बुद्धि नहीं, सद्बुद्धि की शरण में आएँ

December 2003

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बौद्धिक विकास को आज के युग की सर्वोपरि उपलब्धि मानी जाती है। यह यथार्थ और सत्य भी है, क्योंकि आज के विश्व का सारा परिदृश्य बौद्धिक आविष्कार से चमत्कृत एवं हतप्रभ है, आश्चर्यचकित है। और हो भी क्यों न, आज अत्याधुनिक साधन-सुविधाओं का अन्तहीन अम्बार, विलासिता की चरम-परम चीजें तथा भौतिक जीवन को सुख-साधन से भर देने की जटिल प्रतियोगिता सब इसी की तो देन है। परन्तु इन सबके बीच ही गहरी अतृप्ति एवं तड़प क्यों उठती है? क्यों मन प्यासा का प्यासा रह जाता है? क्यों हृदय की विकलता मिटती नहीं है? बौद्धिकता के पद तले भावनाओं का कुचल-मसलकर मिट जाना ही इसका सार्थक जवाब है। बौद्धिकता के शुष्क आच्छादन में भाव जगत् की गहरी संवेदनशीलता समाप्त हो गयी है। आज का आधुनिक जगत् जितना भौतिकता के क्षेत्र में अग्रसर हुआ है, उतना ही मनोजगत, भावजगत में पिछड़ गया है। गम्भीर मनोरोगों का पनपना, हिंसा-हत्या, आत्महत्या आदि का उन्मादी आवेग भावहीन, शुष्क एवं कोरी बौद्धिकता का ही तो परिणाम है।

बुद्धि इस युग का भौतिक वरदान बनकर अवतरित हुई है तो आत्मिक प्रवंचना के रूप में अट्टहास भी कर रही है। बुद्धि हमें शाप और वरदान दोनों को एक साथ परोस रही है। परन्तु हम उसके वरदान का सदुपयोग तक नहीं कर पा रहे हैं और शाप के दावानल में जल-भस्म कर हाहाकार मचाये हुए हैं। बुद्धि के कटघरे में कैद मन को कहीं भी शान्ति की शीतल छाँव नजर नहीं आती। यह समस्या वैयक्तिक ही नहीं है बल्कि सामाजिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक हो गयी है। बुद्धि के घनघोर घटाटोप में घिरकर हमें प्रकाश का अस्तित्व भी दिखायी नहीं दे रहा है। यह आज के युग की बड़ी गहन और गम्भीर समस्या है। उलझनें उलझती ही जा रही हैं, सुलझने का कहीं कोई नामोनिशान नहीं दिखता। कहाँ जायें? क्या करें? कैसे समाधान दें? सभी प्रश्न महाप्रश्न बनकर अनुत्तरित एवं अशान्त हैं।

पश्चिमी बौद्धिकता का विष ज्वार आज हमारे हरे-भरे समृद्ध समाज एवं परिवार को विषाक्त कर दिया है। हाल ही में दो दशक पूर्व जहाँ प्रसन्नता से प्रसन्न व्यक्ति सुख-शान्तिपूर्वक जीवन जीते थे, आज अवसाद-विषाद रूपी गम्भीर मनोरोग से आक्राँत हो गये हैं। विषाद की यह काली छाया हँसते-मुस्कराते नन्हें-नन्हें बालकों को भी आवृत्त कर चुकी है। इसी कारण प्रत्येक बड़े अस्पतालों में ‘साइकियाट्री’ की शाखा विकसित हो चुकी है। मनोरोगों की बाढ़ आ गयी है। हर कोई, कहीं न कहीं चिंता, तनाव, अवसाद आदि मनोविकृतियों से घिरा हुआ छटपटा रहा है। ये सभी मनोरोग शुष्क एवं कोरी बुद्धि का प्रतिदान है। भावनाओं को कुचलकर उसकी छाती में चढ़कर बुद्धि ने बड़ा भयावह और भीषण दृश्य प्रस्तुत कर दिया है।

