परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - समस्त सिद्धियों का आधार तप-2

December 2003

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(गताँक से आगे)

आप ऐसा शोध मत करिए

मित्रो! अगर आप कल को यह कहेंगे कि भगवान बड़े दयालु थे, देवी बड़ी दयालु थीं और हमने अगरबत्ती जला दी, नारियल चढ़ा दिया तो देवी प्रसन्न हो गईं और हमारे पास रुपयों का बंडल लेकर आ गईं। अगर आपका यह ख्याल सही है तो बेटे, हम भी यही करेंगे और लोगों से भी यही कहेंगे कि आपने एक बहुत बड़ा आविष्कार कर लिया। बहुत से लोगों ने भी आविष्कार किए हैं, किसी ने बिजली का आविष्कार किया है, किसी ने रेडियो का आविष्कार किया, किसी ने अमुक का आविष्कार किया। आपको भी मैं आविष्कारक मानूँगा, अगर आप यह साबित करेंगे कि भगवान को धूपबत्ती खिलाकर फुसलाया जा सकता है और फुसलाने के बाद में मनमरजी के काम निकाले जा सकते हैं। अगर आपका यह प्रयोग सफल हो जाए तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी कि आपने एक बड़ा भारी एवं क्राँतिकारी आविष्कार कर लिया।

मित्रो! तब मैं हर आदमी से यही कहूँगा कि आपको अपना व्यक्तित्व विकसित करने की कोई जरूरत नहीं है। किसी आदमी को पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं है। किसी आदमी को जीवन संशोधन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इन महाशय जी ने नया आविष्कार करके यह दिखा दिया है कि धूपबत्ती से, देवी का पाठ करने से देवी-देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और मनमरजी की मनोकामना पूरी कराई जा सकती है। फिर मैं सब लोगों से कहूँगा कि आप लोग गलत थे। इतनी मेहनत आपने बेकार कर डाली। आपने जो किताब पढ़ाई, गलत पढ़ाई। आपने पुरुषार्थ बेकार किया। आपको इन महाशय जी का कहना मानना चाहिए था और आपको हनुमान चालीसा पढ़ना चाहिए था, धूपबत्ती जलानी चाहिए थी और अपना उल्लू सीधा कर लेना चाहिए था। फिर मैं आज तक की हर परंपरा को बदल देने के लिए कहूँगा। हर आदमी जो सोचता है, गलत सोचता है और ये महाशय जी सही सोचते हैं। ये नए आविष्कारक हैं। बेटे, मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप वास्तविकता के नजदीक आइए। अगर आप वास्तविकता के नजदीक नहीं आएँगे तो बेकार परेशान होंगे और अपना समय खराब करेंगे।

तप रहा है सफलताओं के मूल में

मित्रो! तपश्चर्या का महत्त्व आपको मैं बता चुका हूँ। भौतिक प्रगति की दिशा में आपका बढ़ने का वास्तव में मन हो तो आपको तपस्वी जीवन जीने की तैयारी करनी चाहिए। भगवान बुद्ध ने तपस्या की वजह से सारे-के-सारे विश्व में नई क्राँति की और उसकी काया पलट दी। उस गंदे जमाने को ठीक कर दिया था। वे कौन से आविष्कार थे, जो उन्होंने किए थे? वे थे उनके चीवरधारी भिक्षु, परिव्राजक। परिव्राजक कौन होते हैं- घुमक्कड़? नहीं बेटे! तो लोहे की गाड़ी वाले होते होंगे, जो गाड़ी लिए इस गाँव से उस गाँव घूमते-फिरते हैं? हाँ, ये भी परिव्राजक हैं, पर वो परिव्राजक अलग तरह के थे। भगवान बुद्ध ने सबसे पहला शिक्षण अपने परिव्राजकों को यह दिया था कि आपको तपश्चर्या करनी चाहिए। उनका हर शिष्य पहला शिक्षण तपश्चर्या का लेता था, देवी-देवता का पाठ करने का नहीं। तपश्चर्या का क्या पाठ करते थे वे? उनके हर परिव्राजक पर खान-पान के संबंध में, रहन-सहन के संबंध में, कपड़े पहनने के संबंध में, उपवास करने के संबंध में, सारे-के-सारे इतने कठोर नियम उन पर लागू होते थे कि वे अपने बुद्ध विहारों में तपस्वी जीवन जीने के बाद जब बाहर निकलते थे और जहाँ कहीं भी जाते थे, क्राँति करते हुए चले जाते थे।

