आयुर्वेद-1 - यज्ञोपचार द्वारा रतिज रोगों की सरल चिकित्सा

December 2003

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(उत्तरार्द्ध)

रतिज रोगों (गुप्त रोग या वेनेरियल डिसिजेज) में ‘गोनोरिया’ अर्थात् पूयमेह या सोजाक की यज्ञ चिकित्सा का वर्णन गत अंक में किया जा चुका है। यहाँ पर सर्वाधिक घातक रोग ‘सिफलिस’ अर्थात् उपदंश का वर्णन किया जा रहा है। आयुर्वेद में इसी को फिरंग, आतशक, उपदंश आदि कहा जाता है। सामान्य बोल-चाल की भाषा में इसे ही ‘गरमी का रोग‘ कहा जाता है। फिरंग रोग को परिभाषित करते हुए भैषज्य रत्नावली नामक प्रमुख आयुर्वेद ग्रंथ में कहा गया है-

फिरडं्गसंज्ञके देशे बाहुल्येनैव यद्भवेत्; तस्मात्फिरड्ंग इत्युक्तों व्याधिर्व्याधिविशारदैः॥

अर्थात् यह रोग गंध से उत्पन्न होने वाला है, अतः इसे गंध रोग भी कहते हैं। यह रोग फिरंग देश (अँगरेज) के मनुष्यों के अंग संसर्ग एवं संक्रमित महिलाओं के साथ प्रसंग करने से उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह एक आगंतुक रोग है और इसमें दोषों का संक्रमण बाद में होता है। फिरंग रोग के भेदों एवं लक्षणों का निरूपण करते हुए कहा गया है कि-

फिरड्ंगस्त्रिविधों ज्ञेयो बाह्यहायन्तरस्तथा। बहिरर्न्तभवष्चापि तेषाँ लिड्ँगनि च ब्रुवे॥

तत्र बाह्यः फिरड्ंगः स्याद्विस्फोटसदृशाल्परुक्। स्फुटितो ब्रणवद्वैद्यैः सुखसाध्योऽपि स स्मृतः॥

सन्धिष्वाहायन्तरः स स्यादामवात इव व्यथाम्। शोथन्च जनयेदेष कष्टसाध्यौ बुधैः स्मृतः॥

अर्थात् यह रोग तीन प्रकार का होता है- (1) बाह्य (2) आभ्यंतर और (3) बहिरंतर्भव अर्थात् बाहर और भीतर, दोनों स्थानों पर होने वाला। इनमें से बाहरी उपदंश विस्फोट के समान होता है, जिसमें पीड़ा कम होती है व्रण के समान फूटता है। यह सहज साध्य होता है। आभ्यंतर फिरंग या उपदंश संधियों में होता है और इसमें आमवात-गठियावात के समान पीड़ा होती है। यह सूजन भी उत्पन्न करता है। इसे कष्टसाध्य माना जाता है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार सिफलिस अर्थात् फिरंग रोग का संक्रमण स्प्रिंग के आकार के स्पाइरोकीट नामक बैक्टीरिया से होता है, जिसे ‘ट्रिपोनिमा पैलिडम’ कहते हैं। सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखने पर ये जीवाणु सर्प के समान टेढ़े-मेढ़े आकार में दिखाई पड़ते हैं। इनका संक्रमण संक्रमित स्त्री से पुरुष में और पुरुष से स्त्री में, संसर्ग के कारण होता है। इसके अतिरिक्त ट्रिपोनिमा पैलिडम से दूषित व्यक्ति के रक्त या प्लाज्मा का ट्राँसफ्यूजन अर्थात् आधान दूसरे व्यक्ति में करने से भी यह रोग उसे लग जाता है। कभी-कभी रोगी के व्रण आदि के स्राव के संपर्क में आने से भी यह बीमारी हो जाती है। कटी-फटी त्वचा के संपर्क से भी इसके जीवाणु शरीर के अंदर पहुँच जाते हैं। वंश-परंपरा से अर्थात् संक्रमित माता-पिता से यह रोग नवजात शिशु में भी हो जाता है, जिसे ‘कन्जेनाइटिल सिफलिस’ कहते हैं।

