गुरु और शिष्य का सच्चा मिलन

July 2002

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गुरुपूर्णिमा पर्व नजदीक था। वर्षा की हल्की फुहारों से प्रकृति रसमय हो रही थी। ग्रीष्म का आतप कब का वाष्प बनकर विलीन हो गया था। धरती की माटी में पड़े हुए बीज शायद अब अंकुरण की तैयारी में लग गए थे। बाहर के इस वातावरण का शिष्य-साधक के अन्तःकरण से अद्भुत मेल था। साधक के अन्तःकरण को भी गुरुकृपा की अमृतवृष्टि होने तक कठिन तप से तपना पड़ता है। लेकिन गुरुकृपा की हल्की फुहारें पड़ते ही उसकी समूची आन्तरिक प्रकृति रसमय हो जाती है। साधना के बीज उसके अन्तःकरण की उर्वर भूमि में अंकुरित होने की तैयारी करने लगते हैं। गुरुकृपा आध्यात्मिक जीवन के प्रत्येक रहस्य को खोलने वाली दिव्य शक्ति है। गुरुदेव की कृपा से सारे असम्भव सम्भव हो जाते हैं। शास्त्र यही कहते हैं, ऋषि वचनों से यही प्रमाणित होता है। अनुभवी साधक, सन्त, सिद्धगण, आध्यात्मिक विभूतियों से सम्पन्न महापुरुष सभी का यही मत है। पर यह गुरु कृपा हो कैसे?

इस महाप्रश्न की हलचलों को शायद अन्तर्यामी परम पूज्य गुरुदेव ने अनुभव कर लिया। अखबार पढ़ते हुए वह हल्के से मुस्कराए और फिर से अखबार के पन्नों में अपनी नजर टिका दी। ये वर्ष 1987 ई. के दिन थे। मार्च महीने की नवरात्रि से गुरुदेव ने ब्रह्मवर्चस के लोगों को लेखन सिखाना शुरू किया था। सभी की बंटी हुई पारियाँ थीं। एक समूह में तीन या चार लोग थे। प्रत्येक समूह के लोगों को अपनी पारी में गुरुदेव के पास जाना पड़ता था। हर एक समूह की सप्ताह में दो पारी होती थी। सब लोग पुस्तकालय में पढ़ते, उपयुक्त अंशों को खोजते और बाद में जैसा भी बन पड़ता उसे लेखबद्ध करते। इस तरह लिखे गए लेखों को गुरुदेव सुना और सुधारा करते थे। उनकी टिप्पणियाँ बड़ी मार्मिक होती थीं। इस समूचे क्रम में महत्वपूर्ण लेख या लेखन नहीं था। महत्वपूर्ण होता था उन्हें सुनना, विभिन्न विषयों पर उनके विचारों से परिचित होना।

यदा-कदा लेखों से हटकर भी वह कुछ बताया करते थे। ये क्षण बड़े ही अनुभूति पूर्ण और दिल को छूने वाले होते थे। ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ कि मन में उठ रहे प्रश्नों व उद्वेलनों को अन्तर्यामी-कृपालु गुरुदेव ने जान लिया। और उनका समाधान करते हुए अपने जीवन के कुछ संस्मरण कह सुनाए। आज भी उन्होंने हाथ के अखबार को सोफे के पास रखी हुई छोटी टेबल पर रखा। सोफे से उठे और धीमे किन्तु दृढ़ कदमों से चलकर पास में पड़े हुए अपने तखतनुमा पलंग पर आकर बैठ गए। उनकी आँखों में करुणाजन्य आर्द्रता एवं तप की प्रखरता के बड़े ही अद्भुत स्वरूप की झलक थी। होठों पर प्रायः उपस्थित रहने वाला मधुर हास्य था। उनके समूचे मुखमण्डल पर आज यही तेजस्विता और मधुरता विकीर्ण हो रही थी।

