मीनल की कहानी

July 2002

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क्या आप मीनल से परिचित हैं? जवाब में शायद आप सवाल करेंगे- यह मीनल कौन? आपका यह सवाल बिल्कुल वाजिब है। यहाँ पर मीनल की बजाय सोनल या रूपल के बारे में बात की गयी होती तब भी आप कुछ इसी तरह अपनी जिज्ञासा जताते। चलिए कोई बात नहीं, उसका नाम कल्पना, कामना, सरिता, सरस्वती कुछ भी हो सकता है। वह तो बस भारत देश की है। इसी देश के किसी शहर या गाँव की रहने वाली है। उसे थोड़ा बहुत जानने के बाद मन दर्द से बेचैन हो उठा। हो सकता है उसके बारे में कुछ सुनने के बाद आपको भी उसकी टीस और कसक का अहसास हो सके।

तो, मीनल छब्बीस-सत्ताईस साल की, दुबलेपन के निजी सौंदर्य में पगी स्त्री है। हालाँकि उसकी उम्र इतनी लगती नहीं। शायद उसका विवाह हो गया होता, गृहस्थी बस गयी होती, तो हो सकता है वह कुछ भरी-पूरी लगती। उसके चेहरे पर अब तक तृप्ति की आभा तैर रही होती। पर अब तो वह कुछ गुम-सुम सी, अपनी अंतर्संवेदनाओं में डूबती-तैरती, कामकाज की कर्मठता में थोड़ा भूली-बिसरी सी लगती है। कपड़े वह बहुत ही सलीके से पहनती है, पर होते ये बेहद सादे हैं। जो महंगे वस्त्रों को ही सुन्दर कहने व समझने के आदी हैं, उन्हें शायद उसके कपड़े ढंग के न लगे। वैसे उसकी इस सादगी के संवरेपन में बहुत कुछ ऐसा झलकता है, जो उसके भावुक, हुनरमन्द, घर-गृहस्थी के कामों में कुशल, सेवा भावी, बुद्धि-विवेक से सम्पन्न होने की बात बता ही देता है। जिसके अन्दर थोड़ी सी भी मानवीयता अभी कहीं किसी कोने में बची हुई है, वे उस पर एक नजर डाल कर उदास हो जाते हैं। उनकी यह उदासी प्रायः खुद की इस असहायता के अहसास के कारण होती है कि मैं इस सम्भावनाशील लड़की के लिए कुछ नहीं कर पा रहा हूँ।

उम्र के तीसरे दशक को पूरा करने के लिए हर साल कदम-दर-कदम बढ़ाने वाली इस लड़की को यदि अनुकूल परिस्थितियाँ मिली होती, तो उसके व्यक्तित्व की न जाने कितनी सम्भावनाएँ उजागर हो गयी होती। प्रतिभा के हिसाब से यदि उसे पढ़ने की सुविधाएँ मिलती, तो वह एक अतियोग्य चिकित्सक, कुशल वैज्ञानिक या फिर आसमान की ऊँचाइयों को छूने वाली पायलट अथवा एम.बी.ए., सी.ए. कुछ भी हो सकती थी। यह भी हो सकता था कि उसके पिता किसी समृद्ध घराने में उसकी शादी कर देते। पर ऐसा हो नहीं सका। दुःखों, दुर्घटनाओं, कष्टों, कठिनाइयों, कृपाओं, असुविधाओं और अनचाहा जीवन जीने के लिए भी कठिन संघर्षों में, जिसे बचपन से अब तक की उम्र तय करनी पड़ी हो, उसकी भावनाओं को तो ठीक-ठीक शायद भावमय भगवान ही समझें।