यों तो उपर्युक्त कई कारणों से उपदंश के जीवाणु मनुष्य के शरीर में प्रवेश करते हैं, परंतु सबसे ज्यादा यह संक्रमण असंयम एवं अमर्यादित यौन व्यवहार के कारण होता है। चार अवस्थाओं में फैलने वाले इसे रोग के लक्षण संक्रमण के 17 से 28 दिन के अंदर ही हार्डशैंकर या व्रण के रूप में परिलक्षित होने लगते हैं। यह रोग की प्रथम अवस्था होती है। इसके बाद रोग धीरे-धीरे बढ़ता है और तीन माह से लेकर दो वर्ष तक इसकी द्वितीयावस्था रहती है। इसमें रोगी के शरीर पर छोटे-छोटे दाने निकलने लगते हैं एवं त्वचा पर जहाँ-तहाँ खराश या तांबे के रंग के चकत्ते-से उभरने लगते हैं। इसके बाद से लेकर बीस से तीस वर्षों तक तृतीयावस्था होती है, जिसमें शरीर के विभिन्न भागों में कष्टदायी गाँठें निकल आती हैं, जिनसे लसलसा स्राव निकलता रहता है। समय पर चिकित्सा-उपचार न कराने से यह रोग अपनी चतुर्थ अवस्था में पहुँच जाता है। इस अवस्था में रोगकारक बैक्टीरिया शरीर के अंदरूनी हिस्से, यथा- अस्थि संस्थान, तंत्रिकातंत्र, मस्तिष्क आदि में प्रवेश कर जाते हैं और अनेकानेक विकृतियाँ पैदा करते हैं। यह सर्वाधिक कष्टदायी अवस्था होती है, जो रोगी को मृत्यु के मुख में धकेल देती है।

स्त्रियों में यह रोग संक्रमित माता से गर्भस्थ शिशु में पहुँच जाता है। ऐसी स्थिति में शिशु की गर्भ में ही मृत्यु हो सकती है और यदि वह जन्म भी लेता है तो कन्जेनाइटिल सिफलिस से ग्रस्त होता है। जैसे-जैसे रोग पुराना होता जाता है, रोगी की त्वचा पर अनेक प्रकार की विकृतियाँ उभरने लगती हैं। तब शरीर का ऐसा एक भी अंग-अवयव या तंत्र नहीं बचता जो विकारग्रस्त दृष्टिगोचर न होता हो। मूत्र-जनन संस्थान से आरंभ होकर यह रोग हृदय एवं रक्तवाही संस्थान से लेकर सुषुम्ना एवं मस्तिष्क सहित समूचे तंत्रिकातंत्र एवं हड्डियों के जोड़ तक को प्रभावित करता है। इसके कारण हृदय संबंधी अनेक बीमारियाँ, न्यूरोसिफलिस जैसे जटिल मस्तिष्कीय रोग, गठिया, पक्षाघात जैसी अनेक व्याधियाँ उत्पन्न होकर रोगी के लिए प्राणघातक बन जाती हैं।

सुश्रुत संहिता के अनुसार उपदंश पाँच प्रकार का होता है- वातज, पित्तज, कफज, त्रिदोषज एवं रक्तज। इस संबंध में उल्लेख है- स पंचविधस्त्रिभिर्दोषैः पृथक् समस्तैरसृजा चैकः॥

अर्थात् यह रोग तीन अलग-अलग दोषों अर्थात् वात, पित्त और कफ से तीन प्रकार का दोष मिलने पर त्रिदोषज और पाँचवाँ भेद रक्तविकार से होता है। इससे उत्पन्न विकारों का वर्णन करते हुए सुश्रुत कहते हैं-

“उपदंश रोग पुराना हो जाने पर कृशता-दुर्बलता, बलक्षय, नाक का बैठना- नासाभंग, अग्निमंदता, हड्डियों में सूजन एवं हड्डियों का टेढ़ा होना आदि लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं।”

कभी इस रोग की भयावहता सर्वविदित थी, परंतु आधुनिक चिकित्सा ने पेनिसिलीन, पाम पेनिसिलीन एरिथ्रोमाइसिन तथा और तीव्र स्तर की एण्टीबायोटिक औषधियों के अनुसंधान के साथ ही इस पर काबू पा लिया है। यह रोग अब लाइलाज नहीं रहा फिर भी इन दवाओं के दुष्प्रभाव अत्यधिक हैं। वे जीवनीशक्ति को निचोड़ लेती हैं। इतने पर भी पिछले कुछ वर्षों से बढ़ती यौन स्वच्छंदता के कारण ‘एड्स’ के साथ-साथ उपदंश का संक्रमण भी तीव्रता से फैलने लगा है। लोक लज्जा एवं संकोच के कारण कितने ही लोग नीम-हकीमों के चक्कर में फँसकर अपना पैसा और स्वास्थ्य, दोनों ही गँवा बैठते हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए आशा की किरण एकमात्र आयुर्वेदीय चिकित्सा ही नजर आती है।