हिंदुस्तान से निकलने के बाद में वे परिव्राजक समूची एशिया में छा गए। रेगिस्तानों को पार करते हुए, तिब्बत के पठार और चट्टानों को पार करते हुए वे चीन जा पहुंचे। चीन में भारत से गए कुमारजीव से लेकर अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जिन्होंने बौद्ध धर्म को दूर-दूर तक फैलाया। अशोक से लेकर हर्षवर्धन तक ने जनता और शासन दोनों को एक बना दिया। बौद्ध धर्म को सबसे अधिक दूर-दूर तक फैलाने में इन्होंने अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। असल में आपको बौद्ध देश देखना हो तो आपको आज से तीस साल पहले के चाइना में जाना होगा। अब तो तीस साल से वहाँ कम्युनिज्म आ गया है, पर तीस साल पहले वहाँ असली बौद्ध थे। चीन हिंदुस्तान से भी बड़ा है। तब वहाँ एक करोड़ आबादी थी। सारे-के-सारा हिस्सा तब बौद्ध धर्म में दीक्षित था। न केवल चाइना, वरन् मंचूरिया, मंगोलिया, जापान, कोरिया आदि सारे देश एवं कंबोडिया से लेकर जावा, सुमात्रा तक, इंडोनेशिया से लेकर मलेशिया तक सारे-के-सारे द्वीप यहाँ से लेकर वहाँ तक पूरे में बौद्ध धर्म फैला हुआ था। न केवल पूरा एशिया, वरन् यूरोप के बहुत सारे हिस्सों व अन्य देशों में बौद्ध धर्म फैला हुआ था। अमेरिका में तो अभी पता नहीं चला है कि कभी वहाँ बौद्ध धर्म था। वहाँ तो मय सहायता का पता चला है, लेकिन इसके अतिरिक्त सारे एशिया एवं विश्व में बौद्ध धर्म छा गया था।

अक्षुण्ण कीर्ति मिलती है तपस्वी को

मित्रो! यह क्या बात थी? यह थी कीर्ति, जो व्यक्तित्व की चमक से पैदा होती है। यह धर्म-प्रचारकों का व्यक्तित्व ही है, जिन्होंने अपनी गरिमा को बढ़ाने के साथ-साथ में अपने धर्म अर्थात् जिस मिशन को लेकर वे चले थे, उसे जादू के तरीके से और तूफान के तरीके से, आग के तरीके से आगे बढ़ाते चले गए। सफलता उनके चरण चूमती चली गई। सफलता उनके ही चरण चूमती है, जो तपश्चर्या के सिद्धाँत पर विश्वास करते हैं। जो तपश्चर्या के सिद्धाँत पर विश्वास नहीं करते, जिनको अपनी जबान पर काबू नहीं है, खाने पर काबू नहीं है, इंद्रियों पर काबू नहीं है, लोभ पर काबू नहीं है, मोह पर काबू नहीं है और ऊपर से कहते हैं कि हमको भगवान के दर्शन करा दीजिए, अमुक सिद्धि दिलवा दीजिए, वे परले सिरे के धूर्त हैं। जो हराम का पाना चाहते हैं, सफलता ऐसे आदमियों से बहुत दूर भागती है।

