वर्तमान समय में मानव जाति और उसकी सहायता एक विकासात्मक संक्रान्ति से गुजर रही है। इसमें उसकी नियति का चयन छुपा हुआ है। यह भले ही बाहरी रूप में सहायता के भीषण संघर्ष के रूप में दिखाई पड़ रहा हो, परन्तु उसके अन्तर में एक नई संस्कृति और सहायता का सृजन का बीज अंकुरित हो रहा है। यह अकाट्य तथ्य है कि विनाश का मंजर जितना बड़ा और व्यापक होता है सृजन की सम्भावना भी उतनी ही प्रबल होती है। हालाँकि विनाश की गति तीव्र होती है और सृजन की चाल धीमी होती है। परन्तु सृजन स्थायी और दृढ़ कदमों के साथ दस्तक देता है। आज विश्व में एक नई सहायता के आगमन की आहट सुनाई दे रही है जो भविष्य में सम्पूर्ण विश्व को एक जाति, एक भाषा और समाज-परिवार में बदलकर रख देगी और इसकी ध्वजा वाहक होगी भारत की आध्यात्मिक एवं सामाजिक संस्कृति जिसमें संवाद और संघर्ष दोनों की सम्भावना है।
आज सहायता ने अनगिन समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं। जितनी सुलझ सकती थी उससे अधिक समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, जिसके समाधान के लिए उसके पास पर्याप्त आधारभूत शक्ति एवं सामर्थ्य नहीं है। सहायता ने दावों और कृत्रिम मूल वृत्तियों का एक जंगल खड़ा कर दिया है जिनमें उलझकर जीवन अपना पथ खो बैठा है और अपने लक्ष्य का उसे कोई आभास नहीं रह गया है। समाज एवं सहायता, द्वन्द्व एवं भ्रम की स्थिति में हैं, जिसका कोई निराकरण एवं समाधान नहीं मिल पा रहा। जो विचार, जो सूत्र प्रस्तावित किये जाते हैं, वे या तो वहीं ठहर जाने की बात करते हैं या फिर पीछे लौटने का सुझाव देते हैं। क्रियान्वित करने का अर्थ है और अधिक भ्रम, ठहराव और हताशा। वैज्ञानिक समाधान सुझाते जाते हैं जिससे अपनाने का तात्पर्य है जीवन और सहायता का मशीनीकरण कर देना। सहायता के समुचित विकास की कोई समग्र दृष्टि कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती। इतिहास गवाह है इस दृष्टि के अभाव में ही सहायता को संघर्ष की विनाशकारी पीड़ा झेलनी पड़ी है। सहायता के संघर्ष की कहानी बड़ी लम्बी एवं रक्तरंजित है।
मुगल सहायता का भारत में आगमन भारतीय सहायता और संस्कृति के लिए एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था। यह सहायता यहाँ बलात् बसने और हिन्दू सहायता को स्वयं में समाहित करने आयी थी। यह सहायता यहाँ पनप तो गयी परन्तु यह शक और हूण के समान न तो यहाँ समा सकी और न हिन्दू सहायता ही इसमें विसर्जित हो पायी। परिणाम स्वरूप मुस्लिम धर्म के आगमन से भारत में संस्कृति की दो धाराएँ बहने लगीं। ये दोनों धाराएँ समानान्तर रूप से चलती हैं। स्थान-स्थान पर वे एक-दूसरे का स्पर्श और आलिंगन भी करती हैं परन्तु वे मिलकर एक नहीं हो पातीं।
मुगलकाल में अकबर एक अपवाद था जिसने मुस्लिम आक्रमण एवं हिंसा की मूल चेतना से हटकर सत्ता की व्यापक साझेदारी एवं समझदारी का उदात्तपूर्ण प्रयास किया था। परन्तु औरंगजेब ने इस सारे प्रयास पर पानी फेर दिया और अकबर का दौर भारत के इस्लामिक सत्ता के चरित्र में अपवाद बनकर रह गया। इसके अपवाद को हटा देने पर इस सहायता का बर्बर एवं हिंसक स्वर उभरकर सामने आता है। गजनबी के उदय के बाद से मुख्य आक्रमण एवं हमले चालू हुए थे। इसके पूर्व सर्वप्रथम सन् 712 में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया था और धर्मांतरण रूपी सहायता के संघर्ष की नींव रख दी थी। बारहवीं शताब्दी के अन्त में मुहम्मद गोरी के महत्त्वाकाँक्षी हमलों ने अन्ततः हिन्दू संस्कृति के महान् ध्वजा वाहक को निर्णायक रूप से पराजित किया और मुस्लिम सहायता की मजबूत नींव उत्तर भारत में रख दी। चौदहवीं शताब्दी के अन्त में तैमूरलंग ने दिल्ली पर भीषण हमला किया। 1526 में बाबर के आक्रमण के पश्चात् भारत में इस्लामिक सत्ता और सहायता का अधिक दृढ़ीकरण एवं विस्तार हुआ।
