संसार को दूरदर्शी दार्शनिकों ने दुःखालय की संज्ञा दी है। इस संज्ञा का आधार यही है कि मनुष्य संसार में जन्म लेकर सदा ही किसी-न-किसी प्रकार के दैहिक, दैविक अथवा मानसिक दुःखों से घिरा रहता है। मनुष्य का सारा परिश्रम, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न दुखों से बचने का ही एक उपक्रम है, किंतु जीवनभर प्रयत्न करते रहने पर भी मनुष्य का प्रायः छुटकारा नहीं हो पाता और अंत में वह कष्ट-क्लेशों की मानसिक अथवा शारीरिक स्थिति में ही इस संसार को छोड़ जाता है।
अनेक लोग अभावों को ही दुख का कारण मानते हैं। संसार में एक-से-एक बढ़कर साधनसंपन्न व्यक्ति पड़े हैं, किंतु क्या वे सुखी अथवा संतुष्ट होते हैं ? अपने विपुल साधनों के बीच भी वे तरसते-तड़पते और आह-कराह करते नजर आते हैं। जिनको अभाव का दुख नहीं, उन्हें रोग-दोष आदि के शारीरिक दुख से पीड़ित देखा जाता है, जिन्हें शारीरिक दुख नहीं, वे काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, ताप, अनुताप, पश्चात्ताप, तृष्णा अथवा एषणाओं के मानसिक दुखों से घिरे पाए जाते हैं। ऐसे भी अनेक लोग हो सकते हैं, जिनको शारीरिक, मानसिक अथवा अभावजन्य दुख न भी हों, तो वे अज्ञान के दुख से पीड़ित पाए जा सकते हैं। यदि कोई सज्जन अथवा साधु पुरुष इन दुखों से न भी दुखी हों, तब भी उनके आस-पास रहने वाले दुष्ट लोग अकारण ही उनके लिए अप्रिय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं। कोई दुर्घटना अथवा आधि-व्याधि ही उनके दुख का कारण बन सकती है। प्रकृतिजन्य न जाने ऐसे कितने दुख-क्लेश इस संसार में आते रहते हैं, जिनसे अमीर, गरीब, साधु और खल सभी एकसमान पीड़ित होते हैं और कोई दुख न भी हो तो जन्म, जरा और मृत्यु का दुख ही क्या कम है ?
महात्मा बुद्ध एक राजकुमार थे। उनके जीवन में अभाव का प्रश्न ही नहीं उठता था। वे स्वस्थ, सुँदर और सच्चरित्र भी थे, शारीरिक कष्ट का उन्हें कोई अनुभव नहीं होता था। सावधानीपूर्वक उनकी किसी भी इच्छा की पूर्ति की जाती थी। हर प्रकार से हर दशा में उन्हें पूर्ण प्रसन्न एवं संतुष्ट रखने का प्रयत्न किया जाता था। ऐसी स्थिति में मानसिक दुख का उनके जीवन से कोई संबंध नहीं था। उनकी पत्नी यशोधरा सुँदर, स्वस्थ, पतिव्रता एवं प्रिया थी। उनका पुत्र राहुल मनभावन तथा प्यारा था। तात्पर्य यह कि राजकुमार सिद्धार्थ को अपनी प्रिय एवं अनुकूल परिस्थितियों में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आकस्मिक कोई दुख न था। तब भी दुख की अनुभूति से पीड़ित होकर वे अपनी प्रिय परिस्थितियों को छोड़कर संसार का दुख दूर करने का उपाय खोजने के लिए साधू हो गए।
राजकुमार सिद्धार्थ केवल एक बार ही अपनी अनुकूल परिस्थितियों तथा प्रिय वातावरण से निकलकर बाहर फैले हुए संसार में आए और एक रोगी, वृद्ध तथा मुरदे को देखकर अनुभव कर लिया कि यह संसार दुख-दर्दों से भरा हुआ दुखालय है। उनका यह अनुभव सत्य, यथार्थ एवं वास्तविक था। इसने उन्हें इतना कातर कर दिया कि आखिर वे संसार का दुख दूर करने का उपाय खोजते-खोजते राजकुमार सिद्धार्थ से वैरागी बुद्ध बन गए।
वैदिक, औपनिषदिक, दार्शनिक एवं धार्मिक जितना भी आध्यात्मिक और ज्ञान-विज्ञान आदि का जो भी उच्च साहित्य है, वह सब किसी-न-किसी रूप में उन उपायों एवं सिद्धाँतों का ही विस्तार है, जिनके द्वारा मनुष्य दुख से निवृत्त होकर सुख की ओर अग्रसर हो सके। ऋषियों, मुनियों तथा दार्शनिकों से लेकर जो भी तपस्वी, महात्मा एवं मनीषी, चिंतक तथा विद्वान हुए हैं, उन्होंने सारा जीवन मनुष्य के दुख दूर करने और सुख पाने के उपाय खोजने में लगा दिया है। इन पावन प्रयत्नों एवं महान जीवनों को देखते हुए यही मानना पड़ता है कि यह संसार वास्तव में दुखालय ही है और दुख से बचने का प्रयत्न ही मानव जीवन का उपक्रम है।