उन्होंने पलंग पर बैठते हुए- अपने सामने टाट पर बैठे हुए लोगों से पूछा- क्यों लड़कों, क्या सोच रहे हो तुम लोग? सोचने वाला इस तरह पूछने पर एकदम अचकचा गया। उसे सूझा ही नहीं कि वह क्या कहे। बस मन में आया कि गुरुदेव स्वयं ही बता दें, कि गुरु कृपा कैसे होती है? कैसे मिलती है? गुरु का प्रिय बनने के लिए क्या करना पड़ता है? ये सारे प्रश्न सोचने वाले के मन के दरवाजे पर सहमे-ठिठके खड़े थे। सभी एक-साथ बाहर आना चाहते थे। सभी को अपने समाधान से मिलने की चाह थी। पर कोई भी प्रश्न इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। एक-दूसरे की ठेल-पेल में सत्ती प्रश्न वहीं के वहीं रह गए। लेकिन मन में आपस में ही धक्का-मुक्की करते हुए प्रश्नों के इस हाल को गुरुदेव ने अनुभव कर लिया।

उनके होठों पर हल्की मुस्कान आ गयी। वह कहने लगे- प्रकृति कभी किसी सत्पात्र को वंचित नहीं करती है। अब देखो धरती सूरज के तप में तपी तो बरसात आ गयी। जिन्दगी में भी कुछ ऐसा ही है। तप से पात्रता मिलती है और पात्रता से अनुदान मिलते हैं। ‘गुरु कृपा के लिए क्या करना पड़ता है?’ पूछने वाले ने गुरुदेव को प्रसन्न भाव से बोलते हुए देखकर हिम्मत जुटायी। ‘शिष्य बनना पड़ता है।’ गुरुदेव बोले। अपने अन्दर शिष्यत्व पनप गया हो, तो गुरुदेव अपने आप ही उसे ढूंढ़ते हुए आ जाते हैं। स्वयं न भी आए तो ऐसे शिष्य को अपने पास बुला लेते हैं। रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द से इसी तरह मिले थे। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को उसके घर के पास जाकर ढूंढ़ लिया था।

फिर धीरे से बोले- बेटा! मेरे गुरु भी मुझे ढूंढ़ते हुए चलकर मेरे घर आए थे। इसके लिए मुझको बाहरी तौर पर कुछ भी नहीं करना पड़ा। बस जब से मैंने होश संभाला, अपने अंतर्मन को भगवान की ओर, आदर्शों की ओर लगाता गया। मन को इस बात के लिए पक्का किया, संसार की वासनाओं, कामनाओं के पीछे नहीं भागना है। जिन्दगी भगवान के लिए जीनी है। भगवान सब के मन की बात जानते हैं। उन्होंने मेरे मन की बात भी जान ली। और अपने प्रतिनिधि के रूप में गुरु को मेरे पास भेज दिया। उन्होंने आते ही मेरे ऊपर कृपा उड़ेल दी। तब से लेकर आज तक हर रोज-हर दिन उनकी कृपा की वर्षा थमने का नाम ही नहीं लेती। मैं लेते-लेते भले थक जाऊँ, पर वे देते-देते नहीं थकते।

इसके लिए आपको क्या करना पड़ा? पूछने वाले की भावनाओं में व्याकुल आतुरता थी। वह अन्तःकरण में शिष्यत्व को उपजाने वाले रहस्यमय ज्ञान को जान लेना चाहता था। गुरुदेव भी आज करुणा के साकार रूप बनकर शिष्यत्व का मर्म बताने के लिए तैयार थे। उन्होंने पूछने वाले की ओर गम्भीर नजरों से देखा, फिर कहने लगे- मैंने गुरु को कभी भी भगवान से अलग नहीं जाना। मेरा गुरु ही मेरे लिए भगवान है। इस बात को मैंने केवल कहा और सोचा नहीं, बल्कि पल-पल, उम्र भर जिया। अपने गुरु की कृपा, सामर्थ्य एवं प्रेम पर इस तरह से विश्वास किया, जैसे कोई दुधमुँहा बच्चा अपनी माँ पर करता है। गुरु को ही अपना सब कुछ मान लिया। वही मेरे जीवन आधार बन गए।