बौद्धिक प्रतिभा के धनी तो उससे सर्वाधिक प्रभावित है। तर्क और बुद्धि के शिखर पर चढ़े इन प्रतिभाओं को कहीं भी शान्ति एवं सुकून का आश्रय नहीं मिल पा रहा है। अपनी बौद्धिक योग्यता की चरम सीमा तक में विकसित करने के बावजूद ये अपने आन्तरिक जीवन में सुलगती आग के धुएं से हैरान-परेशान हैं। भावनात्मक अभाव से उपजी इस समस्या और परेशानी का अतिरेक तलाक की दर को दिनों दिन बढ़ा रहा है। व्यक्ति-व्यक्ति में, परिवार, समाज तथा समाज के सभी घटकों में विघटन एवं बिखराव बढ़ गया है। व्यथित मन को शान्ति देने का और ठिकाना नहीं मिल पा रहा है, जिससे आत्महंता नशा ही एक मात्र अवलम्बन बन गया है।

भावनात्मक अभाव बोध से उपजी पथरीली बुद्धि से सजी-सँवरी हताशा महान् प्रतिभाओं को भी नहीं छोड़ी है। यह समस्या आज की नहीं है, अतिपुरातन है। समाज को दिशा प्रदान करने वाले बुद्धिजीवियों की शुष्क बुद्धि स्वयं के लिए भी सर्वनाशी बन जाती है। इसी कारण ये प्रतिभायें जीवन के महाप्रश्न का जवाब खोजने के बदले इसे ही समाप्त-नष्ट करके मुक्ति का उपाय तलाशती हैं। इनमें से प्रमुख हैं-जगत् विख्यात विद्वान गेटे, जिसने अपने जीवन की कुछ उलझनों को न सुलझा पाने के कारण जीवन को ही समाप्त कर देने का ठानी।

इसके लिए उन्होंने एक धारदार एवं कीमती चाकू खरीदा और कई रात तकिये के नीचे छुपाये रखा। जीवन का अन्त कर देने की समस्या को सुलझाने में उनकी बुद्धि प्रबल नहीं हो पायी, जिस कारण उन्होंने चाकू को फेंक दिया। बुद्धि के कुचक्र में फँसकर ऐसा ही असफल एवं आत्मघाती प्रयास वायरन ने अपने ‘चाइल्ड हेरल्ड’ के लेखन के दौरान किया था। विषाद के उन क्षणों में उन्हें अपनी सास की आत्मियता एवं प्रेमभरी शीतल, सुखदायक छुअन ने उबार दिया और अन्ततः भावना के आगे बुद्धि का कुचक्र परास्त हो गया।

भावुकता भावना की ऊपरी कृति है। गहरी भावुकता में जब बुद्धि का कुतर्क शामिल हो जाता है तो ऐसे आत्मघाती कार्य सम्पादित होते हैं। महाकवि चैटरटन ने गरीबी एवं दरिद्रता से पस्त होकर तीक्ष्ण विषपान कर लिया तथा सदा के लिए इस अन्तहीन व्यथा से मुक्ति पाने का पथ खोजा। रूस के प्रसिद्ध उपन्यासकार मैक्सिम गोर्की के जीवन में भयंकर उतार-चढ़ाव आये। बौद्धिक कुशलता भी जब इस विषम परिस्थिति से कोई राह नहीं निकाल सकी तो उन्होंने अपनी जमा पूँजी से एक पिस्तौल खरीदा तथा उसकी गोली से अपने डडडडहाखे पेट को विदीर्ण कर डाला। जीवन के संघर्ष से टकराकर हारे थके यहूदी साहित्यकार स्टीफेन ज्विग ने ऐसे ही सर्वनाशी सूत्रों का सहारा लिया। उन्होंने आत्महत्या करके अपने अशक्त, असमर्थ जीवन का अन्त कर दिया। संसार के महासमर से पराजित होकर एक और कवि का दुःखद अन्त हुआ। लैटिन कवि एम्पेदोक्लीज ने धधकते ज्वालामुखी के गर्भ में कूदकर स्वयं के अस्तित्व को बलात् विनष्ट किया था।