हालाँकि मीनल की असली पहचान वह नहीं है, जिसके खुरदरे हस्ताक्षर काल ने उसके जीवन पर बनाए हैं। यह सब तो उस राह की परछाइयाँ भर हैं, जिस पर उसे नंगे पाँव चलने के लिए विवश होना पड़ा है। इस बारे में तो अनुभवी जन बड़ी विनम्रता से यह भी कह देते हैं कि वास्तव में यही कठिनाइयों का अखिल भारतीय मार्ग है। जिस पर चलने से पाँव में छाले पड़ ही जाते हैं। जो रिसते हैं, फूटते हैं, टीसते हैं, लेकिन उसी रफ्तार से नए बनते रहते हैं। हालाँकि सरकारी आँकड़ों के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे का जीवन गुजारने वालों की संख्या लगातार घट रही है। हो सकता है ये सरकारी बातें पूरी तरह से सच हों, पर इन्हीं के साथ एक सच यह भी है कि मानवीय चेहरों से खुशी लगभग गायब सी है। शायद यह खुशी आह्लाद और सन्तुष्टि भारत देश में तब थोड़ा व्याप्त थी, जब पहले-पहल अंग्रेज इस देश में आए थे। लेकिन मीनल के मन में पीड़ा के घन कुछ ज्यादा ही सघन है। उसकी कथा, उन असंख्य भारतीय नारियों से मेल खाती है, जिसके बारे में विवेकानन्द बिलख उठते थे, गाँधी जी जिसकी अनुभूति से छटपटा जाते थे। हालाँकि इस मीनल की कथा में कुछ और भी तत्त्व हैं, जो इस प्रभूत मात्रा में और इस प्राञ्जलता के साथ हर कहीं नहीं मिल पाते।

मीनल की वेदना से भीगी और स्वाभिमान से चमकती आँखों की भावुक तरलता में भारतीय नारी जीवन की एक पूरी पुस्तक समायी है। उसकी भावुक तरलता की प्रत्येक बूँद इस पुस्तक का एक पन्ना है। इस पुस्तक के बहुत से पन्नों को पढ़ने और उससे ज्यादा पन्नों को पढ़ने का साहस न कर पाने के बाद मन में एक अलग और खास तरह के विचलन का अनुभव होता है। जो इस भयावह भूचाल जैसे विचलन को महसूस नहीं कर पाते, शायद उन्हीं के लिए क्रूरता जैसा शब्द गढ़ा गया होगा।

मीनल की सादगी व सरलता के हर कण में उसकी बौद्धिक सजगता व प्रखरता झलकती है। उसमें व्यावहारिक बुद्धि भरपूर है। वह किसी भी परिस्थिति या घटनाचक्र के तार्किक ब्यौरे को आत्मसात करने में उतना ही समय लगती है, जितना की पलकों को एक बार उठाने या गिराने में लगता है। इसका एक कारण तो यह है कि जब उसने अपनी आस-पास की स्थितियों, घटनाक्रमों के प्रति होश सम्भाला है, तब से कई तरह के लोग और कई तरह की परिस्थितियाँ उसके सामने कई तरह की पृष्ठभूमि की नयी-नयी पोशाक बदल कर आती रही है। इसका मतलब यदि केवल यह लगाया जाय कि उसने अब तक केवल मनुष्यता का कृष्णवर्णीय छुद्र चेहरा देखा है, तो बात ठीक से समझी नहीं गयी। उसने बड़े-छोटे और मझोले आकार के देवमानव भी देखे हैं। यदि ऐसा न होता तो शायद अपनी भारत माता की गोद में बसे इस शहर या गाँव में वह इतना लम्बा अरसा न गुजार पाती।

पेंशन से गुजर-बसर जुटाने वाले बूढ़े पिता और छोटे-छोटे दो भाइयों की समय-कुसमय मदद कैसे कर पाती? दुःख के सघन घन हमारी अन्य क्षमताओं को कितना माँज पाते हैं, मालूम नहीं। पर बुद्धि को धारदार और पैना बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। खासतौर से जब इन दुःखों से मुलाकात छुटपन से ही शुरू हो जाय। यह बात मानी जा सकती है कि ये व्याख्याएँ एकदम पूरी तरह से ठीक नहीं हो सकती। क्योंकि कई बार बहुतेरे लोग दुःखों के बीच अपनी बौद्धिक धार खो भी देते हैं। पर सही कहें तो यह सब दुःख से ज्यादा अपने आप पर निर्भर है। जहाँ तक मीनल की बात है तो दुःख भरी परिस्थितियों ने उसकी बुद्धि पर धार ही चढ़ाई है। यह सब उसके विधेयात्मक चिन्तन का परिणाम भी माना जा सकता है।

