चेतना की शिखर यात्रा-22 - हिमालय से आमंत्रण-3

December 2003

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तपोवन की ओर

जोशीमठ वापस आने में जितना समय लगा, वही थोड़ा अनुभव हुआ। शायद इसलिए भी कि यात्रा वापसी की थी। रास्ता एक बार देख लिया था, इसलिए कुतूहल और रोमाँच नहीं हो रहा था। उसके बाद तो समय जैसे हवा की तरह उड़ने लगा। जोशीमठ में शंकर गुफा के पास दो बुजुर्ग संन्यासी मिले। दोनों की आयु में दस-पंद्रह वर्ष का अंतर था। लगभग साठ वर्ष की अवस्था वाले स्वामी निर्मलानंद और उनसे उम्र में छोटे स्वामी गंभीरानंद। दोनों गुरु-शिष्य थे। उनसे बड़ी सहजता और शीघ्रता से परिचय हो गया। साथ बनने में भी देर नहीं लगी। करीब दस मिनट में ही गोमुख तक साथ चलने की बात तय हो गई। निर्धारण इस तरह हुआ, जैसे पहले से सब कुछ तय था।

जिस ऋतु में यह यात्रा हो रही थी, उसमें मौसम ठंडा ही रहता है। मौसम से ज्यादा रास्ते की कठिनाइयाँ विकट थीं। भविष्यबदरी से आगे झील पर जिस तपस्वी ने गोमुख का संदेश दिया था, उसकी बातें मन में गूँज रही थीं। उस तपस्वी को देखकर श्रीराम के मन में यह आशा भी जगी थी कि वे रास्ते में सिद्ध-योगियों से भेंट होगी। पहाड़ियों और गाँवों से होते हुए संन्यासियों के साथ जिस रास्ते पर चल रहे थे, उसमें जगह-जगह गुफाएँ थीं। लगता था कि अब इस गुफा से कोई सिद्ध-महात्मा निकल आएँगे। वह गुफा पीछे छूट जाती तो थोड़ी निराशा होती। वे फिर आगे बढ़ते और अगली गुफा आने तक प्रतीक्षा करते, लेकिन अगली गुफा आने पर फिर वही निराशा।

एक स्थिति ऐसी आई कि सिद्ध योगियों के मिलने की आशा ही छोड़ दी। दोनों साथियों के साथ बातचीत करते हुए आराम से रास्ता कट गया। बीच में चट्टियों पर छोटी-मोटी दुकानें मिल जातीं। तीनों लोग वहाँ कुछ देर गपशप सुस्ता लेते। दुकानों पर बैठे पहाड़ी लोगों से कुछ देर गपशप भी हो जाती। वे आटा, दाल, चावल जैसी उपयोग की चीजों के साथ चना, गुड़, सत्तू, आलू, माचिस आदि भी रखते थे। लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार ये चीजें खरीदते। वहीं बनाने-खाने की व्यवस्था भी दुकानों पर होती थी। सामान खरीदने पर खाना बनाने, पकाने और खाने के बरतन बिना किराया लिए ही ये लोग दे देते।

चट्टियों से ज्यादा वास्ता नहीं पड़ा। रास्ते में कुछ गाँव पड़े। उनमें आबादी बहुत कम थी। जो थोड़ी-बहुत थी, उसमें भी महिलाओं का प्रतिशत ज्यादा था। पुरुष रोजी-रोटी कमाने के लिए मैदान में उतर गए थे। यद्यपि साथ था, फिर भी सुनसान रास्ते पर डर लगता था, जहाँ-तहाँ जंगली जानवर और हिंस्र पशु दिखाई दे जाते। बीस-बाईस घंटे के रास्ते में पंद्रह बार शेर, तेंदुए, चीते और भालुओं से आमना-सामना हुआ। कुछ मोड़ों पर छोटे आकार के शेर भी दिखाई दिए। आजकल तो इस इलाके में उस प्रकार के शेर नहीं मिलते। जंगली जानवरों की खाल व्यापार करने वाले लोगों न उनका खात्मा कर दिया, लेकिन 1926-27 में इस तरह के शेर बड़ी संख्या में थे।

विजय की संभावना निश्चित होने पर तो कायर भी लड़ सकते हैं। वीर वे हैं, जो पराजय की आशंका रहने पर भी दृढ़तापूर्वक लड़ते हैं।

