आध्यात्मिक जीवन जिएँ, मनोरोगों से दूर रहें

December 2003

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मन क्या है? शरीर से यह क्यों अभिन्न है? इसकी यदि विवेचना करनी हो तो छाँदोग्योपनिषद् के “अन्नमयं हि सोम्य मनः” (6/6/5) के स्वर में स्वर मिलाते हुए यही कहना पड़ेगा कि यदि एक ही उपादान से दो प्रकार की सृष्टियाँ हो रही हैं तो उन दोनों में किसी-न-किसी प्रकार का संबंध अवश्य है, भले ही स्वरूप भेद के कारण यह तादात्म्य स्थापित न हो पा रहा हो, तो भी इतने से ही उसे अमान्य करने का कोई कारण नहीं। जल से भाप और बरफ दोनों ही बनती हैं। दोनों के आकार और रूप में भारी अंतर है। एक स्थूलता का प्रतिनिधित्व करती है तो दूसरी अपने सूक्ष्म अस्तित्व का बोध कराती है। इतने पर भी दोनों में कोई भेद है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अनुकूल परिस्थिति मिलने पर वाष्प बरफ बन सकती है और बरफ भाप। शरीर और मन के संबंध में विज्ञानवादी विचारधारा भी अब ऐसी ही बनने लगी है और विज्ञानवेत्ता द्वैत से अद्वैत की वैदिक मान्यता की ओर लौटते प्रतीत हो रहे हैं। इस आधार पर वे मनोकायिक रोगों का निदान और उपचार ढूँढ़ पाने में सफल हुए हैं।

इस अभेदता को कुछ अन्य उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है। बीसवीं सदी के प्रारंभ तक पदार्थ और ऊर्जा के बारे में मान्यता थी कि वे दो पृथक वस्तुएं हैं। द्रव्य भी अनाशवान है और ऊर्जा भी अनश्वर है। दोनों नित्य हैं। ऊर्जा द्वारा पदार्थ संचालित होते हैं। इसके अतिरिक्त पदार्थ सत्ता पर ऊर्जा का कोई हस्तक्षेप नहीं।

सबसे पहले इस अवधारणा पर आइन्स्टीन के ऊर्जा सिद्धाँत (म्त्रउबख्) ने आघात किया। उक्त सूत्र ने आघात किया। उक्त सूत्र द्वारा उन्होंने यह सिद्धाँततः सिद्ध कर दिया कि शक्ति और द्रव्य परस्पर परिवर्तनीय हैं। इस प्रकार पदार्थ और ऊर्जा के द्वैतवाद से चलकर अब हम उनके अद्वैतवाद तक पहुँच गए हैं। इससे उत्साहित होकर आधुनिक मनोविज्ञान ने अब एक नई घोषणा की है द्रव्य और मन दो भिन्न पदार्थ नहीं हैं। उसके अनुसार यह एक ही सत्ता की दो अभिव्यक्तियाँ हैं। इस संबंध में अमेरिका के ‘राइस इन्स्टीट्यूट’ में महत्त्वपूर्ण शोधकार्य हुए हैं। उनने अपने अनुसंधान के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि मनस् तत्त्व और भौतिक तत्त्व दो नहीं, एक हैं। विज्ञानवेत्ता मन और पदार्थ को पहले अलग मानते थे, पर हाल के अन्वेषणों ने अब उन्हें यह स्वीकारने के लिए बाध्य कर दिया कि दोनों एक ही चेतना के दो रूप हैं। ‘न्यू फ्रंटियर्स ऑफ माइंड’ नामक पुस्तक में विद्वान लेखक ने इस संबंध में यह तर्क प्रस्तुत किया है कि यदि ऐसी बात नहीं होती तो मन का पदार्थ पर जो प्रभाव दिखाई पड़ता है, वैसा कुछ देखा-सुना नहीं जाता और पदार्थ सत्ता मन से सर्वथा अप्रभावित बनी रहती, पर व्यवहार में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता है। मन में यदि कोई संकल्प बार-बार उठता है तो वस्तु को वह इच्छानुसार प्रभावित करने में सफल होता है। छुरी एवं चम्मचों को टेढ़ा कर देना अथवा तोड़ देना जैसे प्रदर्शन वस्तुतः इसी संकल्प बल के करिश्मे हैं। ऐसा क्यों होता है? इसका कारण समझाते हुए ग्रंथकार ने मत व्यक्त किया है कि मन में जब भी कोई संकल्प उठता है तो वह यथावत् चेतना के समुद्र में संचारित हो जाता है और निर्दिष्ट वस्तु जहाँ कहीं भी होती है, उस तक वह निर्विघ्न पहुँच जाता है। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने अनेक प्रयोग किए। उदाहरणार्थ, एक प्रयोग ताश खेलते लोगों के बीच किया। खेलने वालों में से एक व्यक्ति को यह निर्देश दिया गया कि वह अमुक पत्ते को अपने पास आने का बार-बार विचार करें। बाद में जब उसका प्रतिशत निकाला गया तो प्रयोगकर्त्ता यह देखकर हैरान रह गए कि ताश का वह पत्ता सौ में से सत्तर बार उसके पास आया था। शेष तीस मौकों पर वह अन्य खिलाड़ियों के हाथ लगा। इसका अर्थ स्पष्ट था कि विचार का वस्तु पर प्रभाव पड़ता है।

