ब्रह्म देश में अश्वत्थ वृक्ष की जड़ में एक देव सर्प रहता था। एक ब्राह्मण ने उसे पहचान लिया, सो रोज एक कटोरा दूध बाँबी पर रखकर उसकी पूजा करने लगा।
देव सर्प प्रसन्न हुए। वे नित्य दूध पी जाते और बदले में एक स्वर्णमुद्रा उसी कटोरे में रख जाते। ब्राह्मण का धन भी बढ़ने लगा और लालच भी।
ब्राह्मण ने सोचा, सर्प की बाँबी में स्वर्णमुद्राओं का भंडार होगा, सो उसे मारकर एक ही दिन में क्यों न वह सारी राशि प्राप्त कर ली जाए। उसने घात लगाकर सर्प को मार डाला।
खोदने पर बाँबी में कुछ भी न निकला। अति लालच से होने वाली हानि का अनुभव करके ब्राह्मण सिर धुनकर पछताता रहा।
एक संत थे। जो पाते, उसे अपने से अधिक जरूरतमंदों को बाँट देते। इस उदारता से उन्हें कई बार स्वयं भूखा रहना पड़ता।
कई दिन से भोजन न मिला। श्मशान में उन्होंने कुछ आटे के पिंड पड़े देखे और बचा हुआ ईंधन बिखरा पाया। सोचने लगे, इसी से रोटी पकाकर अपना पेट भर लें।
शिव-पार्वती उधर से निकले। पार्वती जी ने भक्त की ऐसी दरिद्रता देखकर भगवान से कहा, “आप भक्तों पर दया क्यों नहीं करते? उनके अभाव दूर क्यों नहीं करते?” शिवजी ने कहा, “भक्तजन अभावग्रस्त, दरिद्र, कंगाल नहीं होते। वे उदारतावश दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपना वैभव लुटाते रहते हैं। संदेह हो तो इस संत से भी माँगकर देखो। वह भूखा होने पर भी अपनी रोटियाँ दान कर देगा।”
परीक्षा की बात ठहरी। पार्वती जी वृद्धा का वेश बनाकर पहुँचीं और अपनी तथा पति की भूख बुझाने के लिए रोटी माँगी।
पिंड एकत्रित करके चार रोटियाँ बनाई थीं। संत ने दो रोटियाँ वृद्धा को दे दीं और दो से अपनी उदर-ज्वाला शाँत कर ली, ताकि जीवित रहा जा सके।
शिव-पार्वती ने सच्चे भक्त की निष्ठा देखी और बहुत प्रसन्न हुए। प्रकट होकर वर माँगने के लिए कहने लगे।
भक्त ने कहा, “ऐसा वर दीजिए कि सुपात्र याचक सदा मेरे सामने आते रहें और अपना पेट काटकर भी उन्हें कुछ देने को संतोष-लाभ प्राप्त करता रहूँ।”
पार्वती जी की आँखें छलक आई। बोलीं, “ऐसे भक्त का अभाव दूर करना कठिन है। उदारताजन्य अभाव को वे अपना गौरव जो मानते हैं।”