बेटा, एक बात मैंने और की, मैंने अपने गुरु से कभी भी कुछ नहीं माँगा। उनके चरणों पर अपने को लुटाकर स्वयं को धन्य माना। जिस दिन से मुझे मेरे मार्गदर्शक मिले, उस दिन से मैंने अपनी चिन्ता छोड़ दी। अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य सब कुछ उनके हाथों में सौंप कर निश्चिंत हो गया। मेरा कब क्या होगा? न कभी इसकी चिन्ता की, न परवाह की और न इसके लिए कभी परेशान हुआ। मन में सदा एक सरल विश्वास रहा मेरे गुरुदेव, जो कुछ भी मेरे लिए आवश्यक समझेंगे, वह अपने आप ही कर देंगे। मुझे अलग से कुछ करने और सोचने की भला क्या जरूरत है। यदि मन में कभी कोई चाहत आयी, तो वह यही थी कि मैं गुरुदेव की हर कसौटी पर खरा उतरूँ। उम्र भर उनका सच्चा शिष्य एवं सेवक बना रहूँ।

मेरी यही भावनाएँ गुरुकृपा के लिए चुम्बक बन गयी। गुरुकृपा के बादल चारों ओर से उमड़-घुमड़ कर आते रहे और मेरे ऊपर बरसते रहे। धीरे-धीरे मेरा हृदय, मेरा अन्तःकरण मेरे गुरुदेव का घर बन गया। यह कहते हुए गुरुदेव थोड़ा सा भावुक स्वर में बोले- ‘अब तो बेटा स्थिति यह है कि मैं अपने में कहीं अपने को खोज ही नहीं पाता। मेरे गुरुदेव ही मेरे रोम-रोम, मन, प्राण, जीवन में समाए हैं। वही सब कुछ बन गए हैं। वही नियन्ता हैं, वही सूत्रधार हैं, वही संचालक हैं, जीवन में जो कुछ है, सो वही हैं।’ गुरुदेव के इन उद्गारों में उनकी प्रगाढ़ भावनाओं का उजाला था। एक अलौकिक चमक थी जो बहुत ही साफ अनुभव हो रही थी।

कहते-कहते, उनका स्वर बदल गया। इसमें वेदना की कसक उभर आयी। वह गम्भीर होकर बोले- ‘बेटा, मैं भी तुम लोगों के लिए बहुत कुछ करना चाहता हूँ, पर चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता। क्योंकि तुम सबने अपने द्वार-दरवाजे बन्द कर रखे हैं। जिधर से घुसने की कोशिश करो, उधर ही अहं का पहरा नजर आता है। हर तरफ क्षुद्रताएँ एवं संकीर्णताएँ रास्ता घेरे हैं। जब कभी सूक्ष्म रूप से तुम लोगों की बातें सुनता हूँ तो हल्केपन के सिवा कुछ नजर ही नहीं आता है। यदि तुम यह चाहते हो कि तुम्हारी जिन्दगी में भी वैसे ही चमत्कार हों, जैसे कि मेरी जिन्दगी में हुए, तो फिर शिष्य बनो। इस तरह पास बैठना, मिलना भी कोई पास होना या मिलना है। सच्चा मिलना तो वह है, जब शिष्य की अन्तर्चेतना अपने गुरु के अन्तर्चेतना से मिलती है। समर्पण, विसर्जन एवं विलय की अनुभूति पाती है। तब आती है जीवन में पूर्णता, तब पता चलता है गुरु पूर्णिमा का मानी-मतलब।’ गुरुदेव के इन स्वरों में उनका शाश्वत प्राण है। इन्हें जीवन में विचार बनाकर नहीं कर्म कौशल बनाकर उतार पाए तो ही समझें कि हमने इस गुरु पूर्णिमा में उन्हें भक्ति पूर्ण रीति से प्रणाम किया। गुरु पूर्णिमा का सच्चा मतलब समझा।


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