पारसी समाज में पैदा हुए रुस्तम जी अपंग जैसी स्थिति में थे। बड़े होने पर आँखों ने भी जवाब दे दिया। थोड़े बड़े हुए तो आधे शरीर में लंकवा मार गया, तो भी वे हिम्मत न हारे। अंधों की ब्रेललिपि इन दिनों प्राथमिक अवस्था में थी और दोषपूर्ण थी। उसे सुधारने और उसके सहारे पढ़ते रहने का उन्होंने प्रयत्न किया।
उनके प्रयत्नों की हँसी उड़ाई जाती रही, तो भी वे निराश न हुए। भारत के अंधों का संगठन उन्होंने बनाया। राष्ट्र संघ की सहायता से ब्रेललिपि में भी सुधार कराया। भारत सरकार द्वारा अंधों को उद्योगशील बनाने के प्रयत्न में सफलता पाई।
रुस्तम जी की लगन, हिम्मत और सेवा के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया। जब तक वे जिए, दुर्भाग्य से निरंतर लड़ते रहे।