मित्रो! क्या करना पड़ेगा? हमको अपना जीवन तपस्वी जीवन में ढालने के लिए तैयार करना होगा। यह कठिन चीज है, अतः ज्यादा कीमत चाहिए। यह न तो सस्ती चीज है और न सस्ते में मिल सकती है। इसके परिणाम बड़े मूल्यवान हैं। इसलिए मूल्यवान वस्तुओं का मूल्य चुकाने के लिए तैयार हो जाइए। आपके बचपन से मैं आपको यही सिखाता चला आया हूँ कि ब्रह्मवर्चस् का सिद्धाँत क्या है? ब्रह्मवर्चस् अर्थात् ब्रह्मतेजस् आप प्राप्त करना चाहते हैं तो आप तपस्वी बनिए। तैयारी कीजिए। धीरे-धीरे जैसे-जैसे ब्रह्मवर्चस् आपको बर्दाश्त होता जाएगा, वैसे-वैसे आपको अधिक तपस्वी बनाने के लिए हम प्रयत्न करेंगे। आपको हमने आरंभ से कराया है और आगे भी कराएँगे। क्या कराएँगे? दधीचि की हड्डियों में से जैसे आग निकलती थी, बिजली निकलती थी, वैसे ही आपकी आँखों में से आग, आँखों में से बिजली, आपकी वाणी में से बिजली, आपके चेहरे में से बिजली निकालेंगे। आपको तपा-तपाकर चलता-फिरता बिजलीघर बनाएँगे। तपाने से बन सकती है? हाँ बेटे, बन सकती है। आपको तपस्वी जीवन की शिक्षा दी जाएगी।

‘योगा’ नहीं योग

साथियो! अभी एक और हिस्सा रह गया था, उसको बताना चाहता हैं। उसका नाम है-’योग।’ योग किसे कहते हैं? योग कहते हैं- परमात्मा से जुड़ने को। आज का ‘योगा’ अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होता है। अगर योगा देखना है तो आप यूरोप में चले जाइए। मैं यूरोप घूमकर आया हूँ। मैंने जगह-जगह योगा देखा। हमने देखा कि वहाँ योगा कैसे होता है। यों मालूम पड़ता है कि वहाँ योगा का कोई ताऊ, भतीजा या चाचा, मामा होगा। योगा तो है नहीं, हाँ, कोई उसका रिश्तेदार होगा। आपको रात को वहाँ का योगा देखना हो तो उनका मेडिटेशन देखिए। यह बीसवीं शताब्दी का चमत्कार है। बीसवीं शताब्दी योगा पर कैसे हावी हो गई है, आप वहाँ जाकर देखिए कि शराब पिए धुत पड़े हुए लोग क्या कर रहे हैं? मेडिटेशन कर रहे हैं। भला मेडिटेशन ऐसा होता है कि आप नशा कीजिए, एकाँत में रहिए, हिप्पी बनकर इकट्ठे होते चले जाइए और दुनिया भर की सब बदमाशी कीजिए और योगा करते चलिए। किसी जमाने में हमने बाजीगरों का खेल देखा था, जादूगरों का खेल भी देखा था, लेकिन इस जमाने में पढ़े-लिखे लोगों में नए किस्म की जादूगरी चालू हो गई है और इसका नाम हो गया है-’योगा’ कुछ सेंटरों में समाधियाँ लगवाते हैं। वे कहते हैं- देखिए, हम अभी आपके सेंटरों में समाधि लगवा देते हैं। आपको कोई पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं है। देखिए, अभी हम आपके ऊपर जादू करते हैं और आपकी समाधि लगवाते हैं, आपका ध्यान लगवाते हैं, मेडिटेशन करवाते हैं।

मित्रो! सब जगह यही धूर्तता जहाँ-तहाँ सारे संसार में फैली हुई है। इस अनाचार को देखकर मालूम पड़ता था, मानो योग की जीवात्मा ही खत्म हो गई। यही ढकोसला सब जग न खड़ा हो जाए, यह आशंका बनी रहती है। अब योगा में क्या होता है? आसन होता है। नाक में रस्सी डाल लेंगे, भीतर तक ले जाएंगे और फिर बाहर निकाल लेंगे। क्यों साहब! योगा तो भगवान से मिलने को कहते हैं। क्या इससे भी भगवान मिल जाएगा? हाँ साहब! अच्छा तो जब भगवान मिल जाए तो हमें भी दिखाना।

बेटे! योगा वह हो सकता है जिसमें हमारा मन, हमारा चिंतन आदर्शवादिता के साथ जोड़ा जाता है। यह थिंकिंग है, विचारणा है। क्रियायोग का जितना भी संबंध है, वह तपश्चर्या से है। कौन-सी? जो हम शरीर के द्वारा करते हैं। शरीर के सारे-के-सारे अंगों की जितनी भी क्रियाएँ हैं, वे सब तपश्चर्या में आती हैं। जप, यह भी उसी में आता है। यह शरीर की क्रिया है। प्राण भी शरीर में आता है, क्योंकि यह शरीर की क्रिया है। शरीर के द्वारा जो भी क्रिया की जाती है, वह योग में नहीं आती, तप में आती है। योग चीज अलग है।

