ईसा मसीह केपर नाम के नगर में पहुँचे। वे दुष्ट-दुराचारियों के मुहल्ले में ठहरे और वहीं रहना शुरू कर दिया।
नगर के प्रतिष्ठित लोग ईसा के दर्शनों को पहुँचे तो उनने आश्चर्य से पूछा, “भला इतने बड़े शहर में आपको सज्जनों के साथ रहने की जगह न मिली या आपने उनके बीच रहना पसंद नहीं किया?”
हँसते हुए ईसा ने पूछा, “वैद्य मरीजों को देखने जाता है या चंगे लोगों को? ईश्वर का पुत्र पीड़ितों और पतितों की सेवा के लिए आया है। उसका स्थान उन्हीं के बीच तो होगा।”
रामकृष्ण परमहंस के संपर्क से नास्तिक नरेंद्र को ऋषिकल्प स्वामी विवेकानंद बनने का अवसर मिला। परमहंस जी ने उन्हें व्यक्तिगत जीवन न जीकर लोक-कल्याण के लिए जीवन समर्पित करने की प्रेरणा दी और उन्हें सच्चे अर्थों में संत बनाया।
उन दिनों शिक्षित समुदाय विदेशी आक्राँतिओं के संपर्क में आकर नास्तिकतावादी बनाता जा रहा था। विद्यार्थियों पर विशेष रूप से उसका प्रभाव पड़ता था। इन परिस्थितियों में उन्होंने भारतीय धर्म देवसंस्कृति की विशेषता से न केवल देशवासियों को परिचित कराया, वरन् देश-देशाँतरों में परिभ्रमण करके अनेक देशों को प्रभावित किया। उनके झकझोरने से देशी-विदेशी विद्वानों ने, जनसाधारण ने नए सिरे से अध्याय आरंभ किया।
उनकी योजनानुसार देश-देशाँतरों में रामकृष्ण मिशन बने, जिनके द्वारा स्थायी रूप से वहाँ सेवा-साधना और तत्वज्ञान प्रसार का काम होता रहा। वे मात्र उनतालीस वर्ष जिए, पर इतने स्वल्प काल में अपनी लगन और तत्परता के कारण विश्व धर्म-मानव धर्म की इतनी सेवा कर सके, जितनी कि तीन सौ साठ वर्षों में भी संभव नहीं।