यह भी माना जा सकता है कि संसार में सुख का भी एक अंश है, जिसका प्रमाण लोगों के हंसने-बोलने, गाने-बजाने, खेलने-कूदने तथा आनंद मानने से मिलता है। लोग हास-विलास तथा भोगपूर्ण जीवन बिताते भी दृष्टिगोचर होते हैं, किंतु ये सारे सुख क्षणभंगुर, अस्थायी, परिवर्तनशील एवं दुख के परिणाम वाले ही हैं। न तो इनमें स्थायित्व ही है और न वास्तविकता ही। सुखों का यह सारा आयोजन भी एक प्रकार से दुख से बचने का उपक्रम ही है। संसार में सुखों की अपेक्षा दुखों का ही बाहुल्य एवं स्थायित्व है।
दुनिया में दुखों का आधिक्य है और मनुष्य को संसार में ही रहना है तो क्या दुखों में उलझ-उलझकर अपना बहुमूल्य जीवन नष्ट कर देना उसका अटल प्रारब्ध है? नहीं, मनुष्य का प्रारब्ध दुख भोगना नहीं है। उसका लक्ष्य दुखों पर विजय प्राप्त करना एवं स्थायी सुख प्राप्त करना ही है। यही मनुष्य का पुरुषार्थ है और उसका श्रेय भी। दुख से पूर्ण होने के कारण जगत को दुखालय मानकर कष्ट एवं क्लेशों के बीच तड़प-तड़पकर मर जाना मनुष्य की लज्जास्पद पराजय है। मनुष्यता की शोभा इसी में है कि दुख से छूटने और सुख प्राप्त करने के लिए अखंड पुरुषार्थ किया जाए। मनुष्य को चाहिए कि वह संसार को परीक्षा स्थल समझे और इस दुख सागर को पार कर सुख-शाँति के सुहावने किनारे पहुँचकर अपने को श्रेय का अधिकारी बनाए।
जहाँ रोग हैं, वहाँ उपचार भी, जहाँ उलझनें हैं, वहाँ उपाय भी हैं। जहाँ चाह है, वहाँ राह भी, जहाँ दुख है, वहाँ उनसे छूटने का मार्ग भी है। आवश्यकता केवल इतनी है कि मनुष्य के हृदय में सच्ची जिज्ञासा हो। वह अपने उद्देश्य के प्रति निष्ठावान तथा अखंड पुरुषार्थ एवं प्रयत्न करने का साहस रखता हो।
भारतीय मनीषियों ने परोपकारार्थ अपना पूरा जीवन तपकर दुख-निवारण के जो अमोघ उपाय खोज निकाले हैं, वे बड़े ही सरल एवं सुकर हैं। उनका अवलंबन लेकर न जाने कितने लोग इस दुख-सागर से तरे हैं और तरते रहे हैं। उनके द्वारा खोजे हुए दुख-निवारण के उपाय सार्वभौम एवं सर्वमान्य हैं। उन आध्यात्मिक उपायों का अवलंबन किए बिना न तो आज तक कोई दुख से निस्तार पा सका है और न पा सकेगा। इसके विपरीत जो बुद्धिमान उन उपायों को काम में लाता है, वह अवश्य ही दुखों पर विजय पाकर सुख पाता है।
अधिकाँश चिंतकों का मत है कि मनुष्य की विषय-तृष्णा ही सारे दुखों का मूल है। यदि मनुष्य तृष्णा की मरु-मरीचिका में फंसने से अपने को बचा सके तो निश्चय ही दुखों से उसका निस्तार हो जाए। संसार में जो कुछ देखा, उसी को पाने के लिए लालायित हो उठना और पाए हुए से संतुष्ट न होकर अधिकाधिक पाने की इच्छा करना- यही तृष्णा है, जो कभी भी पूरी नहीं होती। पाए हुए में संतुष्ट रहकर यदि अधिकाधिक पाने की अनावश्यक पिपासा को छोड़ दिया जाए तो मनुष्य अवश्य ही अनेक शारीरिक, सामाजिक तथा मानसिक दुखों से बच सकता है।
संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है, यहाँ तक कि शरीर भी। ऐसा जानकर जो बुद्धिमान उनके प्रति आसक्ति नहीं रखता, वह दुख के विशेष हेतु मोहरूपी कटार से बचा रहता है, अन्यथा इनमें आसक्त व्यक्ति इनके क्षीण, क्षय अथवा नाश-वियोग से क्षण-क्षण में दुखी होता रहेगा। यदि ये वस्तुएं उसके देखते-देखते नष्ट न भी हों, तब भी उनके नष्ट हो जाने अथवा बिछुड़ जाने की शंका सताया करती है। संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर एवं क्षयमान है, ऐसी बुद्धि रखकर जो मनीषी उनसे आत्मिक संबंध न रखकर व्यावहारिक संबंध रखता हुआ अनासक्ति का आचरण करता है, संसार की कोई भी हानि उसे दुखी अथवा विचलित नहीं कर सकती है। दुख असल में वस्तु के विनाश अथवा वियोग से नहीं होता, दुख का कारण वास्तव में उसके प्रति मनुष्य का वह मोह होता है, जिसे वह अज्ञानवश वस्तु से स्थापित कर लेता है।
