एक बार गाँधी जी इलाहाबाद आनंद भवन में ठहरे। सुबह गाँधी जी हाथ-मुँह धो रहे थे और जवाहरलाल जी पास खड़े बातें कर रहे थे। कुल्ला करने के लिए गाँधी जी ने जितना पानी लिया, वह समाप्त हो गया तो उन्हें दूसरी बार फिर पानी लेना पड़ा। गाँधी जी बड़े खिन्न हुए और बात-चीत का सिलसिला टूट गया। जवाहरलाल जी ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा, “मैंने पहला पानी अनावश्यक रूप में खरच कर दिया और अब फिर पानी लेना पड़ रहा है। यह मेरा प्रमाद है।”
जवाहरलाल जी हँसते हुए बोले, “यहाँ तो गंगा-यमुना दोनों बहती हैं। रेगिस्तान की तरह पानी कम थोड़े ही है। आप थोड़ा पानी अधिक खरच कर लें तो चिंता की क्या बात है?”
गाँधी जी ने कहा, “गंगा-यमुना मेरे लिए ही तो नहीं बहतीं। प्रकृति में कोई भी चीज कितनी ही उपलब्ध हो, मनुष्य को उसमें से उतनी ही खरच करनी चाहिए, जितनी उसके लिए आवश्यक हो।”
नेपोलियन तब लड़का था। खेलने गया तो भाग-दौड़ में सामने से आती एक लड़की से टकरा गया। लड़की गरीब घर की थी। फल का टोकरा लेकर जा रही थी। टक्कर से टोकरा गिरा और फल गंदगी-कीचड़ में गिर गए।
लड़की रोने लगी। मजूरी भी गई और मालकिन से दंड भी भुगतना पड़ेगा।
झंझट से बचने के लिए पहले तो नेपोलियन का मन आया कि जल्दी से भाग चलें। पीछे उसका मन लड़की की परिस्थिति के बारे में सोचकर पिघल गया। वह लड़की को अपने घर ले गया और गिरे हुए फलों का पैसा चुका देने का वायदा किया।
घर पहुँचने पर नेपोलियन ने सारा किस्सा अपनी माँ को बताया और पैसा लड़की को चुका देने के लिए कहा। माँ कठोर स्वभाव की भी थी और साथ में पैसे की तंगी भी। वह पैसा देने की अपेक्षा शरारत के लिए नेपोलियन की पिटाई करने लगी।
कहने-सुनने के बाद फैसला हुआ कि लड़की को पैसा तो चुका दिया जाएगा, पर डेढ़ महीने तक उसको नाश्ता न मिलेगा। उसी से इसे पेशनी देकर राशि की भरपाई करनी होगी।
नेपोलियन खुशी-खुशी तैयार हो गया। कर्त्तव्य-न्याय निभाने के लिए डेढ़ महीने एक समय भोजन करके ही काम चलाया। ऐसे उदारचेता ही भविष्य में महान बनते हैं।