मीनल इसलिए भी अपने आस-पास की लड़कियों या युवतियों में काफी अलग दिखाई देती है, क्योंकि उसने अब तक की अपनी जिन्दगी के किसी भी पड़ाव को अपना भाग्य नहीं माना। उसने अपने कर्मठ पुरुषार्थ को किसी भी सीमाओं में कैद नहीं किया। उसका सदा से यही सोचना रहा है कि भवत्कृपा एवं पुरुषार्थ के सुयोग-संयोग से कुछ भी सम्भव है। बारह-तेरह साल की आयु में ही उसकी माँ की असमय मृत्यु हो गयी। दरअसल घर में इतना पैसा ही नहीं था कि उनका सही इलाज हो सके। माँ की मौत के बाद उसके पिता गलते-घुलते चले गए। बीमारी के चलते उन्हें भी नौकरी से अवकाश लेना पड़ा। पूरा परिवार तहस-नहस होने की कगार में पहुँच गया।

लेकिन उसने आँसुओं के उमड़ते रेले को पलकों के बहुत भीतर तक धकेल दिया। ताकि वे उसकी राहों को धुँधला न कर पाएँ। उसने हिम्मत करके दिन में पढ़ाई और बाकी समय कई तरह के काम व नौकरियाँ करते हुए अपनी पढ़ाई का खर्चा तो निकाला ही, अपने छोटे भाइयों को भी किसी हीन भावना से घिरने नहीं दिया। उनके लिए भी स्कूल और पढ़ाई की व्यवस्था जुटायी। किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में अपना नाम लिखाने की तो वह सोच भी नहीं सकती थी। क्योंकि कॉलेज के ही घण्टे तो उसके काम के घण्टे होते हैं। इन्हीं में तो वह अपने परिवार की रोजी-रोटी चलाती है। इसीलिए उसने सारी पढ़ाई पत्राचार से पूरी की। आज उसके पास हिन्दी साहित्य में एम.ए. का उपाधि पत्र है। जिसे वह बड़ी हसरत से देख लेती है। एम.ए. की यह उपाधि उसने कितनी तकलीफों से पायी, इसे वही जानती है। इस डिग्री के अलावा उसने पत्रकारिता का पाठ्यक्रम भी किया हुआ है।

निश्चित ही वह कुशाग्र बुद्धि है, दायित्व बोध उसमें भरपूर है। हाथ में लिए हुए काम में वह अपने को पूरी तरह होम देती है। समय की पाबन्दी, प्रत्युत्पन्नमति व अभिव्यक्ति की क्षमता उसमें गजब की है। संक्षेप में इस उम्र में जो मानसिक, बौद्धिक एवं भावनात्मक सौंदर्य होना चाहिए, वह उसमें पूरा-पूरा है। उसने इसे निखारने में कोई कोताही नहीं की है। जीवन मूल्यों के साथ उसने कहीं भी कोई छोटा सा भी समझौता नहीं किया है। सामान्य तौर-तरीकों के हिसाब से अब तक उसे व्यवस्थित हो जाना चाहिए था, उसकी शादी हो जानी चाहिए थी, परन्तु यह सब होता कैसे? उसके परिवार के पास दहेज की रकम जुटाने की सामर्थ्य जो नहीं है। योग्यता, लगन व आत्मविश्वास के बावजूद सिफारिश न होने के कारण कोई ढंग की नौकरी भी नहीं है। बस जैसे-तैसे एक साधारण सी फर्म में नौकरी कर रही है। वैसे वर्तमान काल का यह वाक्य सिर्फ अगले एक महीने तक ही टिकाऊ है। क्योंकि अगले चार हफ्तों में उसे दूसरी नौकरी ढूंढ़ने के लिए कह दिया गया है।