महात्मा बुद्ध की खोज के अनुसार दुखों की निवृत्ति निर्वाण में है। अपने को राग-द्वेष से मुक्त कर लेना ही निर्वाण है, जिसे थोड़े-से प्रयत्न द्वारा मनुष्य जीवनकाल में ही पा सकता है। बुद्ध प्रतिपादित निर्वाण अवस्था को वैराग्य द्वारा शुद्धाचरण करते हुए, इस नाशशील जगत के चिरंतन सत्यों में विश्वास रखने से, मनुष्य विषयों की विभीषिका और तृष्णाओं की मृग-मरीचिकाओं से सुरक्षित रहकर दुखों से निवृत्त हो सकता है।
साँख्य दर्शनकर आत्मा एवं अनात्मा के बीच अंतर न समझने के अज्ञान को दुखों का कारण बतलाते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य जब अज्ञानवश अपने का शरीर मान लेता है, तभी वह दुखों का अनुभव करता है। दुखों का अनुभव करना शरीर का धर्म है। शीत, गरमी, वर्षा, भूख, प्यास, वियोग, बिछोह आदि अप्रिय परिस्थितियाँ शरीर को ही व्यापा करती हैं और वही इनका अनुभव करता है। जब मनुष्य अपनी अनुभूतियों को शरीर तक सीमित कर लेता है अथवा अपने को शरीर मान लेता है तो स्वाभाविक ही है कि शरीर का कष्ट उसे अपना कष्ट लगने लगता है।
मनुष्य वास्तव में शरीर नहीं है। वह अनादि, अनंत, चैतन्य एवं आनंदस्वरूप आत्मा है। उसमें अज्ञान अथवा दुःखानुभूतियों का कोई विकार नहीं है। वह निर्विकार, एकरस चेतन तत्त्व है, जिसको न तो शस्त्र काट सकता है, न पानी गीला कर सकता है, न हवा सुखा सकती है और न आग जला सकती है। वह अपनी ज्योति से स्वयं प्रकाशमान ऐसा शिव एवं शाश्वत दीपक है, जिसको न तो विपरीतताएं प्रभावित कर सकती हैं और न काल बुझा सकता है। आत्मा शरीर, मन, इंद्रियों तथा बुद्धि से भिन्न अविनाशी तत्त्व है, जो कि सदा-सर्वदा स्वयं संतुष्ट एवं आनंदित रहता है। उसे सुख के लिए न तो किसी वस्तु की अपेक्षा है और न किसी भोग की आवश्यकता। वह स्वयं ही आनंदस्वरूप एवं शाश्वत है। मनुष्य अविचल एवं अविनाशी आत्मा है, शरीर नहीं। अब जो व्यक्ति अज्ञानवश अपने इस परमपद आत्मा से भिन्न होकर शरीर को निम्न पद पर उतार लाएगा, वह उसकी विकृतियों से त्रस्त होगा ही।
वेदाँत दर्शन के व्याख्याकार जगद्गुरु शंकर ने दुखों के निवारणों का उपाय मोक्ष बतलाया है। मोक्ष की परिभाषा करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है, “इस सत्य ज्ञान की स्थायी अनुभूति ही मोक्षावस्था है कि आत्मा देश से परे, शरीर तथा मन, बुद्धि से विलग स्वभावतः मुक्त, नित्य एवं अविकल्पी है।” ऐसी अनुभूति का साक्षात्कार कर लेने पर मनुष्य का, शरीर अथवा मन विकारों से प्रभावित होना समाप्त हो जाता है।
एक अज्ञात समय से शरीर एवं विश्व के संसर्ग में रहते-रहते मनुष्य अपने सत्यस्वरूप आत्मा को ही नहीं भूल गया, बल्कि जगत के परम कारण परमात्मा को भी भूल गया है। संसर्गजन्य अविद्या के कारण वह परमात्मा के स्थान पर उसकी माया, इस संसार को ही सत्य समझ बैठा है, जहाँ दुख के सिवाय उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता।
इस प्रकार मनुष्य यदि अपने सत्यस्वरूप आत्मा में आस्था रखकर संसार में परिव्याप्त कारणभूत परमात्मा को मर्यादापूर्वक भोगते हुए भी उनसे अप्रभावित रहने के अहायास के साथ जीवनयापन करे तो निश्चय ही उसके सारे बंधन कट जाएं और वह अपने जीवनकाल में ही मुक्ति, मोक्ष एवं निर्वाण की चिदानंद स्थिति को पा सकता है।