ये सब प्रयोग हमें मन और पदार्थ के बीच की द्वैतता को मिटाकर अद्वैतता की ओर ले जा रहे हैं। पिछले दिनों शरीर और मन की अद्वैतता पर भी काफी अध्ययन-अनुसंधान हुए हैं। चिकित्साशास्त्री अब यह मानने लगे हैं कि बहुत से रोग मन से संबंधित होते हैं। उनका कोई दृश्य भौतिक कारण न होने के बावजूद भी वे अपना अस्तित्व बनाए रहते हैं, क्योंकि वे मानसिक मूल के होते हैं। वे इसे स्वीकारने लगे हैं कि जब कभी मनःक्षेत्र में विप्लव अथवा संघर्ष पैदा होता है तो शरीर पर उसका दुष्प्रभाव व्याधि के रूप में सामने आता है। उदरव्रण (पेप्टिक अल्सर), उच्च रक्तचाप आदि रोगों का अध्ययन कर चिकित्सकों ने इस बात का पता लगाया है कि वे सब मन से संबंधित हैं। अनेक प्रकार की शारीरिक पीड़ाओं को, यहाँ तक कि दाँत और हड्डियों के दर्द तक को उन्होंने मन से संबंधित पाया है। ऐसी स्थिति में उनका मानसिक इलाज ही वास्तविक रोगोपचार साबित हो सकता है, किंतु मानसिक मूल वाले बीमारों के संबंध में यह कहना उचित न होगा कि वे मात्र काल्पनिक व्याधि के शिकार हैं।

यदि किसी की पीड़ा मनःकायिक स्वरूप वाली है तो यह मान लेना कि रोगी केवल काल्पनिक दर्द में जी रहा है, वास्तविक पीड़ा से उसे हो ही नहीं रही है, गलत होगा। शरीरवेत्ताओं की इस संबंध में जो मान्यता है, वह यह है कि निषेधात्मक मानसिक वृत्तियों के कारण स्नायु-संस्थान और शरीर तंत्र विकारग्रस्त होने लगते हैं, जो अंग विशेष में रोग के कारण बनते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे जीवाणुओं और विषाणुओं के कारण वे उत्पन्न हुए हों। व्याधि तो हर हालत में सत्य ही होती है। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि शरीर और मन के बीच द्वैत नहीं, अद्वैत की स्थिति है।

तो क्या मनःशास्त्रियों का यह कहना उचित है कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए मन को नीरोग रखना पड़ेगा? हाँ, वर्तमान अध्ययन इसी निष्कर्ष पर पहुँचाता है, किंतु वास्तविक तथ्य को हम भूलते जा रहे हैं और उसकी उपेक्षा मूल की जगह पत्ते का उपचार कर रहे हैं। चिकित्सालयों की संख्या दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है, पर इस बात की ओर तनिक भी ध्यान नहीं जाता कि काया की तरह मन स्वस्थ रहे। कायिक बीमारियों का उपचार हो, यह अच्छी बात है, पर यह भी कोई कम तथ्यपूर्ण नहीं है कि कई रोगों की जड़ें मन में घुसी रहती हैं, अतः मन को भी सबल-सशक्त बनाने का उपाय किया जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ और भौतिक कारणों, उपचारों पर ही अधिकाधिक ध्यान केंद्रित रखा गया तो फिर इस क्षेत्र में पश्चिमी देशों जैसी स्थिति पैदा होते देर न लगेगी। वहाँ जिस दर से मानसिक विकृतियाँ पैदा हुई हैं, उसी अनुपात में नए-नए कायिक रोग भी उत्पन्न हो रहे हैं, किंतु पश्चिमी चिकित्सक उनका इलाज भौतिक मानकर ही करते रहे, फलतः बीमारियाँ अब नए रूप में, नूतन प्रकार से वहाँ प्रकट हो रही हैं। ऐसी व्याधियों को अँगरेजी में साइकोसोमेटिक डिसीजेज कहते हैं, जो अवसाद (डिप्रेशन) एवं आब्सेसिव कम्पलसिव डिसआर्डर्स आदि के रूप में जानी जाती है।