मानसिक कल्पनाओं में प्राण भरकर कैनवास पर उतारने वाला चित्रकार बनागाँग अपने जीवन के वास्तविक रंग से परिचय न प्राप्त कर सके और खुद को गोली मार दी। एक और चित्रकार लाडे अस्पताल में पड़े मौत के पंजों से जूझ न सके और स्वयं को उसी के हवाले कर देना उचित समझा। वे अपने पेट में गोली मारकर मरे। चीनी साहित्यकार लाओत्से ने भी अपनी मौत का वरण स्वयं के बेचैन हाथों से किया था। यूनान के महान् दार्शनिक डायोजिनीस अपने हाथों फाँसी के फंदे पर झूल गये थे।

बुद्धिमान, प्रतिभावान कहे, माने-जाने वाले अनगिनत मूर्धन्यों ने तनिक भी समस्याओं एवं परेशानियों से व्यथित-उद्विग्न होकर जघन्य कृत्य आत्महत्या का पथ अपनाया। राबर्ट क्लाइव ने अपने ही जीवन से घबराकर तीन-तीन बार आत्महत्या का प्रयास किया परन्तु तीनों बार पिस्तौल की गोली ठीक निशाने पर न लगने से बच गये। इसके अलावा सेफो, डेमोस्थनीज, ब्रूटस, केसियस, क्लाइव, डेमोक्लीज, हनीवाल, बर्टन आदि विद्वानों ने भी अपने भवगद् प्रदत्त दुर्लभ जीवन की अविवेकपूर्ण इतिश्री की।

आधुनिक मनोविज्ञानियों की मान्यता है कि कोरी बौद्धिकता एवं गहरी भावुकता से उत्पन्न हताशा-निराशा की चरमसीमा आत्महत्या करने के लिए विवश करती है। क्योंकि इस स्थिति में सर्वत्र असहायपन एवं निराशा दृष्टिगोचर होती है। कहीं कोई अपना नजर नहीं आता और मानसिकता विखण्डित हो जाती है। आत्महत्या जैसे जघन्य कर्म न होने पर भी मानसिक विकृतियाँ पल-पल मृत्यु तुल्य मर्मांतक वेदना देती रहती हैं। मनोवैज्ञानिक इसे आज की भावना विहीन चरम बौद्धिकता का परिणाम मानते हैं। उनके पास समाधान का कोई सर्वांगपूर्ण सूत्र एवं पद्धति नहीं है।

इसका समग्र समाधान मानवीय जीवन के मर्मज्ञ ऋषियों, मनीषियों एवं द्रष्टाओं के पास है। उनके सूत्र हमारे लिए आज भी सार्थक एवं उपयोगी है। वे बुद्धि की शरण में नहीं सद्बुद्धि के समर्पण में, भावुकता के भँवर नहीं भावना की दिव्यता में जीवन को बढ़ने का मर्म समझाते हैं। इन सूत्रों में भौतिकता एवं आध्यात्मिकता दोनों के विकास की समग्र सम्भावनाएँ सन्निहित हैं। अतः इन सम्भावनाओं को साकार करने के लिए ऋषियों ने गायत्री महामंत्र को सर्वोपयोगी सरल एवं समग्र समाधान के रूप में प्रस्तुत किया है। गायत्री महामंत्र को जीवन में उतारकर ही हम इस युग समस्या से मुक्त हो सकते हैं तथा स्वयं को मनोविकारों से मुक्त करके सद्बुद्धि एवं सद्भावना से सराबोर हो सकते हैं। इसी में समग्र समाधान सन्निहित है। अतः हम सबको अपनी स्थिति के अनुरूप गायत्री महामंत्र को जीवन में उतारना चाहिए अभिव्यक्त होने देना चाहिए।


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