चिंतन का परिष्कार है योग

योग किसे कहते हैं? बेटे, हमारा चिंतन, हमारी विचारणा-इसको परिष्कृत करना और हमारा क्रियापक्ष, इसका परिशोधन करना-इसका नाम योग है। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को परिशोधित करने का नाम योग है। ये सारी-की-सारी क्रियाएँ हमारी विचारणा से संबंधित हैं। आपके लिए कोई योग शब्द का इस्तेमाल करे तो आप समझना कि इसका सारे-का-सारा दबाव, सारे-का-सारा शिक्षण, सारी-की-सारी गतिविधियाँ केवल हमारे चिंतन को परिष्कृत करने तक शायद सीमित हैं। अंतरंग को परिष्कृत करने तक सीमित हैं। योग में क्या आता है? ध्यान आता है। ध्यान की असंख्य प्रक्रियाएँ आती हैं। ध्यान की असंख्य प्रक्रियाओं में से प्रत्येक को हम कर्मयोग कह सकते हैं। आपने राजयोग का नाम सुना होगा। राजयोग के चार हिस्से शरीर से संबंधित हैं। ये हैं यम, नियम, आसन और प्राणायाम। ये चार शरीर की तपश्चर्या से संबंधित हैं कि शरीर को कैसे स्वस्थ रखना चाहिए। प्राणवायु को हमें कैसे ठीक रखना चाहिए। आहार और विहार के नियमों का हमको कैसे पालन करना चाहिए। ये चार पक्ष तपश्चर्या के हैं। इसको हम तप कह सकते हैं। योग के अन्य चार पक्ष कौन से हैं? प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। बेटे, ये हमारे चिंतन के ऊपर निर्भर हैं। हमारा चिंतन किधर चलना चाहिए? चिंतन को कहाँ लगाना चाहिए? अस्त-व्यस्त चिंतन की रोक-थाम हमें कैसे करनी चाहिए? चिंतन का परिष्कार हमको कैसे करना चाहिए? चिंतन को हमें कहाँ तक ले जाना चाहिए और अपने चिंतन को हमें भगवान में विलय कैसे कर देना चाहिए? ये सारी-की-सारी चिंतनपरक कसरत योग कहलाती है। यह योग आपको सीखना चाहिए। इस योग के सिद्धाँत मैं आपको बताऊँगा। क्रिया तो वही है? जो आपको हम यहाँ कराते हैं। क्रियाओं को फिर किसी दिन बता दूँगा। सायंकाल को हम जो आपको ध्यान कराते हैं, उस ध्यान के पीछे योग के कौन-कौन से सिद्धाँत जुड़े हुए हैं, यह हम किसी दिन आपको समझा देंगे। यहाँ जो क्रियायें हम आपको कराते हैं- व्यायाम से लेकर आसन कराने तक, जप कराने से लेकर तप कराने तक। उसमें से तप का अंश कौन-सा है और योग का कौन-सा तथा यहाँ के बताए हुए शिक्षण को आगे चलकर कैसे बढ़ाना पड़ेगा, यह सब हम आगे चलकर बताएँगे। अभी तो हम उसका मूलभाव समझा रहे हैं और यह बता रहे हैं कि ध्यान क्या है?