जब तक भारत में मुगल साम्राज्य एवं सहायता उन्नति के शिखर पर अवस्थित रही, बहुसंख्यक हिन्दू अल्पसंख्यक मुसलमानों की अधीनता में जीते रहे परन्तु इनके पराभव का काल प्रारम्भ होते ही उनमें एक प्रकार की घबराहट एवं भय का भाव जागने लगा। मुसलमानों की राजसत्ता ज्यों-ज्यों हिलती गयी, त्यों-त्यों उनका स्वभाव आवश्यकता से अधिक कोमल एवं नम्र होता गया एवं हिन्दुओं के हृदय का भय भी निकलता गया। इससे इस काल में हिन्दू-मुस्लिम सहायताओं के बीच इतिहास की सर्वाधिक घनिष्ठता बढ़ी। परन्तु यह ज्यादा समय तक स्थिर नहीं रह सकी क्योंकि हिन्दुओं में अपनी संस्कृति के प्रति घोर उपेक्षा तथा मुसलमानों की विलासिता ने दोनों सहायताओं को खोखला कर दिया। इसी बीच पंद्रहवीं शताब्दी से ही यूरोपीय देशों के निशाने पर भारत आ गया।
सिकन्दर के समय (ई.पू. चौथी सदी) यूरोप में भारत एवं भारतीय संस्कृति का नाम काफी प्रसिद्ध था। वहाँ के लोग जानते थे कि भारत धन और ज्ञान दोनों का भण्डार है। इसी प्रसिद्धि ने सिकन्दर को भारत की ओर बढ़ने की प्रेरणा दी थी और इसी कारण वास्कोडिगामा 1498 ई. में कई अरबी मुसलमान के सहारे भारत पहुँचा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना 1600 ई. में हुई। अंग्रेज भारत में मुख्यतः व्यापार के लिए आये थे। आरम्भ में राज्य स्थापना अथवा धर्म प्रचार उनका उद्देश्य नहीं था। परन्तु भारत की दयनीय दुरावस्था के कारण वे हमारी सहायता की छाती पर डटे रहे। इसकी सुन्दर विवेचना अमेरिकी दार्शनिक विल डँयुरो के विचारों में झलकती है। वह कहते हैं ‘भारत विजय का काम धर्म और सहायता के सिद्धान्त से नहीं डार्विन और नीत्से के सिद्धान्त से जायज था। जिस जाति और सहायता में अपना शासन स्वयं चलाने की शक्ति नहीं रहती, जो जाति अपने धन-जन का स्वयं विकास नहीं कर सकती और जिस देश का एक प्रान्त दूसरे प्रान्त को तथा एक जाति दूसरी जाति को बराबरी का दर्जा देने को खुद तैयार नहीं होती, वह जाति और देश उन लोगों का गुलाम होकर रहता है, जिन्हें लोभ की बीमारी और शक्तिमत्ता का रोग है।’
इस प्रकार शक्ति-शौर्य हीन भारत में सन् 1857 ई. तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज्य रहा। तब गदर के रूप में भारत माता का पराक्रम अचानक महाक्रान्ति की मशाल के रूप में जाग उठा। यह हिन्दू नवजागरण का काल था जिसके प्रभाव से अन्ततः 1947 में भारत अपने गुलामी की चादर को उतार फेंका। परन्तु अभी भी उस मानसिकता को उतारना शेष है जिसने भारत माता के जन-जन के हृदय में अपनी संस्कृति और सहायता के प्रति त्याग और बलिदान के भाव ढाँक-ढाँप रखा है। क्योंकि ईसाई, मुसलमान तथा अन्य सहायताओं के समान हमारी सहायता-संस्कृति के दिव्य तत्त्व किताबों में कम अपने व्यक्तित्व में, शरीर के हर रक्त बिन्दुओं में समाये तथा घुले हुये हैं। हमारा प्राण हमारा धर्म है। भारत की विशिष्टता धर्म है। इस देश का प्राण धर्म है, भाषा धर्म है तथा भाव धर्म है। हमारा पवित्र भारत वर्ष धर्म और दर्शन की पुण्य भूमि है। यही संन्यास और त्याग की भूमि है तथा यहीं केवल यहीं आदि काल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन का सर्वोत्तम, आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। इसकी सहायता और संस्कृति सनातन एवं कालजयी है।