आयुर्वेद में उपदंश की रोक-थाम के लिए विष से विष को मारने की युक्ति पर पारद एवं शंखिया प्रभृति तत्त्वों एवं उनके यौगिकों को प्रयुक्त किया जाता है। परंतु इनके सेवनकाल में असावधानी बरतने या औषध-निर्माण में कच्चापन या त्रुटि रहने पर कई बार मुँह पकने से लेकर औषध-विषाक्तता तक के दुष्परिणाम सामने आते हैं। ऐसी स्थिति में यज्ञोपचार-प्रक्रिया का आश्रय लेकर रोग को नियंत्रित किया और उसे समूल नष्ट किया जा सकता है। यज्ञ चिकित्सा से रोग का उन्मूलन तो होता ही है, साथ ही साथ जीवनीशक्ति का अभिवर्द्धन एवं रोग प्रतिरोधी क्षमता का विकास भी होता है। इसमें किसी प्रकार के ‘साइड इफेक्ट्स’ अर्थात् दुष्प्रभाव की आशंका भी नहीं रहती। चिकित्सकीय हवि-ऊर्जा के समीप उपस्थित लोग भी यज्ञीय ऊर्जा की उस जीवनीशक्ति संवर्द्धक प्रक्रिया से अनायास ही लाभान्वित होते रहते हैं। उपदंश रोग में प्रयुक्त होने वाली विशिष्ट हवन सामग्री इस प्रकार है-

(2) सिफलिस (उपदंश) रोग की विशेष हवन सामग्री-

इसमें निम्नलिखित वनौषधियां मिलाई जाती हैं-

(1) पाठा (2) दारुहलदी (3) रसौत (4) चोपचीनी (5) नीम-छाल (6) आक-मूल (7) चित्रक (8) गुलबास (फोर ओ क्लॉक) के पत्ते (9) अपराजिता पंचाँग (10) स्वर्णक्षीरी-मूल (11) शरपुखा (12) सुपारी (13) कत्था या खैर की छाल (14) काले धतूरे की जड़ (15) श्वेत गुड़हल की जड़ (16) चमेली के पत्ते (17) मकोय- पत्ते या पंचाँग (18) शीतल चीनी (कबाव चीनी) (19) अनंतमूल (20) अरणी (अग्निमंथ) (21) कनेर-मूल (22) काँटा चौलाई (23) दूर्बा-मूल (24) मंजीष्ठ (25) चिरायता (26) गिलोय (27) विलायती बबूल (अरिमेद) के पत्ते (28) कटसरैया (29) कड़ुई तोरई के बीज (30) कसौंदी के पत्ते (31) शीशम की छाल (32) लौंग (33) त्रिफला (आँवला, हरड़, बहेड़ा-समभाग) (34) लाल एवं श्वेत चंदन (35) दालचीनी (36) सुरंजन-मीठा (37) खुरासानी अजवायन (38) अजमोद (39) गूगल (40) जायफल (41) जावित्री (42) विजयसार (43) बरगद की जड़ एवं पत्ते (44) अपामार्ग (45) गावजवाँ (46) छिरेंटा (जलजमनी) (47) पर्णबीज (ब्रायोफिलम) (48) भृंगराज (49) इंद्रायण-मूल (50) अकरकरा (51) तालमखाना (52) सौंफ (53) सनाय (54) मुनक्का (55) सारिवा (56) नागरमोथा (57) तुलसी (58) कतीरा (ढाक की गोंद) (59) कालीमिर्च (60) बबूल के फूल।

उपर्युक्त सभी 60 चीजों को बराबर मात्रा में लेकर उनको कूट-पीसकर जौकुट पाउडर बना लिया जाता है। इनमें से जो औषधियाँ तत्काल उपलब्ध न हो सकें तो उन्हें छोड़कर शेष को एकत्र करके उन्हें साफ करके सुखा लेना चाहिए और उनकी हवन सामग्री तैयार करके बिना देरी किए हवन आरंभ कर देना चाहिए। हवन करते समय पहले से तैयार की गई ‘काँमन हवन सामग्री क्रमाँक (1)’ की बराबर मात्रा लेकर ‘उपदंश रोग की विशेष हवन सामग्री क्रमाँक (2)’ में मिला लेते हैं अर्थात् आधी मात्रा में क्रमाँक (1) की व आधी मात्रा क्रमाँक (2) की मिलाकर तब सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं। ‘काँमन हवन सामग्री’ -अगर, तगर, देवदार, लाल चंदन, सफेद चंदन, जायफल, लौंग, गूगल, चिरायता तथा गिलोय को समभाग में मिलाकर बनाई जाती है। चिकित्सकीय हवन सुबह सूर्योदय के समय एवं शाम को सूर्यास्त में दोनों वक्त किया जाए तो अधिक लाभकारी होता है, अन्यथा एक समय तो अवश्य ही करना चाहिए। हवन के लिए पलाश, आम या गूलर की समिधा प्रयुक्त करनी चाहिए। सूर्य गायत्री मंत्र से कम-से-कम चौबीस आहुतियाँ अवश्य डालनी चाहिए। सूर्य गायत्री मंत्र इस प्रकार है-

ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विऽहे, दिवाकराय धीमहि, तन्नः सूर्यो प्रचोदयात्।

शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए रोगी को उपर्युक्त विधि से यज्ञोपचार के साथ-साथ क्वाथ का सेवन करना भी आवश्यक है। क्वाथ (काढ़ा) बनाने के लिए ऊपर बताई गई ‘उपदंश रोग की विशेष हवन सामग्री क्रमाँक (2)’ में वर्णित सभी 60 औषधियों को समभाग में लेकर बनाए गए चूर्ण को अधिक कूट-पीसकर जौकुट चूर्ण के रूप में तैयार कर लेते हैं। इस पाउडर की 3 ग्राम मात्रा लेकर स्टील के भगोने में आधा लीटर स्वच्छ जल में रात्रि में भिगो देते हैं और सुबह मंद आँच (सिम बर्नर) पर इसे पकाते हैं। उबलते-उबलते जब काढ़ा चौथाई अंश शेष रह जाता है तो इसे बर्नर पर से उतारकर ठंडा होने पर स्वच्छ कपड़े से छान लेते हैं। तैयार क्वाथ की आधी मात्रा सुबह 9-10 बजे तक एवं शेष आधी मात्रा शाम 4-5 बजे तक पी लेना चाहिए।

सिफलिस या उपदंश गरमी का रोग है। इसे दूर करने के लिए जो औषधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं, अधिकतर वे गरम प्रकृति की होती हैं। अतः जब तक यह चिकित्सा-क्रम चले, तब तक रोगी व्यक्ति को ठंडी चीजें, फ्रिज का पानी, कोल्ड ड्रिंक्स, ठंडे पानी से स्नान आदि से विशेष रूप से परहेज करना चाहिए। इसके अतिरिक्त दिन में सोना, मूत्रवेग रोकना, भारी एवं गरिष्ठ पदार्थ, अन्न या भोजन, स्त्री प्रसंग, अत्यधिक परिश्रम, गुड़, मीठा, लवण, खट्टे एवं अम्लीय पदार्थ जैसे नीबू, अचार, इमली, मद्यपान आदि से सर्वथा बचना चाहिए।

औषधि-सेवनकाल में नमक नहीं खाना चाहिए। यदि नमक के बिना भोजन अच्छा न लगे तो अल्प मात्रा में सेंधा नमक लिया जा सकता है। आहार में गेहूँ, जौ, चने की रोटी, पुराना चावल, हरी शाक-सब्जियाँ, करेला, सहजने की फली, लौकी, कुंदरू, परवल, लौकी, मूँग

आदर्श रहित जीवन बिना पतवार की नाव जैसा है जो कहीं भी और कभी भी डूब सकती है।

दाल, अरहर दाल, अदरक, तिक्त ओर कसैले पदार्थ, घी, गौ दुग्ध, शहद, तिल तैल, गरम पानी, कुएँ का पानी आदि पथ्य हैं।

उपदंश रोग पुराना हो जाने पर अनेकानेक प्रकार की शारीरिक-मानसिक व्याधियों के साथ ही रक्त विकार एवं त्वचा रोग भी उभर आते हैं। ऐसी स्थिति में स्वर्णक्षीरी (सत्यनाशी) रस का प्रयोग बहुत लाभकारी सिद्ध होता है। बिना फूल और फल वाले स्वर्णक्षीरी पौधे का ताजा (पंचाँग का) स्वरस निकाल लेते हैं। इसमें से 3 मि ली स्वरस को 3 मि ली शहद में अच्छी तरह मिलाकर नित्य प्रातः खाली पेट रोगी को पिलाते हैं। तीन-चार दिन में ही रोगी को आराम लगने लगता है। इसका स्वरस अकेले पीने से वमन और विरेचन दोनों होने लगते हैं, अतः शहद के साथ ही रस पीना चाहिए। इससे यह समस्या नहीं रहती।

यज्ञ चिकित्सा के साथ-ही-साथ उपर्युक्त क्वाथ सेवन एवं स्वर्णक्षीरी रस का सेवन उपदंश रोग को समूल नष्ट कर देता है। रोग की चतुर्थ अवस्था तक पहुँचे हुए रोगी भी इस उपचार से स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त कर सकते हैं और आनंदमय जीवन बिता सकते हैं।


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