महाशक्ति को समर्पित एक जीवन

July 2002

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‘दीदी’ अब यही नाम हो गया था उसका। आस-पड़ोस के सब बच्चे उसे ‘दीदी’ कहकर बुलाते थे। बच्चों की देखा-देखी कुछ बड़े भी उसको जब-तब दीदी कहकर बुला लेते थे। पड़ोस के घरों की प्रौढ़वय की महिलाएँ उसे बच्चों की दीदी या स्कूल वाली दीदी के नाम से पुकार लेती थीं। जिन शब्दों से अनेक जन किसी को पुकारते हैं, वही उसका नाम हो जाता है। पुकारने के लिए प्रयोग किए जाने वाले अक्षरों का गठजोड़ ही तो नाम बन जाता है। इस तरह ‘दीदी’ ही उसका नाम था। ठीक-ठीक नाम न भी कहें तो लोक प्रचलित नाम तो था ही। अपने इस नाम के प्रचलन में उसकी मूक सहमति थी।

वैसे उसकी आयु अभी बहुत नहीं थी। बस यही कोई तेईस-चौबीस साल होगी। इकहरा शरीर, दुबली-पतली किन्तु लम्बी कद-काठी, उजले दूध में हल्का सा सिन्दूर मिला दिया गया हो, ऐसा गोरा रंग, बड़ी ही सूक्ष्मता और सफाई से तराशे गए नाक-नक्श उसके समूचे व्यक्तित्व को अतिशय सुन्दर कहने के लिए विवश करते थे। उसके चेहरे पर भोलेपन से लिपटी मासूमियत की बड़ी सम्मोहक आभा थी। बड़ी-बड़ी उसकी आँखों में पवित्रता-पारदर्शिता एवं तेजस्विता का प्रकाश चमकता रहता है। व्यक्तित्व के इस बाहरी देह कोश के घनीभूत सौंदर्य से कहीं अधिक सघन सुन्दरता उसके विचारों एवं भावनाओं में थी। पवित्र-उत्कृष्ट एवं प्रखर विचार, सुकोमल संवेदनशील भावनाएँ बरबस ही सबको अपना बना लेती थी। सब उसके अपने थे भी। वह भी सबकी अपनी थी।

हर एक काम में हाथ बंटाना उसके स्वभाव में था। लेकिन उसका सबसे प्रिय बच्चों को पढ़ाना, उन्हें शिक्षा और संस्कार देना था। यह करने में उसे एक गहरा आत्मिक सुख मिलता था। बच्चों के माता-पिता उसके गुणों से अभिभूत होकर उस पर अगाध विश्वास करते थे। बच्चों के बारे में उसकी सलाह के बिना किसी का काम न चलता था। उसका परामर्श सर्वोपरि था। एक तरह से वही आस-पड़ोस के सब बच्चों की अभिभावक थी। बच्चे भी अपनी दीदी के प्रति प्रेम से भरे थे। दीदी उन्हें कहानी सुनाती, होमवर्क कराती, खाने-पीने की चीजें देती और सबसे बढ़कर अपना भरपूर प्यार उन पर न्यौछावर करती। इन बच्चों के लिए उनकी दीदी सब कुछ थी और दीदी के लिए ये बच्चे सब कुछ थे।

इन बच्चों के सिवा उसका कोई अपना न था। माता-पिता बहुत बचपन में चल बसे थे। माँ का किसी गम्भीर बीमारी के कारण देहान्त हो गया था। तब वह बहुत छोटी थी। उसको माँ के बारे में ज्यादा कुछ याद नहीं। बस इतना याद है कि उसने पिता जी से जब माँ के बारे में जानना चाहा तो उनकी आँखें भर आयीं थी। वह कुछ बोल नहीं सके, बस आँसू उनकी अंतर्कथा और अन्तर्व्यथा कहते रहे। उस दिन सब मौन में समा गया। पर अगले दिन वह उसकी नन्हीं सी उंगली थाम कर पूजा के कमरे में ले गये। पूजा की अलमारी में रखी हुई एक तस्वीर को दिखाते हुए बोले, बेटी! यही माँ है, हमारी माँ है, सारे संसार की माँ है। न जाने किस अनजानी प्रेरणा से उसने उस दिन पूछ लिया था- माँ का नाम क्या है? उत्तर में पिता का बहुत गहरे दर्द में सना स्वर उभरा- ‘गायत्री’।