राष्ट्र निर्माण के प्रथम मंत्रद्रष्ट स्वामी विवेकानन्द उद्घोष करते हैं कि भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन् आत्मा की शक्ति के द्वारा। वह उत्थान, विनाश की ध्वजा लेकर नहीं वरन् शान्ति और प्रेम की ध्वजा से। वह आगे कहते हैं-’फिर से कालचक्र घूमकर आ रहा है, एक बार फिर भारत से वही शक्ति प्रवाह निःसृत हो रहा है जो शीघ्र ही समस्त जगत् को प्लावित कर देगा। एकमात्र भारत के पास ही ऐसा ज्ञानलोक विद्यमान है जिसकी कार्यशक्ति सच्चे धर्म के मर्मस्थल, उच्चतम आध्यात्मिक सत्य के अशेष महिमान्वित उपदेशों में प्रतिष्ठित है। जगत् के इस तत्त्व की शिक्षा प्रदान करने के लिए ही प्रभु ने इस देश की सहायता-संस्कृति को विभिन्न दुःख कष्टों के भीतर भी आज तक जीवित रखा है।’ वह कहते हैं- ‘मैं अपने मानस चक्षु से सारी भारत की उस पूर्णावस्था को देखता हूँ जिसका इस सहायता रूपी विप्लव और संघर्ष से तेजस्वी और अजेय रूप में उत्थान होगा।’
इस तथ्य को अपने शब्दों में अभिव्यक्ति देते हुए राष्ट्र निर्माता महर्षि अरविन्द कहते हैं-’जब हम भारत के अतीत को देखते हैं तब जो हमारा ध्यान आकर्षित करती है, वह है उसकी विलक्षण ऊर्जास्विता, उसके जीवन के आनन्द की असीम शक्ति, उसकी प्रायः कल्पनातीत भरपूर सृजनशीलता। हजारों वर्षों से वस्तुतः और भी लम्बे समय से वह प्रचुरता से और निरन्तरता से खुले हाथों, अनन्त के साथ सृजित करता आ रहा है। गणतंत्रों, राज्यों और साम्राज्यों की, दर्शनों की, सृष्टि मीमाँसाओं की, विज्ञानों की और पंथों की तथा कलाओं की एवं कविताओं की रचना करता आ रहा है। यह हर प्रकार के स्मारकों, राजमहलों और मंदिरों और लोक निर्माणों, समुदायों, समाजों और धार्मिक व्यवस्थाओं को, कानूनों और संहिताओं और अनुष्ठानों को आयोजित करता आ रहा है। यह भौतिक विज्ञानों, मनोविज्ञानों, योग की प्रणालियों, राजनीति और प्रशासन की पद्धतियों, आध्यात्मिक कलाओं, साँसारिक कलाओं, व्यापारों, उद्योगों, ललित हस्तकलाओं को तथा अन्य अनेकों को सृजित और क्रियाशील करता आ रहा है।’
भारत सृजन करता ही जाता है, करता ही जाता और न संतुष्ट होता है और न थकता है, वह उसका अन्त नहीं करना चाहेगा, विश्राम करने के लिए स्थान की आवश्यकता भी नहीं लगती, न आलस्य अथवा खाली पड़े रहने के लिए समय की। भारत के अपने उपनिषदों के स्वर तथा बौद्धों की उक्तियाँ, ईसा मसीह के ओठों पर पुनः गुँजरित हो उठती हैं। अब वह दिव्य स्वर समस्त लोकचेतना के अन्तर में उठने लगा है। यह सभी प्रतिकूलता, पराजय और संघर्ष से भी अजेय विजय के बल के साथ बढ़ेगा और असहायता तथा अवनति से पुनरुद्धार की महान् ज्योति के रूप में ऊपर उठकर अधिक भव्य जीवन के प्रकाश की ओर जायेगा। यही करने के लिए अब भारतीय सहायता फिर से उठ खड़ी हो रही है जैसा वह अपनी आत्मा की अखण्ड शक्ति में सदैव करती आयी है। आइये हम भारत माता की संतानें सहायता की इस महा मशाल को अपने त्याग और बलिदान से थामें जिससे इसकी महाज्योति समस्त विश्व को आलोकित कर सके।