पावन पर्व समर्पण का (Kavita)

July 2002

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‘गुरुपूर्णिमा’ पर्व नहीं है, केवल गुरु-गुणगान का। यह है पावन-पर्व समर्पण का, शिष्यत्व प्रमाण का॥

विश्वमित्र, वसिष्ठ न रीझे थे केवल गुणगान से। चाणक्य, रामदास भी रीझे थे शिष्यत्व-प्रमाण से॥ गुरुता सिर्फ वरण करती है, जीवट वाले प्राण का। ‘गुरुपूर्णिमा’ पर्व नहीं है, केवल गुरु-गुणगान का॥

शिष्य समर्पण जब करता है, बला-अतिबला मिलती है। गुरु के संकल्पों को पूरा कर जाने में जुटती है॥ गुरु का दरद बना करता है, दरद शिष्य के प्राण का। ‘गुरुपूर्णिमा’ पर्व नहीं हैं, केवल गुरुञ-गुणगान का॥

फिर न सूझता स्वार्थ शिष्य को, दिखाता गुरु-संकल्प ही। पथ से नहीं डिगा पाता है, फिर तो कोई विकल्प भी॥ शक्ति स्त्रोत झरता रहता है, गुरु के भी अनुदान का। ‘गुरुपूर्णिमा’ पर्व नहीं है, केवल गुरु -गुणगान का॥

गुरुवर का संकल्प, सुनिश्चित नवयुग का निर्माण है। पीड़ा, पतन, ग्रसित जगती का, त्रय तापों से त्राण है॥ ‘गुरुपूर्णिमा’ संकल्प पर्व है, जन-जन के कल्याण का। ‘गुरुपूर्णिमा’ पर्व नहीं है, केवल गुरु-गुणगान का॥

-मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’

*समाप्त*


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