बाकी अपनी इस अनोखी माँ की कथा उसने पुस्तकों में पढ़ी। जगत्माता की वह सगी बेटी बन गयी। बालमन जब-जब माँ के लिए तड़पता, वह सृष्टि की आदिमाता के चित्र के सामने बैठकर रो लेती। कभी-कभी तो इसी तरह रोते-रोते सो जाती। पर जब जगती तो एकदम तरो-ताजा होती। बाद में एक दिन उसने पिता को बताया- कि तस्वीर वाली माता उसके स्वप्न में आती है। बहुत सारा प्यार करती है, कहती है तुम मेरी अपनी बेटी हो। सुनकर पिता की आँखें एक बार फिर उमड़ी- लेकिन इस बार भी वह मौन रहे। पढ़ते, घर का काम करते इसी तरह दिन-महीने-वर्ष बीते। तभी एक दिन पिता छोड़ कर चले गए। उसे तो ज्यादा कुछ पता ही नहीं चला, बस उस समय इतना मालूम हुआ था कि सोए हुए पिता जगे नहीं। पड़ोस के लोगों ने जब डॉक्टर को बुलाया तो उसने- ‘नो मोर’ कह दिया। उस दिन वह बहुत रोयी-बिलखी थी। माता-गायत्री की तस्वीर के सामने बैठकर बहुत उलाहने दिए थे। पर माँ ने स्वप्न में आकर उसे पता नहीं क्या समझाया कि वह एक बार फिर से मुस्करा पड़ी।

तब से किसी ने उसे कभी रोते हुए नहीं देखा। कोई करीबी रिश्तेदार था नहीं, उसने भी किसी का द्वार खटखटाना उचित नहीं समझा। पैतृक मकान था, बैंक में कुछ रुपया था। मदद करने के लिए जगन्माता के अदृश्य हाथ थे। उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी। वेदमाता गायत्री के प्रति समर्पित उसके जप-तप ने उसे प्रखर मेधा का वरदान दिया था। विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय सभी स्तर पर उसे छात्रवृत्ति मिलती रही। एम.एस-सी. (वनस्पतिशास्त्र) में प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम स्थान पाकर वह उत्तीर्ण हुई। विश्वविद्यालय में उसे सर्वोच्च अंक मिले थे। इसी के साथ उसने सी.एस.आई.आर. द्वारा आयोजित की जाने वाली शोध छात्रवृत्ति की परीक्षा भी सर्वश्रेष्ठ अंकों से उत्तीर्ण की थी। और अब वह अपने ही विश्वविद्यालय में वनौषधियों पर कुछ विशेष शोध कार्य कर रही थी।

ये तो उसकी पढ़ाई-लिखाई के काम थे। इसके अलावा ढेरों काम ऐसे थे- जो वह पड़ोसियों के लिए, बच्चों के लिए करती थी। पड़ोस के बुजुर्ग अपने घरों में उसका उदाहरण देते हुए कहते थे- देखना है तो ‘तृप्ति’ को देखो। बनना है तो उसके जैसा बनो। कितनी शिष्ट-शालीन और सौम्य है। कर्मठता तो उसमें कूट-कूट कर भरी है। न कभी किसी से झगड़ा, न कभी किसी से शिकायत। अपने काम में जुटी रहती है। दूसरों के भी दस काम कर देती है। ऊपर से पूजा-पाठ करने के लिए समय भी निकाल लेती है। पढ़ाई-लिखाई में अव्वल है ही। बुजुर्गों द्वारा की जाने वाली इस प्रशंसा में अतिशयोक्ति तनिक भी न होती थी। पर वह स्वयं अपने इन सभी गुणों से अनजान थी। अपने बारे में स्वयं प्रशंसा करना या दूसरों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनना उसे एकदम पसन्द न था।

