही शिष्यों की अभिवृत्तियाँ एवं अभिप्रेरणाएँ विनिर्मित होती हैं। उनके व्यक्तित्व में अनेकों नए आयाम विकसित होते हैं।

इस मनोवैज्ञानिक सत्य को सहस्रों वर्ष पूर्व महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के साधनपाद के सैंतीसवें सूत्र में व्यक्त करते हुए कहा था- ‘वीतरागविषयं वा चित्तम्।’ यानि कि वीतराग पुरुष को अपने चित्त का विषय बनाने से, उसे अपनी अन्तर्भावनाओं में धारण करने से चित्त स्थिर हो जाता है। शिष्य भी अपने आचारवान आचार्यों को अपनी अन्तर्चेतना में धारण करके स्वयं के व्यक्तित्व को नया रूप देते हैं। उनके नवगठित व्यक्तित्व की विशेषताएँ, उनसे प्रकट होने वाला ज्ञान परस्पर के सम्बन्धों द्वारा निरन्तर विस्तार पाती है। इस विस्तार से संस्कृति का नया विहान प्रकट होता है।

आचार्य एवं शिष्य के सम्बन्धों का परिदृश्य काफी विस्तीर्ण है। जीवन के अनेकों आयाम इसमें प्रकट होते हैं। व्यक्तित्व की उपलब्धियों के साथ सामाजिक एवं साँस्कृतिक संवेदनाएँ इसमें समायी हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में हो रहे नवीनतम अनुसंधान इसे सहजता से स्वीकारते भी हैं। भारतीय चिन्तन चेतना को यदि इसमें जोड़ा जा सके तो यह अनुसंधान प्रक्रिया अपनी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त हो सकेगी। वैदिक ऋषियों के अनुसार आचार्य एवं शिष्य की भावनाओं का मिलन ही ज्ञान का सृजन है। इसलिए उन्हीं के स्वरों में प्रभु से प्रार्थना है- ‘सहनाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्वषावहै॥’ हे प्रभु! आप हम आचार्य-शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों का साथ-साथ पालन-पोषण करें। हम दोनों को साथ-साथ बल प्रदान करें। हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजस्वी हो। हम दोनों ही कभी भी द्वेष न करें। इसी तरह से परस्पर स्नेह सूत्र से बँधे रहें।


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