ध्यान के दो भाग

मित्रो! ध्यान को हम दो हिस्सों में बाँट देते हैं। एक हिस्सा वह है जो हमारे चिंतन के बिखराव को रोकता है, विचलन को रोकता है। इसको हम क्या कहते हैं? इसका नाम है- एकाग्रता। एकाग्रता किसे कहते हैं? जिसे आप बार-बार कहते हैं कि हमारे मन का निग्रह कीजिए, वस्तुतः वह योग का पहला वाला हिस्सा है। हमारा मन जो चारों ओर भाग-दौड़ करता है, भगदड़ मचाता है, बेसिलसिले चलता है, व्यर्थ की बातों में चलता रहता है, इसको एक सिरे पर ले आना, एक क्रम में ले आना-इसका एकाग्रता वाला भाग है। मन का एक और भाग वह है, जिसे हम काम पर लगा देते हैं, किसी लक्ष्य पर लगा देते हैं। मन का यह दूसरा वाला हिस्सा है। बंदूक में क्या होता है? बंदूक में दो भाग होते हैं। एक का काम यह होता है कि बारूद को और गोली को दोनों चीजों को कारतूस में बंद करके छोटे से दायरे में कैद कर देते हैं। कैद न करें तो? कैद न करें तो बेटे, बारूद चारों तरफ फैल जाएगी और यदि उसे जला दें तो भक से जलकर खत्म हो जाएगी। बारूद के लिए यह पहला काम करना पड़ता है-एकाग्रता का। कारतूस में एकाग्रता अर्थात् बंदूक की लंबी नली में कारतूस और बारूद को एकाग्र करके यह देखते हैं कि यह बहुत देर तक एकाग्रता की दिशा में चले।

अगर बंदूक की नली छोटी हो तब? तब मुश्किल पड़ जाएगी। लंबी नली की विशेषता यह है कि यह गोली को दूर तक फेंक सकती है। पिस्तौल दूर तक नहीं फेंक सकती। इसके लिए उसकी नली लंबी होनी चाहिए। लंबी नली में कारतूस बहुत दूर तक एकाग्र एक दिशा में चला जाता है, इसलिए बहुत दूर तक फेंक सकती है। पिस्तौल ऐसा नहीं कर सकती। पिस्तौल सामने मार सकती है, लंबी दूरी तक गोली नहीं फेंक सकती। उसमें लंबे फेंक कर मारने की गुँजाइश नहीं है। नली लंबी है ही नहीं तो लंबे तक कैसे मार कर सकती है? अतः ध्यान का पहला वाला हिस्सा है- एकाग्रता, जिसको लोगों ने ‘मेडिटेशन’ नाम दिया हुआ है। यह पहला वाला हिस्सा है।

ध्यान योग का दूसरा वाला हिस्सा है- लक्ष्यवेध। अर्थात् हमारा चिंतन किसी लक्ष्य विशेष में लगाया जाए। लक्ष्य विशेष से क्या मतलब है? लक्ष्य विशेष का मतलब यह है कि बंदूक कहाँ चलाई जाएगी और कहाँ मारी जाएगी? इसका निशाना कहाँ लगेगा? कोई निशाना भी तो होना चाहिए। नहीं साहब! निशाने की क्या आवश्यकता, हम तो यों ही हवा में चलाएंगे। तो निशाना नहीं लगाएगा, हवा में बारूद बेकार करता रहेगा? मित्रो! जब कहीं निशाना लगाते हैं, तब उसको कहते हैं- लक्ष्य। ध्यान के दो हिस्से हैं। एक तो हमारा लक्ष्य है कि इसको कहाँ लगाएँ। दूसरा है -निग्रह। यदि मन का निग्रह हम नहीं कर सकेंगे, मन का फैलाव और बिखराव निग्रहित नहीं कर सकेंगे तो हमारे भीतर मनःशक्ति का विकास नहीं हो सकेगा। हमारा मन सामर्थ्यवान नहीं बन सकेगा और सदैव कमजोर ही बना रहेगा।

एकाग्रता की परख

साथियो! हमारा मस्तिष्क, हमारा चिंतन, जो हमेशा बिखराव में व्यस्त रहता है, उसको सी उद्देश्यपूर्ण काम में व्यस्त होना चाहिए, तभी इसमें ताकत आती है और आदमी के खुद के भविष्य का निर्माण होता है। मुझे एक घटना याद आ गई। राजा द्रुपद की बेटी थी द्रौपदी, जो बहुत खूबसूरत और योग्य थी। उसके पिता ने निश्चय किया कि इस लड़की का ब्याह हम किसी ऐसे आदमी से करेंगे, जिसका भविष्य उज्ज्वल हो। कितने भविष्यवक्ता आए, पंडित आए। उन्होंने कहा कि हमें आपकी बात पर विश्वास नहीं है। पहले आप अपना भविष्य बताइए, तब हम आपकी भविष्यवाणी मानेंगे। आपको भविष्य में कब मरना हैं, बताइए? हमें मालूम नहीं, तो फिर आप हमारा मरना कैसे बता सकते हैं? उन्होंने भविष्य बताने वाले सब पंडित वापस कर दिए। तब समझदारों, विद्वानों ने कहा कि फिर यह बताइए कि किस आदमी का भविष्य अच्छा है? इसका सबूत क्या है?