उसको सबसे ज्यादा पसन्द था, बच्चों को पढ़ाना, उन्हें सिखाना। आस-पास के सभी बच्चे अपनी दीदी के प्रभाव से बहुत कुछ सीख गए थे। प्रातः जल्दी उठना, नित्यकर्म से निवृत्त होकर नियमित गायत्री महामंत्र का कम से कम एक माला जप करना, माता-पिता और अपने बड़ों के रोज प्रातः चरण स्पर्श करना उन सबकी नियमित आदत बन गयी थी। सबने अपने पढ़ने और खेलने का समय निश्चित कर लिया था। यह सब किसी भय से नहीं प्रेम से हुआ था। दीदी बच्चों को कभी भी नहीं डाँटती थी। डाँटना तो जैसे उसे आता ही नहीं था। बस जब कभी बच्चों के किसी काम में कोई कमी दिखाई देती, तो वह उन्हें कुछ भी न कहकर बस अपनी कमी निकालने लग जाती। थोड़ा सा गम्भीर होकर कहने लगती- मुझमें ही कुछ कमी होगी। मैं ही नहीं तुम लोगों को ठीक से समझा पाती हूँगी। बच्चे अपनी दीदी की इन बातों से परेशान हो जाते थे। वे बार-बार वायदा करते कि अब किसी भी तरह से कोई गलती नहीं होने देंगे। उन्हें अपनी दीदी को थोड़ा सा भी दुःखी करना बिल्कुल भी मंजूर नहीं था।

दीदी भी बच्चों को मुस्कराते हुए देखना चाहती थी। लेकिन साथ ही उसकी यह भी चाहत थी कि बच्चे उच्चस्तरीय भावों में जिए। उनकी क्रिया में उनके विचारों की उत्कृष्टता एवं भावनाओं की सरलता हर तरह से झलके। इसके लिए उसने बच्चों से व्रत लिया था कि वे पूरे दिन में कोई न कोई एक अच्छा काम जरूर करेंगे। यह अच्छा काम पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद या नियमित उपासना से अलग था। इसका मतलब था किसी की सेवा करना, किसी को सहायता पहुँचाना, किसी रोते हुए को हंसाना, किसी दुःखी जन को सुखी करना। बच्चे अपनी दीदी को सुखी करने के लिए दिन भर में एक न एक कोई अच्छा काम अनिवार्य रूप से कर लेते थे। कभी तो किसी बीमार को दवा लाकर देते, या फिर कभी उसकी कोई अन्य सेवा करते। कभी किसी वृद्ध या वृद्धा को सड़क पार करा देते। फिर प्रसन्नता से अपनी दीदी को अपने किए हुए कामों का ब्योरा देते।

छुट्टी के दिनों में बच्चों की दीदी बच्चों के खेलकूद में भागीदार होती। उनके लिए खासतौर पर लिखी गयी छोटी-छोटी कविताएँ सुनाती। अब तो बच्चों को ये कविताएँ रट गयी थी। वे सब मिलकर गाते थे-

जागो रे जागो, अब हुआ भोर, अब हुआ भोर डूबे प्रकाश में, सब दिशा छोर आयी जगने की नयी प्रात तुम रहो स्वच्छ मन, स्वच्छ गात निद्रा छोड़ो रे गयी रात उज्ज्वल जीवन, उजली प्रभात! कभी-कभी उनकी दीदी उन्हें सिखाती थी- गा रही मैं, गुनगुनाना सीख लो तुम, आँधियों में झिलमिलाना सीख लो तुम।

एक अकेली लड़की क्या-क्या करती है? क्या-क्या कर लेती है- देखकर लोग हैरत से हैरान हो जाते। टी.वी. सिनेमा, पॉप म्यूजिक के युग में एक नहीं अनेक बच्चों का उपासना, अध्ययन एवं सेवा में जुटे रहना किसी बड़े से बड़े अचरज से कम बड़ा नहीं था। पर वह स्वयं इसे आश्चर्य नहीं मानती थी। उसका कहना था कि सच्ची बात भले ही देर से समझ में आए, लेकिन जब आ जाती है तो न भूलती है, न छूटती है। फिर बच्चे तो वैसे भी बहुत समझदार होते हैं, बस उन्हें प्यार और धीरज से समझाने-बताने की जरूरत है। फिर तो वे ऐसे पक्के हो जाते हैं, कि कुछ पूछो मत। लेकिन बस एक बात है, उन्हें समझाने वाला वैसा स्वयं करें। बच्चों की एक बहुत खास बात है- वे देखकर सीखते हैं, सुनकर नहीं। उन्हें कितनी भी अच्छी बातें सुनाओ, उनके कुछ ज्यादा पल्ले नहीं पड़ती। लेकिन थोड़ा सा करके दिखाओ, फटाफट समझ में आ जाता है।