क्यों? क्योंकि वह अपने स्वाभिमान के साथ शील की रक्षा के लिए भी प्रतिबद्ध है। स्वाभिमान एवं शील को घर पर छोड़ कर दफ्तर आने की शर्त उसने मान ली होती तो सम्भव था कि वह हजारों रुपये की महंगी साड़ी पहनती और अपनी निजी कार चलाते हुए दफ्तर पहुँचती। लेकिन उसे तो अपनी भारतीय नारी की गरिमा को हर हाल में बचाए-बनाए रखना है। इसी को उसकी सबसे बड़ी कमी माना जाता है। मीनल सोचती है कि यह कैसी बात है कि भारत देश में भारतीय नारी के मूल्यों को उसकी सबसे बड़ी कमी माना जा रहा है। झूठ, कपाट, अन्याय व अवसरवाद से वह छूत की बीमारी की तरह बचती है। इसे भी उसकी कमी समझा जाता है।

कमी गिनाने वाले उसकी एक कमी और गिनाते हैं कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। ऐसा नहीं है कि मीनल को अंग्रेजी से बैर है। ग्रेजुएशन में उसने अंग्रेजी ली थी। जरूरत पड़ने पर वह अंग्रेजी बोल भी लेती है। और जब वह अंग्रेजी बोलती है तो वह अंग्रेजी उच्चारण एवं व्याकरण दोनों ही दृष्टि से शुद्ध होती है। फिर भी वह सामान्य क्रम में हिन्दी बोलना पसन्द करती है। अपने हिन्दी अनुराग के कारण ही उसने एम.ए. हिन्दी साहित्य में किया था। लेकिन अब तो अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति यह अनुराग उसके लिए पत्थर की तरह भारी बोझ बन गया है। जो न पानी में निर्बाध तैरने देता है, न सतह पर टिकने देता है, बस नदी की तलहटी में पूरे जोर से दबाए हुए है।

इस राष्ट्र भाषा अनुराग के कारण मीनल के अन्य सभी गुण दो कौड़ी के बने हुए हैं। शहर तो शहर गाँव में भी उसकी कोई इज्जत नहीं है। क्या कहें भारत के उन शहरों व गाँवों को जहाँ मीनल के लिए कोई जगह नहीं है। वह सोचती है कि क्या उस देश को स्वतंत्र कहा जा सकता है, जहाँ गुलामी के दौर में सीखी हुई दूर देशों की एक भाषा ने यहाँ की स्वतंत्रता पर अपना पूरा आधिपत्य एवं अधिकार जमा रखा हो। मीनल कहती है कि इससे तो अच्छा यही है कि भारत गूँगों का देश बन जाए। वाणी में ही लोकतंत्र नहीं होगा, तो भला विचारशील विद्वान बतायें कि यह कहाँ होगा? पाँच प्रतिशत लोगों की अंग्रेजियत 95 प्रतिशत लोगों की भाषाओं और भावनाओं को कुचलकर रख दिया है। अंग्रेजियत के पश्चिमी तौर तरीकों से कुचले जा रहे भारतीय जीवन मूल्यों, भारतीय नारी की गरिमा के नष्ट होने के अपराध को भारतीय दण्ड विधान में क्यों नहीं शामिल किया गया? क्या इसीलिए कि यह दण्ड विधान भी अंग्रेजी में लिखा हुआ है?

मीनल के सवाल कई हैं। उसका दर्द राष्ट्रीय भावनाओं का दर्द है, उसकी पीड़ा नारी शील को विद्रूप नजरों से घूरे जाने की पीड़ा है। वह कोई बहुत बड़ा धन या मान नहीं चाहती है। बस अपने भारत देश के किसी शहर या गाँव में इस देश के साँस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप जीना चाहती है। नारी की सम्पूर्ण मर्यादा, गरिमा व संवेदना को किसी भी कीमत पर अपने जीवन से अलग नहीं करना चाहती है। लेकिन लज्जा की बात यह है कि इतने सम्पन्न अवसर, बहुल और इतनी विविध गतिविधियों वाले देश में उसके लिए एक छोटी सी शालीन जगह नहीं मिल पा रही है। मीनल दुःखी है, वह कहती है कि यह मामला अकेले उसका नहीं, सभी भारतीय नारियों का है। जिनके लिए उचित जगहें पैदा करने के लिए इस देशवासियों को विश्वकर्मा बनना होगा। यहाँ बहुत कुछ तोड़ कर नया गाँव, नया शहर और नया देश बनाना होगा। जहाँ मीनल सहित सभी भारतीय नारियों की गरिमा व राष्ट्रीय भावनाएँ सुरक्षित हों।


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