गोमुख तक का जो रास्ता उन दिनों तीन दिन में तय होता था, वह एक दिन में ही पार कर लिया। गोमुख-गंगोत्री से लगभग 2 किमी दूर है, लेकिन वहाँ भी अनजाने, पथरीले रास्तों से होकर जाना हुआ। दोनों संन्यासी गोमुख पहुँचकर अलग हो गए। पिछले पच्चीस साल से इसी क्षेत्र में रहते थे। उन्हें सीधे, आसान और लंबे रास्तों के साथ कम समय में तय हो जाने वाले छोटे रास्तों की भी अच्छी जानकारी थी। उत्तराखंड के इस क्षेत्र का चप्पा-चप्पा उनका देखा हुआ था। छोटे रास्ते बेहद कठिन हैं, लेकिन पैदल यात्रा करने वाले लोग उन्हें ही चुनते हैं। जिनके शरीर में सामर्थ्य है, वे तो हर हाल में इन रास्तों से मंजिल तक पहुँचना चाहते हैं।

चारों ओर खतरा-ही-खतरा

गोमुख से आगे सिर्फ बर्फ की वादियाँ ही हैं। चारों तरफ धवल तुषार आच्छादित हैं। बर्फीले पठार वाले इस क्षेत्र में पग-पग पर चुनौतियाँ हैं। इतने ज्यादा खाई-खड्ड हैं कि थोड़ा भी फिसले तो उनमें गिर जाने का खतरा रहता है। गोमुख से आगे का यह रास्ता मात्र ब् किमी है, लेकिन पग-पग पर इतने जोखिम हैं कि प्रतिक्षण सजग-सतर्क रहना पड़ता है। बरफ की चादर उलटकर प्रकृति जगह-जगह पत्थर और मिट्टी भूर-भूर कर गिराती रहती है।

4 किमी का यह रास्ता तय करते हुए श्रीराम को कई बार पिछले दो दिन याद आए। वे रास्ते भी कम खतरनाक नहीं थे, लेकिन बर्फीली, उसके नीचे छिपे मौत के खड्ड और कुएँ जहाँ-तहाँ नहीं थे। मुख्य खतरा हिंस्र पशुओं से ही था। उनसे आमना-सामना होने पर मौत सामने खड़ी दिखाई देती थी, लेकिन वे जानवर भी मनुष्यों से डरते थे। जहाँ रात बितानी पड़ी, वहाँ आस-पास काले साँप रेंगते और मोटे अजगर फुफकार मारते दिखाई दिए थे। गोह, रीछ, तेंदुए और हाथी आदि जानवरों से भी सामना हुआ था। तपोवन के बरफीले पठार में उन मुकाबलों की याद आ गई, लेकिन यह पठार ज्यादा कँपा देने वाला था। इक्का-दुक्का संन्यासी वहाँ दिखाई दिए। उन्होंने मार्ग के कुछ किस्से सुनाए, अगर उन पर ध्यान लगाया जाए तो और रोंगटे खड़े करने वाले थे।

इन रोमाँचक स्मृतियों और विवरणों से बाहर निकल कर श्रीराम ने जहाँ-तहाँ दिखाई देने वाले रंगीन पत्थरों और पहाड़ी फूलों को निहारना शुरू किया। चारों ओर फैले उज्ज्वल धवल तुषार में ये रंगीन पत्थर और फूल प्रकृति का इंद्रधनुषी शृंगार कर रहे थे। तभी श्रीराम को वहाँ फैले खाई-खड्डों की याद आई। दोनों अनुभूतियों के संगम ने बोध जगाया कि जीवन का आनंद मृत्यु के स्मरण से ही है। उसकी विभीषिका याद रहे तो हम वर्तमान को ही समग्रता से जीने लगते हैं। जो क्षण सामने प्रस्तुत है, उसे भली भाँति साधने लगते हैं और वह सत्य के साथ आनंद की अनुभूति भी करा देता है। इस अनुभूति के साथ यह भी स्मरण आया कि पिछले तीन-चार दिनों में किसी भी समय गरम कपड़े पहनने की आवश्यकता नहीं हुई।