गुरु द्रोणाचार्य ने एक बात बताई कि राजन्! किस आदमी का भविष्य अच्छा है या बुरा है, यह जानने का एक ही तरीका है उस आदमी की अक्ल एक काम पर एकाग्र होती है या नहीं। जिस आदमी की अक्ल बंदर के तरीके से इस डाली से उस डाली पर उचक-मचक करती होगी। ऐसा करेंगे तो यह होगा, वह होगा, न कोई निश्चय है, न कोई संकल्प है, न कोई श्रद्धा है, न कोई इच्छा है, न कोई धारणा है। इसके यहाँ, उसके वहाँ, यहाँ सत्संग, वहाँ अमुक का सत्संग, यह भी शामिल, वह भी शामिल। सब एक-एक जायके खाता रहता है। 32 चीजों का जायकेदार चूरन खाता रहता है। आज इसके यहाँ चलूँगा, कल उसके यहाँ चलूँगा। एक निश्चय नहीं है, जीवन में कोई लक्ष्य नहीं है। जायके तो जीवन में बहुत मिल जाएंगे, पर ऐसी स्थिति में सफलता कहीं नहीं मिलेगी। द्रोणाचार्य ने कहा कि केवल वही आदमी सफल हो सकता है, जो दृढ़ निश्चय वाला हो और जिसका मन एकाग्र हो। एकाग्र मन वाले आदमी का भविष्य अच्छा है, साँसारिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी।

एकाग्रता की परख करने के लिए लकड़ी की एक मछली मंगाई गई। उसे ऊँचाई पर रखे एक चक्र पर घुमाया गया। उसके नीचे तेल का कड़ाह रखा गया और यह कहा गया कि ऊपर की ओर कोई मत देखिए, केवल कड़ाह में देखकर ऊपर तीर चलाइए। मछली की आँख में जो कोई तीर मार देगा, उससे ही द्रौपदी का ब्याह किया जाएगा। बहुत से राजकुमार स्वयंवर में आए। द्रोणाचार्य ने कहा- भाई साहब! तीर चलाने से पहले आप हमारे पास आइए और यह बताइए कि मछली का क्या-क्या आपको दिखाई पड़ता है। किसी ने कहा कि हमको मछली की मूँछ दिखाई पड़ती है, किसी ने कहा-हमको पूँछ दिखाई पड़ती है। इस तरह के लोगों को वे हटाते गए और जब अर्जुन की बारी आयी तो उन्होंने पूछा, “बेटे! तुझे क्या दिखाई पड़ता है?” अर्जुन ने कहा, “हमें केवल मछली की आँख दिखाई पड़ती है।” “अच्छा बताओ, मछली की पलक, मछली का सिर आदि कुछ दिखाई पड़ता है?” उसने कहा, “नहीं, केवल आँख की पुतली दिखाई पड़ती है।” राजा ने हुक्म दिया कि बस यही लड़का निशाना साध सकता है। स्वयंवर की तैयारी की गई। लड़की को तैयार किया। बाजे बजने लगे। अर्जुन ने अपना धनुष उठाया, प्रत्यंचा चढ़ाई और झट से तीर लक्ष्य पर छोड़ दिया। तीर ठीक आँख की पुतली में जा लगा। उसको वरमाला पहना दी गई।

मित्रो! मैं क्या कह रहा हूँ एकाग्रता की बात, जिसका आपको ज्ञान नहीं है। एकाग्रता का न आपने अभी मूल्य समझा, न कभी महत्त्व समझा और न यह जाना कि एकाग्रता के सिद्धाँत का परिपालन करने के लिए क्या करना चाहिए। आप तो हर चीज के लिए कहते हैं कि मम्मी! यह चीज दिला। तो हम क्या करें? तो गुरुजी, आप आशीर्वाद दे दीजिए। आशीर्वाद से नहीं बेटा! तप से, एकाग्रता से जीवन में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ मिलती हैं।

(क्रमशः)


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