भौतिकता के साथ-साथ मानसिक व्याधियाँ बढ़ी हैं। पश्चिमी देशों की संपन्नता को देखकर इसका अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है, साथ ही पहाड़ी अंचलों में रहने वाले वनवासियों अथवा अनपढ़ ग्रामीणों को देखकर इस निष्कर्ष पर सरलता से पहुँचा जा सकता है कि किस प्रकार धार्मिक मान्यताओं में जीने वाला व्यक्ति मन से स्वस्थ और शरीर से सबल होता है। अश्रद्धा, अविश्वास, आशंका, भय, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष जैसे अधार्मिक तत्त्वों की बढ़ोत्तरी प्रगतिशीलता के नाम पर व्यक्ति के अंदर ज्यों-ज्यों होती जाती है, वैसे-ही-वैसे इस बात की संभावना बढ़ती जाती है कि वह मानसिक विकृति के करीब पहुँचता चला जा रहा है। इसी तथ्य की स्वीकारोक्ति प्रो ब्राउन ने अपनी पुस्तक ‘साइंस एण्ड इण्डिविजुएलिटी’ में की है। वे लिखते हैं, “यद्यपि वे इसे वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं कह रहे हैं, फिर भी यह सत्य है कि जो लोग धार्मिक परंपराओं के अंदर जीते हैं, उनमें मानसिक आधियों की न्यूनता होती है।” इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि धर्मधारणा के अंदर कोई ऐसा निवारक तत्त्व, कोई ऐसी स्वास्थ्यकारी शक्ति है, जिसके द्वारा मानस रोग कम हो जाते हैं। उनका कहना है कि एक वैज्ञानिक के नाते वे बस इतना ही कह सकते हैं, किंतु यदि किसी को यह जानना हो कि धर्म किस प्रकार मन और फिर उसके द्वारा शरीर को प्रभावित करता है तो धार्मिक लोगों को धर्म का अध्ययन और अनुसंधान करना पड़ेगा।

यही कारण है कि पाश्चात्य देशों की तुलना में भारत में अब भी मानसिक रोगियों की संख्या कम है। यह और बात है कि अपना देश भी अब यूरोपीय सहायता से अप्रभावित नहीं रहा, किंतु उस प्रभाव के पीछे भी एक प्रच्छन्न धार्मिकता यहाँ के लोगों में अब भी देखी जा सकती है। कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि यहाँ के प्रगतिशीलों में भी धार्मिकता अब भी न्यूनाधिक मात्रा में दृष्टिगोचर हो जाती है। जहाँ जिस अनुपात में यह होती है, उनका भाव और आस्था क्षेत्र उतना ही मजबूत होता है। इस कारण वे मनोविकारों के उतने ही कम शिकार होते हैं। मन स्वस्थ रहा तो काया भी नीरोग बनी रहती है।

मानस रोगों का एक कारण मनोविज्ञानी आत्मकेंद्रित होना बताते हैं। व्यक्ति जितना आत्मकेंद्रित होगा, उतनी ही मानसिक रोग एवं शारीरिक रोग की संभावना उसमें बढ़ जाएगी। संभवतः इस तथ्य से हमारे प्राचीन ऋषि परिचित रहे होंगे। इसलिए ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘वसुधैव कुटुँबकम्‘ जैसे सिद्धाँत वाक्यों के पीछे उनका एक भाव व्यक्ति और समाज को आत्मकेंद्रित होने से बचाना भी रहा होगा, ताकि स्वस्थ शरीर वाले व्यक्ति और समाज की रचना की जा सके।

इस प्रकार मनःकायिक रोगों की उत्पत्ति भी इसी बात को सिद्ध करती हैं कि देह और मन परस्पर अभिन्न हैं। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सकेगा, उतनी ही जल्दी रुग्ण मन के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों से बचा जा सकना और स्वस्थ रहना संभव हो सकेगा।


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