सरदी ने नहीं सताया, यह स्मरण आते ही मन ने कहा- मुँह, आँख, कान, नाक आदि खुले रहते हैं, उन्हें सरदी नहीं लगती तो बाकी देह को सरदी क्यों लगनी चाहिए। पहाड़ों में लोग बिना गरम कपड़ों के ही रह लेते हैं। उन्हें ठंड नहीं लगती। जोशीमठ से गोमुख तक आते हुए स्वामी निर्मलानंद की बातें याद हो आईं। उन्होंने कहा था, पहाड़ ऊपर ठंडे रहते हैं, लेकिन उनमें जो गुफाएँ होती हैं, वे गरम रहती हैं। लाँगड़ा, मार्चा आदि शाकों की पत्तियाँ कच्ची भी खाई जा सकती हैं। उनसे गरमी मिलती है। भोजपत्र के तने पर उठी हुई गाँठों को उबाल लिया जाए तो ऐसा पेय बन जाता है कि फिर जाड़ा नहीं लगता। पेट में घुटने और सिर लगाकर उकड़ूं बैठ जाने पर भी ठंड नहीं लगती। अकेले विषम परिस्थितियों और जंगली जानवरों, प्राकृतिक खतरों का सामना करते संपन्न हुई यात्रा कुछ भिन्न परिस्थितियों में और भी रोमाँच भर रही थी।

उस पठार में एक संन्यासी स्वामी तत्त्वबोधानंद से भेंट हुई। उन्होंने एक छोटी-सी कुटिया बना रखी थी, लेकिन उसमें कम ही रहते थे। ज्यादा समय तुषार आच्छादित तपोवन में ही रहते। खुले में शरीर पर एक वस्त्र लिपटा होता। कुटिया का उपयोग यदा-कदा आने वालों के लिए होता। कभी कोई आ जाता और सरदी से ठिठुरने लगता तो उसे ठहरा देते। यात्री एकाध दिन रुककर वापस हो जाता। इस एक उपयोग के अलावा कुटिया खाली ही पड़ी रहती। तपोवन जहाँ से आरंभ होता है वहाँ कोई आश्रम, आवास, मंदिर या तीर्थ नहीं है।

नंदनवन में प्रवेश

तपोवन से कुछ आगे बढ़ने पर नंदनवन आरंभ होता है। बहुसंख्य यात्री उन दिनों यहाँ तक नहीं आते थे। बरफ और कभी किसी टुकड़े पर एकाध वनस्पति के अलावा दूर-दूर तक कुछ नहीं दिखाई देता। यात्रा अथवा दर्शन का वहाँ कोई आकर्षण नहीं है, इसलिए लोग तपोवन से ही वापस लौट जाते हैं। निन्यानवे प्रतिशत यात्रियों की यात्रा गोमुख पर ही समाप्त हो जाती है। नंदनवन इस अर्थ में सर्वथा निर्जन, नीरस और आकर्षण से रहित है। श्रीराम को यहाँ आने का आदेश नहीं हुआ होता तो वे भी इस ओर मुँह नहीं करते। यह नंदनवन पठार से कुछ किलोमीटर आगे है। वहाँ और भी विकट स्थितियाँ हैं। बरफ की इतनी पतली चादर जगह-जगह बिछी होती है कि सँभल-सँभलकर धीरे-धीरे कदम रखने होते हैं। स्वामी तत्त्वबोधानंद ने बता दिया था, एक पग आगे बढ़ाओ तो बर्फीली सतह पर धीरे से कदम रखना। इतने धीरे कि जैसे फूल रख रहे हो। पाँव टिकाने से पहले भी यही सावधानी रखना। छड़ी का उपयोग भी कर सकते हो, लेकिन अकेले छड़ी के भरोसे ही मत रहना। शरीर का पूरा वजन उठाते हुए पाँव ठीक से टिक न जाए, तब तक अगला कदम न उठाना। जगह-जगह पानी के गड्ढों से भी इसी तरह बचा जा सकता है।

एक फूलों की घाटी जोशीमठ से आगे धाँधरिया के पास भूइंदर उपत्यिका में भी है। इसे नंदनकानन कहा जाता है। प्रसिद्ध नाम फूलों की घाटी ही है। त्रेतायुग में लक्ष्मण ने यहीं तपस्या की थी। लोगों का मानना है कि फूलों की घाटी परशुराम ने तैयार की थी। सीता स्वयंवर के समय भगवान राम की आज्ञा मिलने पर वे इसी क्षेत्र में आ बसे थे और ब्राह्मण धर्म त्याग कर क्षत्रियों का संहार करने के लिए उन्होंने शस्त्र उठाया था, लेकिन उन्हें लगा कि यह ब्राह्मणत्व की मर्यादा का उल्लंघन हुआ है। मन में हो रही ग्लानि या पापबोध से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने भगवान से मार्ग पूछा। भगवान ने उन्हें हिमालय क्षेत्र को पुष्प-पादपों से आच्छादित करने का मार्ग बताया। विष्णु के अंशावतार भगवान परशुराम ने इसी क्षेत्र में तप किया और सैकड़ों प्रकार के फूल-पौधे लगाए। पाँच किलोमीटर लंबे और दो किलोमीटर चौड़े उस क्षेत्र में आज भी सात सौ प्रकार के पुष्प-पादप हैं। दुनिया के किसी कोने में इतने विविध फूल-पौधे और वनस्पतियाँ नहीं हैं।