बेटी, तुम्हें कभी कोई इच्छा नहीं होती? तुम्हें कभी कोई चाहत नहीं होती? यदा-कदा पड़ोस की प्रौढ़-बुजुर्ग महिलाएँ व पुरुष उससे पूछ लेते। जवाब में वह हंस कर कहती- होती है, होती क्यों नहीं? पर मेरे पास एक कल्पवृक्ष है, जिससे सब कुछ मिल जाता है और प्रायः बिना माँगे मिल जाता है। ज्यादा पूछने पर वह उन्हें चौबीस अक्षरों वाला गायत्री मंत्र सुना देती। गायत्री मंत्र की चमत्कारी सामर्थ्य उसके अपने जीवन में प्रत्यक्ष थी। माता के आँचल की छाया में वह कितनी सुखी-प्रसन्न थी, इसे सब देख रहे थे। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? लोगों को मानने पर विवश होना पड़ता। उसकी प्रत्यक्ष अनुभूतियों की वेगवती धारा ने अनेकों को अपने में बहा लिया था। गायत्री महामंत्र के अनुष्ठान के प्रति अनगिन लोगों की श्रद्धा प्रबल और प्रगाढ़ हो चली थी।

उसके मन में कोई चाहत नहीं बची थी। सतत् गायत्री साधना से उसका चित्त निष्कल्मष हो गया था। यदि कभी भी उससे कोई उसके भविष्य के बारे में पूछता तो वह हंस देती। इस हंसी में बहुत कुछ होता था। एक रहस्य, आत्मा से उपजी प्रसन्नता का उजलापन, आध्यात्मिक जीवन की जगमग ज्योति सभी कुछ इसमें घुले-मिले थे। उसकी रहस्यमयी हंसी के बारे में सबको तब पता चला, जब वह एक दिन देर तक अपने घर से बाहर नहीं आयी। बच्चे उसका हाल मालूम करने गए, देखा उनकी दीदी अपने पूजा वाले कमरे में पूजा वेदी के सामने पद्मासन पर बैठी है। पर न जाने क्यों आज उसका सिर माता गायत्री के चित्र के सामने पूजा की चौकी पर टिका है। बच्चे थोड़ा चौंके, घबराए, उन्होंने अपने-अपने माता-पिता को भाग कर बताया। सभी लोग दौड़े हुए आए। कुछ ने चिकित्सक को भी बुला लिया था।

थोड़ी ही देर में सभी को सत्य पता चल गया। सबने जान लिया कि बच्चों की दीदी के प्राण माता गायत्री में विलीन हो गए थे। प्राणों (गय) का त्राण करने वाली (त्री) माता ने अपनी बेटी के प्राणों का त्राण कर दिया था। आदि माता अपनी पुत्री को अपने आँचल में छुपाकर मुस्करा रही थी। बच्चों के साथ वृद्धजन भी एक बारगी बिलख उठे। हालाँकि थोड़ी देर बाद बच्चों से सबको पता चला कि दीदी ने उन्हें पहले ही बता दिया था कि थोड़े ही दिनों में वे अपनी माँ के पास चली जाएँगी। लेकिन तभी बच्चों को याद आया कि दीदी ने उनसे कहा था कि वे उनके लिए अपना सन्देश छोड़ जाएँगी। सबने पूजा चौकी पर उलट-पुलट कर देखा। एक कागज के टुकड़े पर दो पंक्तियाँ लिखी थीं-

एक फूल झरता है, तो हजार खिल जाते हैं। एक द्वार बन्द होता है, तो हजार खुल जाते हैं॥

सचमुच ही दीदी के द्वारा गढ़े गए बच्चे- हजार फूलों, हजार द्वारों की तरह खिल-खुल रहे थे।


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