श्रीराम जिस नंदनवन में पहुँचे, वह फूलों की घाटी के नाम से प्रसिद्ध इस क्षेत्र से अलग है। वहाँ किसी का आसानी से प्रवेश नहीं हो सकता। आसानी से प्रवेश नहीं हो सकता। आसानी क्या, बहुत कष्ट उठाकर, दुस्साहस से भी नहीं जाया जा सकता। स्वामी तत्त्वबोधानंद ने जो सावधानी बताई थी, श्रीराम ने उसका पूरा ध्यान रखा। फिर भी कुछ स्थानों पर कठिनाई आई। पाँव ठीक से जमाने पर भी गहराई में धँसता प्रतीत हुआ। फिर अगले ही क्षण लगा कि जैसे कोई बाँह पकड़कर सँभाल रहा है।

पुनः हुआ साक्षात्कार

सँभलते-सँभलते दो-ढाई किलोमीटर आगे निकले होंगे कि एक टीला दिखाई दिया। उस पर बरफ का आवरण बेधकर कुछ वनस्पतियाँ उगी हुई थीं। देखकर आश्चर्य हुआ। बरफानी माहौल में हरियाली कहाँ से प्रगट हुई। फिर अपने आप समाधान भी आया कि प्रकृति का चमत्कार होगा। हो सकता है, सब सहज-स्वाभाविक हो, प्रक्रिया-विधि समझ नहीं आती है, इसलिए चमत्कार लग रहा हो। उन वनस्पतियों की ओर ध्यान लगा ही था कि ठंडी बयार का एक झोंका आया। उस झोंके में भीनी-भीनी महक भी व्याप्त थी। गंध के पहचानने की कोशिश की। ठीक वैसी ही महक थी, जैसी आँवलखेड़ा में वसंत पंचमी पर पूजा की कोठरी में अनुभव की थी।

सुगंध की पहचान होते ही वनस्पतियों की ओर से निगाह फेरी। उस दिशा में देखा, जहाँ से सुगंध आ रही थी। कुछ कदम दूर अपने उसी परिचित रूप में दिगंबर अवस्था में गुरुदेव खड़े थे। उन्हें देखकर हर्ष का स्रोत फूट पड़ा। मुखमंडल पुलकित हो उठा। उन्हें प्रणाम करने के लिए झुके। दिगंबर योगी के हाथ भी आशीर्वाद की मुद्रा में ऊपर उठे। बरफ की तरह श्वेत धवल दाढ़ी और मूछों के पीछे छिपे ओठों पर मुस्कान उभर आई। आँखों में दीप्त दिखाई दे रही चमक श्रीराम का अभिवादन करती प्रतीत हो रही थी। उन्होंने मुँह से कुछ नहीं कहा। रास्ते में हुई कठिनाइयों के बारे में भी कुछ नहीं पूछा। कुशल-क्षेम की कोई औपचारिकता नहीं बरती। अपने पीछे आने का संकेत भर किया और चल दिए।

श्रीराम अपनी मार्गदर्शक सत्ता का अनुगमन करते हुए कदम बढ़ाने लगें। उनके चित्त में अब सावधानी से चलने का विचार नहीं रहा था। वे निश्चित भाव से अपनी मार्गदर्शक सत्ता के पीछे चल रहे थे। गुरुदेव उस टीले की ओर ही जा रहे थे, जिसे देखकर श्रीराम के मन में विस्मय का भाव आया था, लेकिन वे उस टीले के ऊपर नहीं चढ़े। बरफ के भीतर बनी एक खोह में घुस गए। गुरुदेव के पीछे खोह में जाते हुए क्षणभर के लिए विचार आया कि ऊपर छाई हुई बरफ धसककर गिर जाए तो क्या होगा ? यहीं जीवित समाधि लग जाएगी। अपने ही इस विचार पर तत्क्षण हँसी भी आई। वे हँसे ही थे कि गुरुदेव ने कहा-जीवित समाधि लगने का लाभ भी तो है। तुम भी सूक्ष्म देहधारी हो जाओगे और सिद्धों के इस कानून में वास करोगे। (क्रमशः)


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